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संयम के बल पर अध्यात्म की साधना सहज होती है। आज संयम के प्रति गहरी उपेक्षा के कारण ही परिवेश में विष घुल गया है। संयम की उपेक्षा से जीवन हीनत्व से युक्त हो जाता है । हीनता व्यक्ति को अपने आप से भी उपेक्षित कर देती है। अपने प्रति अवहेलना से व्यक्ति ऐसे जंगलों में उलझ जाता है जो उसके जीवन को दूभर कर देते हैं। अध्यात्म की दृष्टि से संयम का अर्थ आत्मानुशासन होता है। आत्मानुशासन जीवन को संपूर्ण रूप से निखारने वाला तत्त्व है। अपने प्रति अनुशासन का त्याग करने पर व्यक्ति अन्य के शासन में आ जाता है । अन्य से शासित होने पर व्यक्ति शोषित होता है, उस स्थिति में पूरा तंत्र गड़बड़ा जाता है। अतः अनुशासन अर्थात् संयम से अपने जीवन को अलंकृत करना अपने आपको नीतिमत्ता से, अध्यात्म से जोड़ना है।
यह निर्विवाद है कि जो अनुशासन भीतर के विवेक जागरण से आता है वही प्रभावपूर्ण एवं स्थायित्व लिये होता है । संयम और तप के द्वारा निश्चय रूप से अनियंत्रित वृत्तियों पर अंकुश लगाना चाहिए, तभी इन्द्रिय विग्रह, मनः शुद्धि एक चेतना का ऊर्ध्वारोहण सिद्ध हो सकेगा । जो संयमी होता है, उसका जीवन व्यवस्थित होता है । जो व्यवस्थित होता है, वही संतुलित एवं अनुशासित होता है । उसीके अंतर में अध्यात्म की ज्योतिर्मय मशाल प्रज्वलित होती है, उसीके जीवन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि अपरिग्रह की अवस्थिति होती है।
संयम जीवन का आधारस्तंभ है । जिस प्रकार आधारस्तंभ टूटने पर मजबूत से मजबूत भव्य भवन भी गिर जाता है। उसी तरह संयम के अभाव में अंतर की शक्तियों का तेजी से हृास होने लगता है । छिद्रों वाली नौका पार नहीं पहुंच सकती, उसी तरह से जिस जीवन में असंयम रूप छेद है, वह संसार सागर में डूब जाता है । संयम और तप एक दूसरे से संबंधित है । इनकी आराधना आध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा से भरा उपक्रम है । संयम और तप मनोदैहिक साधना प्रक्रिया है, संयम तप, ऊर्जा नाभिक पर सीधा आघात कर उसे विखंडित करता है । ऊर्जा जब फैल जाती है तो चेतना ऊर्ध्वारोहण की ओर गति करती है, यह गति ही प्रगति का प्रवेश द्वार है।
Swainmiya
180 - अध्यात्म के झरोखे से
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