Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 13
________________ 155555**********த*****************திக i स्व-कथ्य श्री स्थानांगसूत्र का यह दूसरा भाग है। प्रथम भाग में स्थान एक से चतुर्थ स्थान के तृतीय उद्देशक तक की सामग्री है। चतुर्थ स्थान के चौथे उद्देशक से दशम स्थान तक का सम्पूर्ण आगम इस द्वितीय भाग में है। यों तो स्थानांगसूत्र स्वयं ही बहुत विशाल और विस्तृत है। इसमें इतने विविध विषय हैं कि उन पर संक्षिप्त विवेचन किया जाय तब भी कम से कम तीन भाग तो हो ही जाते । फिर सूत्र रूप में आये विषयों पर विवेचन की अपेक्षा भी है। जैसे न्यायदर्शन के अन्तर्गत हेतु - अहेतु का वर्णन, सात नयों का वर्णन, सात निन्हवों का वर्णन, दस आचार्यों का वर्णन तथा अन्य भी अनेक ऐसे विषय हैं। सूत्र में आये हुए विषयों पर टीकाकार श्री अभयदेव सूरि ने प्राचीन परम्परा के अनेक उदाहरण व दृष्टान्त भी दिये हैं, जो ज्ञानवर्धक होने के साथ ही विषय को विशद रूप में उजागर करते हैं । 卐 इसी के साथ जैन, बौद्ध व वैदिक ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक दृष्टि से इसका अनुशीलन भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय, अट्ठकथा और वैदिक ग्रन्थ महाभारत आदि में भी अनेक विषय 5 स्थानांगसूत्र से बहुत ही समानता रखते हैं और उस वर्णन में ऐसा अनुमान होता है कि लोक, स्वर्ग-नरक - आरोग्य व नीति सम्बन्धी, पुरुष - परीक्षा सम्बन्धी बहुत से विषय उस समय सभी धर्माचार्यों द्वारा अपनीअपनी शैली में उक्त रूप में कथन किये जाते थे । उन विषयों पर तुलनात्मक शोधपरक अध्ययन अपेक्षित हैं । किन्तु ऐसे कार्यों में समय और श्रम शक्ति के साथ विविध ग्रन्थों की उपलब्धता तथा विद्वानों का सहयोग भी नितांत अपेक्षित है । अस्तु प्रस्तुत सम्पादन में तो हमने अपने स्तर पर तथा अपनी समय व शक्ति की सीमा में रहकर कार्य किया है और मुझे विश्वास है यह आगमों के आधारभूत ज्ञान के लिए उपयोगी सिद्ध होगा । अनेक स्थानांगसूत्र के सम्बन्ध में प्रथम भाग की प्रस्तावना में विस्तार से लिखा जा चुका है। अतः यहाँ पुनरुक्ति नहीं करके पाठकों से यही अनुरोध है कि आगमों का स्वाध्याय करते समय अनाध्याय काल का वर्जन करके पूर्ण शुद्ध उच्चारण व शुद्ध भावपूर्वक पाठ करें। जिनवाणी अत्यन्त ही पवित्र धर्मग्रन्थ है, धर्मग्रन्थों की अपनी विशेष मर्यादा और महत्त्व होता है । असावधानी व अशातनापूर्वक पढ़ा हुआ शास्त्र भी शस्त्र का 5 काम कर देता है। अतः शास्त्र को शास्त्र के बहुमानपूर्वक ही पढ़ें। हमने अगले वर्ष पंचम अंग व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (श्री भगवतीसूत्र) के सम्पादन कार्य में जुटने का संकल्प किया है, कार्य आरम्भ भी हो चुका है। जिनेश्वर देव की भक्ति, जिनवाणी की श्रद्धा और गुरुदेव की शक्ति तथा आप सबके सहयोग की भावना से हम अपना संकल्प पूर्ण करने में समर्थ होंगे, यह पूर्ण विश्वास है । विशेषकर मैं श्रुत-सेवा में सहयोग प्रदान करने वाले सभी उदारमना सद्गृहस्थों को पुनः धन्यवाद देना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। Jain Education International (7) 55555555 For Private & Personal Use Only 2 955 5 55 5 5 5 5 6 7 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55555555 5 5 5555 55592 - प्रवर्त्तक अमर मुनि 1 www.jainelibrary.org

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