Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-6 (340) 25 जाता है और इससे उसका मन अवश्य ही दुःखित होता है और किसी व्यक्ति को कष्ट देना भी हिंसा का ही एक रूप है। किसी व्यक्ति के अधिकार की वस्तु को उसे बिना पूछे देने से उसे मालूम पड़ने पर दोनों में संघर्ष हो सकता है। इन सब दृष्टियों से इस तरह दिए जाने वाले पदार्थों में प्रत्यक्ष हिंसा परिलक्षित नहीं होने पर भी वे हिंसा के कारण बन सकते हैं, इसलिए साधु को दोनों तरह का आहार सदोष समझकर त्याग देना चाहिए। विशुद्ध एवं अविशुद्ध कोटि में इतना अन्तर अवश्य है कि- विशुद्ध कोटि पदार्थ पुरुषान्तर कृत होने पर साधु के लिए व्याह्य माने गए हैं, जैसे साधु के उद्देश्य से खरीद कर लाया गया वस्त्र किसी व्यक्ति ने अपने उपयोग में ले लिया है और इसी प्रकार साधु के निमित्त खरीदा गया मकान गृहस्थों के अपने काम में ले लिया गया है तो फिर वह साधु के लिए अग्राह्य नहीं रहता। परन्तु, अविशुद्ध कोटि-आधाकर्मी, औद्देशिक आदि दोष युक्त पदार्थ पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत हो किसी भी तरह से साधु के लिए ग्राह्य नहीं है। एक या बहुत से साधु-साध्वियों के लिए बनाया गया आहार आदि एक या बहुत से साधु-साध्वियों के लिए व्याह्य नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में 'पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं' पाठ आया है। इसका तात्पर्य है किदाता के अतिरिक्त व्यक्ति द्वारा उपभोग किया हुआ पदार्थ पुरुषान्तरकृत कहलाता है और दाता द्वारा उपभोग में लिया गया पदार्थ अपुरूषान्तरकृत कहा जाता है। सदोष आहार के निषेध का वर्णन पहले अहिंसा महाव्रत की सुरक्षा की दृष्टि से किया गया है, और इससे यह भी स्पष्ट होता है कि- शुद्ध आहार जीवन को शुद्ध, सात्त्विक एवं उज्जवल बनाता है। इसके पहले के सूत्रों में हम देख चुके हैं कि- साधक की साधना चिन्तनमनन के द्वारा आत्मा का प्रत्यक्षीकरण करके उसे निष्कर्म बनाने के लिए है। इसके लिए स्वाध्याय एवं ध्यान आवश्यक है और इनकी साधना के लिए मन का एकाग्र होना जरूरी है और वह शुद्ध आहार के द्वारा ही हो सकता है। क्योंकि- मन पर आहार का असर होता है। यह लोक कहावत भी प्रसिद्ध है कि 'जैसा खावें अन्न वै रहे मन / ' इससे स्पष्ट होता है कि- आहार का मन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा हुआ है। अशुद्ध, तामसिक एवं सदोष आहार मन को विकृत बनाए बिना नहीं रहता। इसलिए आगमों में साधु के लिए स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि- वह सदोष एवं अनेषणीय आहार को ग्रहण न करे। उपनिषद् में भी बताया गया है कि- आहार की शुद्धि से सात्त्विकता शुद्ध रहता है और उसकी शुद्धि से स्मृति स्थिर रहती है अर्थात् मन एकाग्र बना रहता है। अशुद्ध आहार स्वीकार न करने के विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे...