Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar Publisher: Padma Prakashan View full book textPage 9
________________ प्राक्कथन : प्रथम संस्करण संसार में आज धर्म, आत्मा और परमात्मा विषयक जो भी चिन्तन, मनन एवं प्रवचन उपलब्ध है, उसका सर्वप्रथम प्रादुर्भाव भारत की तपोभूमि पर ही हुआ था। प्रागैतिहासिक काल से ही इस भारत भूमि पर दो प्रकार की विचारधाराएँ, दो संस्कृतियाँ गंगा-यमुना की भाँति प्रवाहशील रही हैं । एक है-श्रमण संस्कृति और दूसरी ब्राह्मण संस्कृति । दोनों ही संस्कृतियों का लक्ष्य है-जीवन का चरम विकास, आत्मा का कल्याण । यद्यपि जीवन के अन्तिम ध्येय-निर्वाण या परम आत्म-सुख के विषय में दोनों संस्कृतियों के चिन्तन में पर्याप्त अन्तर है । इसी अन्तर के कारण तो दोनों संस्कृतियाँ दो धाराओं में प्रवाहित हैं । श्रमण संस्कति निर्वाणवादी संस्कृति रही है, जबकि ब्राह्मण संस्कृति के समस्त क्रियाकांड स्वर्ग के आसपास ही परिक्रमा करते हैं । इसी कारण आचार एवं विचार सम्बन्धी प्रक्रिया में भी अन्तर रहा है । श्रमण संस्कृति त्याग एवं तप-प्रधान रही है । ब्राह्मण संस्कृति कर्म एवं योग-प्रधान रही है । श्रमण संस्कृति के चिन्तन का आधार है-आगम; जिन्हें 'श्रुत' कहा जाता है । ब्राह्मण संस्कृति का आधार है-वेद, जिन्हें 'श्रुति' कहा गया है। ब्राह्मण संस्कृति ईश्वरवादी संस्कृति रही है, वहाँ निर्वाण का अर्थ है-जीव का ईश्वर में विलय और अद्वैतवाद की दृष्टि में ब्रह्म में विलय हो जाना ही निर्वाण है । श्रमण संस्कृति की एक धारा-बौद्ध संस्कृति भी निर्वाण में विश्वास अवश्य करती है, परन्तु उसके निर्वाण की परिभाषा है-बुझ जाना । जो संतति चल रही है उसका समाप्त हो जाना--"दीपो यथा निर्वृति मभ्युपेतः।"-जैसे दीपक जलता-जलता बुझ जाता है, वैसे ही जीव, आत्मा, पुद्गल, वासना आदि के संतान प्रवाह का समाप्त हो जाना निर्वाण है । इस प्रकार एक में मोक्ष का अर्थ है-विलय, तो दूसरी में मोक्ष का अर्थ है-समाप्त हो जाना । श्रमण संस्कृति अर्थात् जैन संस्कृति प्रारंभ से ही निर्वाणवादी या मोक्षवादी रही है । यहाँ माना गया है-"निव्वाणसेट्ठा जह सव्व धम्मा।"-समस्त धर्मों में निर्वाण ही परम श्रेष्ठ धर्म है । भगवान महावीर निर्वाणवादियों में सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं “णिव्वाणवादीणिह णायपुत्ते।" जैनधर्म में निर्वाण का अर्थ बड़ा तर्कसंगत और वैज्ञानिक है। भगवान महावीर की दृष्टि से “निव्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धी लोगस्समेव य खेमं सिवं अणाबाहं, तं चरंति महेसिणो ॥" (उत्तराध्ययन ३२/८३) निर्वाण का अर्थ है-सर्व बाधाओं से रहित, अव्याबाध सुख, सर्वकर्म आवरणों से रहित-चिन्मय चिदानन्दस्वरूप का प्रकट हो जाना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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