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इसी तरह श्रमणसाधक के लिए सत्ताइस गुणों का सम्यक् विकास आवश्यक है। सत्ताइस श्रमण नीतियों गुणों का उल्लेख समवायांगसूत्र में मिलता है। पांच महाव्रत, पांच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषाय विवेक, तीन सत्य, खंति क्षमा, विरागता, मन समाधि, वचन समाधि, काय समाधि, ज्ञान संपन्नता, दर्शन संपन्नता, चारित्र संपन्नता, वेदना अधिसहन, मारणांतक अधिसहन । इसी तरह दिगम्बर परंपरा में अठाईस गुणों के पालन का उल्लेख इस रूप में है - पांचमहाव्रत, समिति इन्द्रिय विजय, आवश्यक केशलुंचन, अचेलकता, अस्नानता, भूशैया, स्थिति भोजन, अदन्तधावन, एक भुक्ति । श्रमणजीवन के ये अनुशासित सूत्र है जो आध्यात्मिक विकास के साधकतत्त्व है तथा नैतिक व्यावहारिक विकास की अंतिम मंजिल है । इन व्रतों की पुष्टि के लिए दस धर्म, बारह भावनाओं का अनुचिंतन, परिषह जय, बारह प्रकार के तप का अनुष्ठान, मैत्री आदि भावों का अनुप्रेषण भी आवश्यक है। बातों एवं कल्पनाओं से आध्यात्मिक विकास संभव नहीं है। हार्दिकता पूर्वक विशुद्ध अध्यात्मिक अनुष्ठानों से संलग्न बन कर गतिशील बनने पर ही आध्यात्मिक विकास संपादित होता है ।
192 - अध्यात्म के झरोखे से
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