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परिणाम बीभत्स भी हो सकता है । व्यर्थ कल्पना के जाल बुनकर कोई व्यक्ति यह चाह करता है, कि कोई उसमें उलझ जाए और उसके उलझाव से वह व्यक्ति एक आनंद का अनुभव करें। अनेक प्रकार के संशयों से वह उस जाल को बुनते रहने में संलग्न होता है।
भटकाव के अंतर्गत मनुष्य अनेकों ऊहापोहों में व्यस्त रहता है । वह किसी भी एक निर्णय पर दृढ नहीं रह पाता है । उलझावों से विमुक्त होने के लिए वह या तो प्रयास नहीं करता या उसके प्रयास विवेकजन्य नहीं होते । उसे भटकाव के अतिरिक्त कुछ भी उपलब्ध नहीं होता । _ विचारों की अपवित्रता एक बड़ा दोष है । इसके अंतर्गत नैतिकता ध्वस्त होती है। अनीतिपूर्ण व्यवहारों में व्यक्ति संलग्न होता है । अप्रत्यक्ष रूप से भी विचार वातावरण में स्थित होकर अन्य व्यक्तियों को प्रभावित करते है । कुविचार में निरत व्यक्ति वातावरण से उन अपवित्र विचारों को ग्रहण करता है । जरूरी है कि वातावरण में पूर्ण निर्मलता रहे । द्वेष के वशीभूत व्यक्ति अपने अतिरिक्त प्रत्येक के प्रति अथवा किसी व्यक्ति विशेष के प्रति अनिट भावना को स्थान देता है। उन भावों के कारण अनिष्ट कार्य भी सम्पन्न हो जाते हैं |
उक्त दोष मन के द्वारा प्रकट होते हैं, अतः मन को, अपने अन्तःकरण को पवित्र रखना आवश्यक है। अनावश्यक रूप से किसी भी संदर्भ को दोष की कालिमा से आवृत करना एक दुष्प्रयास है । अनिष्ट किसीके प्रति भी मन में उपजा हो अंततः वह उसको भी उसी धारा में प्रवाहित करता है । आंतरिक शुद्धि भीतर का भाव है और यह भाव अध्यात्म का आधार है । आत्म कल्याण में प्रवृत्त होने के लिए अंतरशुद्धि की अनन्य साधना को एक पल के लिए भी गौण नहीं करना चाहिए । 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' इस कहावत में छुपे यथार्थ का सम्यक्बोध करके मानसिक विकृतियों से निवृत्ति का प्रयास जब चलता है तो शनैः शनैः पूरा जीवन ही सहजता में बदल जाता है।
176 - अध्यात्म के झरोखे से
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