Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 589
________________ 550 2-4-10 (550) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी सावध कार्यों, विषय-विकारों एवं भौतिक सुखों की अभिलाषा का त्याग करके निर्मल, पवित्र एवं शीघ्र गति से मोक्ष की ओर बढ़ने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। क्योंकि सावध कार्य एवं विषय विकार आदि कर्म बन्ध के कारण हैं। इससे आत्मा कर्मो से बोझिल बनती है और फल स्वरुप उसकी ऊपर उठने की गति अवरुद्ध हो जाती है। अतः इस गाथा में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि साधक को आगम में बताए गए महाव्रतों एवं अन्य क्रियाओं का पालन करना चाहिए। इससे आत्मा पर पड़ा हुआ कर्मों का बोझिल आवरण दूर हो जाता है। जिससे आत्मा में अपने आपको सर्वथा अनावृत्त करने की महान् शक्ति प्रकट हो जाती अब समुद्र का उदाहरण देते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैसूत्र // 10 // // 550 // जमाह ओहं सलिलं अपारयं महासमुदं व भुयाहि दुत्तरं / . अहे य णं परिजाणाहि पंडिए से हु मुणी अंतकडेत्ति वुच्चइ // 550 // II संस्कृत-छाया : यं आहुः ओघ सलिलं अपारगं ____महासमुद्रं इव भुजाभ्यां दुस्तरम् / अथ च एतं परिजानीहि पण्डितः सः खलु मुनिः अन्यकृत् ऊच्यते // 550 // III सूत्रार्थ : महासमुद्र की भांति संसार रुपी समुद्र को पार करना दुष्कर है, हे शिष्य ! तू इस संसार के स्वरुप का ज्ञ-परिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग कर दे। इस प्रकार त्याग करने वाला पण्डित मुनि कर्मों का अन्त करने वाला कहलाता है। IV टीका-अनुवाद : तीर्थंकर एवं गणधरादिने संसार समुद्र को दो भुजा से तैरना दुष्कर कहा है, क्योंकिइसे संसार स्वरूप समुद्र में आश्रृव तुल्य जल के अनेक प्रवाह संसार-समुद्र में आ रहे हैं... और मिथ्यात्व आदि स्वरूप जल अपार है, इस कारण से संसार-समुद्र को दुस्तर कहा है... अतः इस संसार-समुद्र को ज्ञ-परिज्ञा से जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से आश्रव द्वारों का

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