Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 713
________________ ६६८ आचारागसूत्रे उपशमाश्रयणस्य फलं प्रदर्शयन् गृहीतप्रव्रज्यस्य मुमुक्षोः कर्तव्यमाह'तम्हा अविमणे' इत्यादि। मूलम्-तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिए सया जए ॥ सू०२॥ छाया--तस्मात् अविमना वीरः स्वारतः समितः सदा यतेत ॥ मू० २॥ टीका--तस्मात्-उपशमाश्रयणात् , वीरः कर्मविदारणसमर्थः अविमनाः संयमाराधने खेदरहितः, अत एव स्वारतः सुष्टु आरतः यावज्जीवनमर्यादया संयमाऽऽचरणे तत्परः, समितः समितिसमन्वितः, सहितः-हितेन सह सहितः-सम्यग्ज्ञानादिगुणयुक्तः, सदा-सर्वकालं यतेत संयमाराधनमारोहहनमतिज्ञामङ्गीकृत्य तत्परिपालनार्थ प्रयतमानो भवेदित्यर्थः ।। मू० २॥ पुनः पुनः संयमानुष्ठानोपदेशे हेतुं प्रदर्शयन्नाह--'दुरणुचरो' इत्यादि । उपशमसंयम के आश्रय करने के फलको दिखाते हुए सूत्रकार जिसने दीक्षा अंगीकार कर ली है ऐसे मोक्षाभिलाषी मुनि का कर्तव्य बतलाते हैं-'तम्हा अविमणे' इत्यादि। __उपशमसंयम के आश्रय करनेसे कर्म को नष्ट करने की शक्ति से संपन्न जीव संयम के आराधन करने में खेदरहित होकर यावज्जीवन संयम के आराधना में तत्पर होता हुआ समिति से और सम्यग्दर्शनज्ञानादि गुणों से युक्त होकर सर्वदा संथम के आराधनरूपी भार को वहन करने की प्रतिज्ञा को अंगीकार कर उसके पालन करने में प्रयत्न शील बने ॥ सू०२॥ पुनः पुनः संयम के अनुष्ठान करने के उपदेश में कारण प्रकट करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'दुरणुचरो' इत्यादि । ઉપશમ-સંયમના આશ્રય કરવાના ફળને દેખાડતાં સૂત્રકાર જેણે દીક્ષા અંગી४॥२ ४२सी छे मेवा भावालिसाषी भुनिनु तव्य छ-'तम्हा अविमणे' त्याहि. ઉપશમ–સંયમને આશ્રય કરવાથી કર્મને નષ્ટ કરવાની શક્તિવાળાં જીવ સંયમનું આરાધન કરવામાં બેદરહિત થઈને ચાવજીવન સંયમના આરાધનમાં તત્પર બનીને સમિતિથી અને સમ્યગ્દર્શનજ્ઞાનાદિ ગુણોથી યુક્ત થઈને હમેશાં સંયમના આરાધનરૂપી ભારને વહન કરવાના નિયમને અંગીકાર કરીને તેનું પાલન કરવામાં પ્રયત્નશીલ બને. એ સૂત્ર છે વારંવાર સંયમનું અનુષ્ઠાન કરવાના ઉપદેશમાં કારણ પ્રગટ કરીને સૂત્ર१२ ४ छ-'दुरणुचरो' छत्याहि. શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨

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