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भरत चरित
१६७ ४. तीन दिन बीतने पर देवता का आसन चलित हुआ। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग कर भरतजी को वहां देखा।
५. यहां वैताढ्य गिरि देवता की तरह ही सारा विस्तार जानना चाहिए। उपहार में जो अंतर था उसका अतिरिक्त विस्तार इस प्रकार है।
६-९. स्त्रीरत्न के लिए आभरण की मंजूषा में हार, अर्धहार, इंगद, स्वर्णमय मुक्तावली, बाजुबंध, कड़े, भुजबंध, मुद्रिका, कानों के कुंडल, अति मनोहर चूड़ामणि, ललाट पर लगने वाला तिलक आदि हाथ में लिया, उन्हें लेकर मागध देव की तरह शीघ्र गति से जहां भरतजी बैठे थे वहां आकर आकाश में खड़ा रहा। वह दशों दिशाओं में आलोक बिखेर रहा था, मधुर वाणी बोला।
१०-१२. वह दोनों हाथ जोड़कर विनयपूर्वक अंजली को मस्तक पर टिका मस्तक झुका कर नमस्कार जय-विजय शब्दों से वर्धापन करता हुआ अनेक गुणगान करने लगा।
कहने लगा- मैं कृतमाली देव हूं। आपका सेवक हूं। आपके अधीन हूं। आपका कोटपाल हूं। आपका किंकर हूं। आपकी आज्ञा का प्रतिपालक हूं।
१३. मागध देव कुमार की तरह खूब गुणगान कर कहा- प्रीतिदान के रूप में उपहार लाया हूं। इसे आप कृपा कर स्वीकार करें।
१४. यों कहकर उसने उपहार भरत के मुख के सामने रख दिया। फिर सीख मांगकर अपने स्थान पर लौट गया।