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किन्तु वातावरण की प्रवृत्ति बदलती नहीं है-अविरति स्थिति बनी रहती है । चौथे गुणस्थान से आगे के समस्त गुणस्थानों की दृष्टि सम्यक् मानी जाती है । कारण आगे के गुणस्थानों में उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास, दृष्टि शुद्धि और व्रतों की क्रियाशीलता के फल स्वरूप परिपुष्टि बनती चलती है।
मोह की प्रधान शक्ति दर्शन मोह के मंद होने से चारित्र मोह के शिथिल होने से पांचवें गुणस्थान की अवस्था प्रारंभ होती है । आत्मा अविरति स्थिति से देशविरति की स्थिति में प्रस्थान करती है। यहां मोह की शक्तियों के विरुद्ध एक उत्क्रांति घटित हो जाती है।
देश विरति से आत्मा को अपने भीतर स्फूर्ति एवं शान्ति की सच्ची अनुभूति होती है। यहां इस अनुभूति को विस्तृत, विशद बनाना चाहती है और सर्व विरति के छठे गुणस्थान के सोपान पर पग रख देती है। यह सीढ़ी जड़ भावों के सर्वथा परिहार की सीढ़ी होती है. इस अवस्था में पौद्गलिक भावों पर गहरी निष्ठा उत्पन्न हो जाती है। फिर भी इस सोपान पर प्रमाद का कमोबेश प्रभाव बना रहता है। __ प्रमाद पर विजय पाने का सातवां गुणस्थान होता है - अप्रमादी साधु का । विशिष्ट आत्मिक शान्ति की अनुभूति के साथ विकासोन्मुखी आत्मा प्रमाद से जूझने में जुट जाती है. इस अद्वितीय संघर्ष में आत्मा का गुणस्थान कभी छठे और कभी सातवे में ऊंचा-नीचा होता रहता है। विकासोन्मुख आत्मा जब अपने विशिष्ट चरित्र बल को प्रकट करती है तथा प्रमाद को सर्वथा पराभूत कर लेती है तब वह आठवें गुणस्थान की भूमिका में पहुंच जाती है । पहले कभी नहीं हुई ऐसी आत्मशुद्धि इस निवृत्ति बादर गुण स्थान में होती है । आत्मा मोह के संस्कारों को अपनी संयमसाधना एवं भावना के बल से दबाती है और अपने पुरुषार्थ को प्रकट करती हुई उन्हें बिल्कुल उपशान्ति कर देती है। दूसरी आत्मा ऐसी भी होती है, जो मोह के संस्कारों को सर्वथा निर्मूल कर देती है। इस प्रकार इस गुण स्थान में आत्म शक्ति की स्वरूप स्थिति दो श्रेणियों में विभाजित हो जाती है । आत्म शक्तियों की ऊंची-नीची गति इन्हीं दो श्रेणियों का परिणाम होता है । मोह के संस्कारों को
162 - अध्यात्म के झरोखे से
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