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भरत चरित
२७३ १३. भरतजी ने देवताओं को सत्कार-सम्मान कर उन्हें विदा किया। घोड़ों को वापिस घेर कर रथ को मोड़ दिया।
१४. वहां से भरतजी ऋषभकूट पर आए और उससे तीन बार रथ को स्पर्श कराया। रथ को वहां रोक कर काकिनीरत्न अपने हाथ में लिया।
१५-१७. ऋषभकूट की पूर्व दिशि में भरतजी ने अपना नाम आलिखित किया। इस अवसर्पिणी काल में तीसरे आरे के तीसरे भाग में मैं चक्रवर्ती हुआ हूं। मेरा नाम भरत है। मैं इस कालचक्र का पहला चक्रवर्ती एवं पहला राजा हूं। मैंने सब शत्रुओं पर विजय प्राप्त करली है। मैं भरतक्षेत्र का स्वामी हूं। सबको अपने अधीन कर आनंदित हूं। ऐसा लिखकर रथ को वापिस मोड़ा।
१८. विजय कटक में आकर भोजन मंडप में भोजन किया। पूर्व में जैसा विस्तार किया गया है, यहां भी वैसा समझ लेना चाहिए।
१९. चूल हेमवंत देवकुमार को अपनी एकधार आज्ञा मनवाकर आठ दिनों तक पूर्वोक्त विधि के अनुसार धूमधाम से महोत्सव करवाया।
२०. भरतजी चूल हेमवंत देवकुमार के स्वामी हो गए, पर उसमें अनुरक्त नहीं हैं। संयम ग्रहण कर सिद्धत्व को प्राप्त करेंगे।