Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 548 2-4-8 (548) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन से आत्मा पर लगे हुए कर्ममल को दूर करके आत्मा को निरावरण बना लेता है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु मूलगुण पांच महाव्रत एवं उत्तर गुण समिति-गुप्ति को धारण करनेवाला होने से निःसंग है, तथा अच्छे बुरे का विवेक करनेवाला वह साधु परिज्ञाचारी है अर्थात् ज्ञान पूर्वक ही क्रियानुष्ठान करनेवाला है... तथा जिस मुनिराज को संयमाचरण में धृति याने समाधि है ऐसा वह साधु उदीरणा से उदय में आये हुए असाता कर्मो को समभाव से सहन करता है... जिस प्रकार रोगवाला मनुष्य उस रोग को दूर करने के लिये वैद्य एवं औषधादि को ढूंढता है, उसी प्रकार मुमुक्षु साधु पूर्वजन्म में बांधे हुए कर्मो को समभाव से सहन करके विशुद्ध होता है... जैसे कि- अग्नि के द्वारा सोने-चांदी का मल दूर होता है... अब भुजंगत्वक् का अधिकार कहतें हैं... भुजंग त्वक् याने सापकी कांचली... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में कर्ममल को हटाने के साधनों का उल्लेख किया गया है। कर्मबन्ध का कारण राग-द्वेष है। अतः इसका परिज्ञान रखने वाला साधक ही सम्यक् साधना के द्वारा उसे हटा सकता है। जैसे चांदी पर लगे हुए मैल को अग्नि द्वारा नष्ट किया जा सकता है। उसी प्रकार कर्म के मैल को ज्ञान पूर्वक क्रिया करके ही हटाया जा सकता है। उसके लिए साधक को धैर्य के साथ सहिष्णुता रखना भी आवश्यक है। क्योंकि अधीरता, आतुरता, अस्थिरता एवं असहिष्णुता अथवा परीषह एवं दुःखों के समय हाय-त्राय एवं विविध संकल्पविकल्प आदि की प्रवृत्ति कर्म बन्ध का कारण है। इससे आत्मा कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकती है। उसके लिए संयम-साधना आवश्यक है। और साधक को साधना के समय आने वाले कष्टों को भी धैर्य एवं समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। क्योंकि इससे कर्मों की निर्जरा होती है। जैसे चान्दी आग में तप कर शुद्ध होती है, उसी तरह तप एवं परीषहों की आग में तपकर साधक की आत्मा भी शुद्ध बन जाती है। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि ज्ञानपूर्वक की गई क्रिया ही आत्म विकास मे सहायक होती है और साधना के साथ धैर्य एवं सहिष्णुता का होना भी आवश्यक है। अब सर्पत्वग् का उदाहरण देते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से . कहते है