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करना होगा। लेकिन निर्णय करने से पूर्व इस तथ्य को नहीं भुलाया जा सकता है कि मानव में शांति की तीव्र आकांक्षा और अपने दायित्वों के प्रति सजगता मानवीय भावों की ओर ही बढ़ाती रही है। उसका विश्वास रहा है कि भले ही अनेक रुकावटें आये, विघ्न बाधाएं हों, परंतु यह निश्चित है कि मानव विवेकपूर्ण विश्व की ओर बढ़ेगा एवं उसकी गति रचनात्मक साहस व बुद्धिमत्ता द्वारा तय होगी । उत्तम भावना.साधारण मानव ही नहीं अपितु उन बड़े-बड़े विज्ञानवेत्ताओं की भी हैं जो संहारक शस्त्रों के सृजन में संलग्न है और उन राजनीतिज्ञों को भी है जो शक्ति संतुलन के नाम पर अस्त्र शस्त्रों के अम्बार लगा रहे हैं।
इस विश्वास का कारण क्या है ? कारण बहुत ही सीधा सादा और सरल है - मानव का, प्राणधारियों में स्वानुभूति के दर्शन, सार्वभौम-सार्वकालिक चेतना का सम्बन्ध । क्यों कि विकास करने और अच्छा बनने की इच्छा हमारी ही नहीं वरन प्रत्येक प्राणी की स्वभावगत आकांक्षा है । इसके लिए अनवरत प्रयत्न चलते रहे हैं
और प्राप्त करने पर जो शांति होती है इसका नाम है - धर्म । यह हमसे अनेक बोलियों में बातें करता है, अनेकारूपों में हमारे सामने आता है। जब चराचर विश्व के पद की बात करता है तब वत्थु सहाओ धम्मो के रूप में उपस्थित होता है । जब चेतन पदार्थो को लक्ष्य में रखकर बात करता है तब "उपयोगो लक्षणम्' के रूप में व्यक्त होता है। आत्म (लक्ष्य) की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन, चारित्र के रूप में धर्म प्रकट होता है । यहाँ जैसा हम सुख चाहते हैं वैसा ही दूसरे भी चाहते हैं तब “आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्” का स्वर मुखरित करता है। इसी प्रकार स्व और पर आत्मा के विकास के लिए जो भी अन्य कारण या कार्य है - वे सब धर्म है। इधर इन सब का अर्थ है आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति आदर, सत्य के प्रतिप्रेम न्याय और दया, पीड़ितों के प्रति सहानुभूति और प्राणीमात्र के प्रति भ्रातृत्व में विश्वास आदि ।
इनके द्वारा हम धर्म के विशाल और उदात्त दृष्टिकोण का स्वयं ज्ञान कर सकते हैं, और दूसरों को भी परिचित कर सकते हैं। धर्म हर क्षेत्र में हर स्थान में और हर समय जीवन के साथ सम्बंधित रहता है । वह जीवन के कण-कण में व्याप्त है और जीवन
132 - अध्यात्म के झरोखे से
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