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का मूल है और जन्म-मरण ही वस्तुतः दुःख है । राग को बोल-चाल की भाषा में लगाव और द्वेष को हम टकराव कहते हैं । लगाव और टकराव विभाव है और समभाव स्व भाव है । विभाव में दुःख है और स्वभाव में सुख है । विभाव में अध्यात्म का विकास नहीं होता। आध्यात्मिक के विकास के लिए राग और द्वेष को सर्वप्रथम चोट करना आवश्यक है ।
सारी समस्याओं का मूल उद्गमस्थल राग और द्वेष है । क्रोध, मान, माया और लोभ का जन्म और इनकी अभिवृद्धि का कारण यही राग और द्वेष है । क्रोध, मान, माया और लोभ को 'कषाय' कहा गया है । कषाय जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। अथ की दृष्टि से इसे प्रकंपन, उत्ताप, आवेग और आवर्त कह सकते हैं । निश्चय नय की दृष्टि से चैतन्य के प्रशांत महासागर में विक्षोभ उत्पन्न होना कषाय है । कषायाकुल जीव पर पदार्थ की ओर आकर्षित होता है । विजातीय पदार्थों का बढ़ता आकर्षण, भेद विज्ञान, बोध को क्षीण करता है । जब भेद विज्ञान का बोध क्षीण होता है, तो आत्म-ज्योति मिथ्यात्व से आवृत होती है । क्रोधादि मनोदशाएं, जिसके तीव्रता एवं मंदता के आधार पर सोलह प्रकार एवं हास्यादि के नौ भेद होते हैं । कषायों से आत्म मलिनता बढ़ती है। 'मलिने मनसि व्रतशीलानि नावातिष्ठन्ते' अर्थात् मलिन चित्त के व्रत, शील नहीं ठहर सकते । 'कषत्याभानं हिनस्ति' कषाय आत्मा के सहज स्वरूप की हिंसा करती है।
मिथ्यात्व को अनंत संसार का हेतु है किन्तु मिथ्यात्व की ओर ले जानेवाली अनंतानुबंधी कषाय है, यह सबसे अधिक खतरनाक है । कषाय यह अशुभ मनोवृत्ति है । जिसमें समभाव का अभाव होता है । कषाय चार प्रकार के है - अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन । क्रोध, मान, माया एवं लोभ के चार चार भेद होने से कषाय के सोलह विभाग बनते हैं । इनके अतिरिक्त नौ कषाय - जिसे कषाय प्रेरक भी कहते हैं, उसके नौ भेद होते हैं - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा (घृणा), स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक वेद ।
अध्यात्म का प्राणतत्त्व : रागद्वेष एवं कषाय से मुक्ति - 169
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