Book Title: Acharya Bhikshu Aakhyan Sahitya 01
Author(s): Tulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 442
________________ ४३० १४. ओतो इण संसार मझार, सेवे सेवे पाप अठार, भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० ओ जीव अनाद रो जी। नरक गयो पाधरो जी।। १५. तिहां पांमी खाधी अनंती मार, परमाध्याम्यां रे छेदन-भेदन तार, परवस पडीयें धकें थकें जी। जी। वळे खेतर वेदन अनंत, सही इण जीवडे जी। तिणरों कहितां न आवें अंत, ते कहितां नही नीवडें जी।। १७. काम भोग दुखां री खांन, किंपाक फल सारिखा जी। त्यांसूं हुवों जीव हेरांन, त्यांरी नाइ पारिखा जी।। १८. काम त्यांतूं भोग जोरावर जोध, ते तों घणा मारका जी। मूर्ख मानें प्रमोद, लीयां फिरें लारका जी।। १९. काम भोग सू करसी पीत, बांधे कर्म रासनें जी। ते होसी चिहूंगति माहे फजीत, परया मोह पास में जी।। २०. राज रिध संपत में राजांन, थें राचे रह्या सही जी। वळे तिणसूं रली रह्या मान, पिण साथे आवें नही जी।। २१. काम भोग मोहकर्म रोग, ते पिण नही सासता जी। तिणसूं छोड दो काम नें भोग, राखों धर्म आसता जी।। २२. साध में श्रावक रों धर्म, दोनूं कह्या जू जूआ जी। त्यांसू तुटें आठोइ कर्म, अनंत सुखी हूआ जी।। २३. साधपणों पाल्यां जाों मोख, वासो देवलोक में जी। आठ कर्म तणों हुवें सोख, पूजणीक हुवें लोक में जी।।

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