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2 – अध्यात्म का प्राणतत्त्व : रागद्वेष एवं कषाय से मुक्ति
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ग-द्वेष एवं कषाय का संग, साथ हर
रा स्थिति में घातक है। शास्त्रों में इनको
आंतरिक दोष - " अज्झत्थ दोसा' कहा गया है
जिसका तात्पर्य स्पष्ट है कि इनकी जड़ हमारे
मन में बहुत गहरी रहती है, वातावरण का रस
पाकर विष- बेल की तरह निरंतर बढ़ती हुई ये व्यक्ति, परिवार समाज और राष्ट्र तक को आवृत कर लेती है और इनके दुष्परिणामों से कदम दर कदम दुःखों की अभिवृद्धि होती चली जाती है ।
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राग-द्वेष और कषाय की वृत्तियां यूं बीजरूप में प्रत्येक आत्मा में रहती है किन्तु जब ये प्रबल होती है तो व्यक्ति व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक प्रत्येक क्षेत्र में बुरी तरह से पिछड़ जाता है । अध्यात्म साधना के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि रागद्वेष एवं कषाय से मुक्ति अथवा इनके अल्पीकरण का प्रयास किया जाए, यही प्रयास विकास प्रदान करता है । उत्तराध्ययन सूत्र में इस आशय की एक महत्त्वपूर्ण गाथा है -
रागो य दोसो व य कम्मबीयं कम्मं च मोहव्प भवं वयंति । कम्मं च जाई मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई मरणं वयंति ॥ राग और द्वेष ये कर्मों के बीज है । कर्म स्नेह से उत्पन्न होता है । कर्म ही जन्म मरण
अध्यात्म के झरोखे से
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