Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 727
________________ आचाराङ्गसूत्रे ननु कर्मोपादानरूपं स्रोतः किं कृत्वा प्रतिच्छेद्यमिति जिज्ञासायामाह--- 'कम्मुणा' इत्यादि। मूलम्-कम्मुणो सफलत्तं दतॄणं तओनिज्जाइ वेयवी।सू०९॥ छाया--कर्मणः सफलत्वं दृष्ट्वा ततो निर्याति वेदवित् ।। सू० ९॥ टीका-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैः क्रियते इति कर्म-ज्ञानावरणीयादिकम् , तस्य, सफलत्वं-ज्ञानावरणादिस्वस्वफलजननावश्यम्भावं, दृष्ट्वा वेदवित्-वेद्यते तत्वान्यनेनेति वेदा आहेतागमः, तं वेत्तीति वेदवित्-सर्वज्ञोपदेशजन्यसम्यग्ज्ञानचानित्यर्थः, ततः कर्मणः कर्मबन्धकारणात निर्याति दूरीभवति, कर्मबन्धननिवन्धनसकलसावधव्यापारं परिवर्जयतीत्यर्थः॥ सू० ९॥ व्यापारों से सदा विरक्त रहे । जिससे जीवों को थोडे से भी कष्टादिक का अनुभव हो ऐसी कोई भी क्रिया वह न करे । सावधक्रिया करनेवाले मनुष्यों के सम्पर्क में रहते हए भी अपने को उस व्यापार से बचा कर रखना यही तो संयमी मुनिकी विशेषता है। निष्कर्मदर्शी-इस शब्द का अर्थ मोक्षाभिलाषी है, क्योंकि की के सम्बन्ध से रहित जो स्थान है वह निष्कर्म है, उस स्थान को देखने का जिस का स्वभाव है ऐसा जीव निष्कर्मदर्शी कहलाता है। सूत्र में "च" शब्द अन्तरङ्ग परिग्रह का बोधक है। सू०८॥ __ संयमी मुनि क्या समझ कर कर्मों के आने में कारणरूप इस स्रोत को बन्द करे ? इस प्रकार की जिज्ञासा का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'कम्मुणो' इत्यादि ।। कर्मों को अपने २ फल का देनेवाला जानकर वह ज्ञानी-संयमी मुनि उन कर्मों से और उनके कारणों से दूर ही रहता है। વ્યાપારથી સદા વિરક્ત રહે. જેનાથી એને થોડો પણ કષ્ટાદિકને અનુભવ થાય તેવું કોઈ કાર્ય તેઓ ન કરે. સાવદ્ય-વ્યાપાર કરવાવાળા મનુષ્યનાં સંપર્કમાં રહેવા છતાં પણ પોતાની જાતને તેવા વ્યાપારથી દૂર રાખવું, એ જ સંયમી મુનિની વિશેષતા છે. 'निष्कर्मदर्शी' मा शहन। म भेक्षामिसापीछे, १२९ ना समयी રહિત જે સ્થાન છે તે નિષ્કર્મ છે તે સ્થાનને દેખવાને જેને સ્વભાવ છે તેવો જીવ નિષ્કર્મદશી કહેવાય છે. સૂત્રમાં “ર” શબ્દ અંતરંગ પરિગ્રહનો બોધક છે. સૂ૦ ૮. શું સમજીને સંયમી મુનિ કર્મોને આવવાના કારણરૂપ આ સ્ત્રોતને બંધ કરે? मा १२नी शासानु समाधान ४२ता सूत्र२ छ:--'कम्मुणों' त्यादि. કર્મોને પોતપોતાના ફળને દેવાવાળા જાણીને તે સંયમી મુનિ તે કર્મોથી અને તેના કારણેથી દૂર જ રહે છે. શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨

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