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उपशान्ति करनेवाली आत्मा कभी कभी इस गुणस्थान से तल तक पतित हो जाती । जैसे अंगारे राख से ढंके हुए हो और हवा के एक तेज झोंके से सारी राख उड़ जाती है और अंगारें धक-धक करने लगते है । पहली श्रेणी में ऐसी दुर्दशा संभव हो सकती है, किन्तु दूसरी श्रेणी में प्रविष्ट आत्मा को ऐसे किसी अधःपतन की आशंका नहीं रहती ।
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चाहे पहली श्रेणी वाली आत्मा हो या दूसरी, वह अपनी उत्कृष्टता से एक बार नवा, दसवा, गुण स्थान प्राप्त करती ही है । फिर ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त करनेवाली आत्मा एक बार अवश्य पतित हो जाती है । दूसरी श्रेणी की आत्मा मोह को निर्मूल बनाकर सीधे दसवें से बारहवें गुणस्थान में प्रवेश कर जाती है ।
जैसे ग्यारहवा गुणस्थान पुनरावृत्ति का है, वैसे ही बारहवा गुणस्थान अपुनरावृत्ति का है । ग्यारहवें गुणस्थान में प्रवेश करनेवाली आत्मा का अधःपतन होता है जबकि उसको लांघकर बारहवें गुण स्थान में प्रवेश कर पाने वाली आत्मा का परम उत्कर्ष असंदिग्ध हो जाता है ।
उपशम श्रेणी में पतन की आशंका रहती है तो क्षपक श्रेणी में उत्थान का अपरिमित विकास ! इस दृष्टि से मोह का सर्वथा क्षय सर्वोच्च आत्मविकास का पट्टा होता है । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानों की भेद रेखा अति सूक्ष्म है, जिसे पार कर लेने पर आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेती है । परमात्म स्वरूप बन जाती है ।
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मोहनीय भावों में आत्मा जबतक पूर्णतया संलीन डूबी रहती है तब तक वह मिथ्यात्व के अंधकार में भटकती रहती है और उसकी स्थिति पहले गुणस्थान होती है । इस अवस्था में जब कभी किसी कारणवश दर्शन के भावों में कुछ शिथिलता आती है तो आत्मा की विचारणा जड़ से चेतन की ओर मुड़ती है । चेतना की ओर मुड़ने का अर्थ है पर स्वरूप से हटकर स्वस्वरूप की ओर दृष्टि का फैलाव | आध्यात्मिक उत्कर्ष की ओर गति प्रगति । चेतनतत्त्व अर्थात् निजस्वरूप की ओर दृष्टि ! इस दृष्टि से उसे एक अभिनव रसास्वादान की आंतरिक अनुभूति होती है । जिससे मिथ्यात्व की ग्रंथि खटकने लगती है । इस समय आत्मा क्षेत्र
आध्यात्मिक विकास क्रम के चौदह सोपान
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