Book Title: Acharya Bhikshu Aakhyan Sahitya 01
Author(s): Tulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 425
________________ दोहा १. उस अवसर पर भरत नरेंद्र कैसे ध्यानस्थ होते हैं और कैसे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होता है, इसे कान लगाकर ध्यान देकर सुनें । ढाळ : ६७ भरत! तूं गड गया रे गड गया । ज्ञान से विमुक्त हो गया । अरे जीव ! यह संसार तो असार है। १. आदर्श महल में अंगुली को विद्रूप देखकर भरतजी ने उस समय ऐसा विशिष्ट विचार किया । २. . बिना मुद्रिका के अंगुली विद्रूप दिखाई देती है । भरत ! यह रूप तुम्हारा नहीं है। यह तो पुद्गल का स्वरूप है। ३. तू समझता है यह रूप तेरा है, पर यह रूप तेरा नहीं है। तू उसमें क्यों अनुरक्त होता है? मन में कुछ सोचकर देख । ४. तू ने निन्नाणु भाइयों का राज्य छीन लिया। इस विषय-रस के कारण तू ने अनेक अनर्थ किए । ५. बत्तीस हजार देशों को जीता। घूम-घूमकर उन्हें आज्ञा स्वीकार करवाई । बड़े-बड़े राजाओं को नतमस्तक किया । अनेकों के मान का मर्दन किया। ६. अनेक देव-देवियों को नतमस्तक किया । वे सेवक की तरह प्रस्तुत रहे हैं । तू सबका अधिपति बना । यह सब पाखंड है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464