Book Title: Adhyatma Ke Zarokhe Se
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Ashtmangal Foundation

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Page 185
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्थात् मनुष्य को बार- बार मानसिक दुःखों की प्राप्ति के कारण दो ही हेतु हैं, सुख का भ्रम और अनिष्ट की प्राप्ति । तीसरा कोई कारण संभव ही नहीं है । अतः मनुष्य को चाहिए कि व्यर्थ के भ्रम और अनिष्ट की चिंता से स्वयं को मुक्त करे और अपने आत्मबल को, अध्यात्म चिंतन को हर परिस्थिति में मजबूत बनाए रखे । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसके अतिरिक्त अनित्य भावना, अशरण भावना, बोधिदुर्लभ भावना, एकत्व भावना आदि बारह भावनाओं पर शांत स्थिर बनकर मनोयोग पूर्वक चिंतन भी तनाव को निर्मूल करने में सहायक सिद्ध होता है । अध्यात्मनिष्ठ साधक का चिंतन स्पष्ट रहता है - 184 मैं न किसीका जब यहाँ, मेरा भी है कौन । तत्त्व यही एकत्व का, सोचो लेकर मौन ॥ आध्यात्मिक दृष्टिकोण बनते ही व्यक्ति की हर प्रवृति में अद्भुत संतुलन आ जाता है। आज अध्यात्म चेतना सुषुप्त है इसलिए चारों ओर संकट, क्लेश एवं तनाव है । अध्यात्म चेतना का अर्थ है - मैं अकेला आया हूं और अकेला ही एक दिन जाऊंगा, जब व्यक्ति के भीतर यह भावना प्रबल हो जाती है, तो अनावश्यक संग्रह, आसक्ति और मोह को पुष्टि नहीं मिलती । कषायों को अवसर नहीं मिलता। वह किसी के प्रति निर्मम नहीं बनता उसकी करुण भावना जागृत हो जाती है । वह किसीके प्रति द्वेष अथवा ईर्ष्या, घृणा से ग्रस्त होने की भूल नहीं करता । वह यह जान जाता है कि जीवन कितना है । अध्यात्मविहीन बनकर मानव जब आकंठ भौतिकता में निमग्न हो जाता है तो उसका संपूर्ण जीवन तनावों का केन्द्र बन जाता है । अध्यात्मनिष्ठ जीवन में किसी तरह की अपेक्षा या उपेक्षा का भाव नहीं होता । मानसिक शांति भंग तभी होती है जब व्यक्ति अपेक्षा के सूत्र से अपने आपको अनुबंधित करता है । अध्यात्म साधना के क्षेत्र में गतिमान साधक के लिए आगमों में स्पष्ट संसूचन है कि वह साधना कभी भी भौतिक कामनाओं से ग्रस्त होकर न करें। भगवान प्रेम भी यदि किसी कामना से किया जाता है तो वह सकाम कहलाता है। जिसमें कुछ भी चाह जुड़ जाती है उसकी निस्वार्थता समाप्त हो जाती है। उसमें स्वार्थ का पुट आ जाता है । स्वार्थ के समावेश से कामना 1 अध्यात्म के झरोखे से For Private And Personal Use Only

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