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तीन गुणव्रत जिनका संबंध दैनंदिन व्यवहार एवं जीवन उपयोगी वस्तुओं के साथ है। तृतीय विभाग का संबंध आत्म साधना एवं आत्म विशुद्धि से है। ___ अणुव्रत पांच है - स्थूल हिंसा का त्याग, स्थूल असत्य का त्याग, स्थूल चोरी का त्याग, स्वदार-संतोष-परदार-विवर्जन, परिग्रह परिमाणव्रत । सर्व प्रथम श्रावक आचारनीति में दोष विरमण अर्थात् निषेध रूपशील का विधान है जिसे अणुव्रत के रूप में गृहस्थ अपने नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए स्वीकार करता है। दिशा परिमाणवत इसमें प्रवृतियों का क्षेत्र मर्यादित किया जाता है । उपभोग परिभोग परिमाण व्रत वैयक्तिक आवश्यकताओं पर नियंत्रण है। अनर्थ दण्डव्रत में वैयक्तिक हलचल एवं शारीरिक निरर्थक चेष्टाओं पर अनुशासन का विधान है । सामायिक व्रत एक आध्यात्मिक साधना है । कुछ समय तक साधक इससे शुभ भावों से ओतप्रोत रहता है । देश-अवकाशिकव्रत में निश्चित क्षेत्र की सीमा से बाहर प्रवृत्ति नहीं की जाती, यह धार्मिक अनुष्ठानों का व्रत है । पौषध उपवास व्रत में साधक चौवीस घंटे तक व्रत में रहकर जीवनशैली का निरीक्षण करता है । स्वयं की कमजोरियों को जानना एक बहुत बड़ा नैतिक आचरण है । इसमें शुभ से परम शुभ की ओर प्रयाण का मार्ग प्रशस्त होता है।
अतिथि संविभाग व्रत का नैतिक विकास की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। यह संविभाग सम्यक् प्रकार से वितरण का व्यावहारिक एवं प्रयोगात्मक रूप है। अपनी न्यायोपार्जित आय मे से अतिथि की आहार आदि अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी इसीमें समाविष्ट है । जीवन विकास के इन साधक सूत्रों में निवृत्ति एवं प्रवृत्ति दोनों दृष्टिकोणों से विचार किया गया है । भगवान महावीर का कथन है - असंयम से निवृत्त बनों एवं संयम में प्रवृत्ति करो । असंयम समत्व से विचलन का पथ है । संयम विकास का मार्ग है । नैतिक, व्यावहारिक विकास के सोपानों पर क्रमशः आरोहण करने वाला गृहस्थ, उपासक एक दिन नैतिकता के ऊंचे सोपान पर पहुंचता है, जहां उसे नैतिकता के चरम उत्कर्ष की समतल भूमि मिलती है और वहाँ से वह परम शुद्ध की स्थिति, अध्यात्म की, परमार्थ की सर्वोच्च ऊंचाईयों को प्राप्त करता है।
अध्यात्म विकास के दो पहलू : व्यवहार और निश्चय - 191
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