Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 578
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-4-2 (542) 539 जिनागामानुसार शुद्ध आहार की, वेषणा करने वाले भिक्षु को देखकर कतिपय अनार्य व्यक्ति साधु पर असभ्य वचनों एवं पत्थर आदि का इस तरह प्रहार करते हैं, जैसे संग्राम में अग्रेसर रहे हुए हाथी पर बाणों की वर्षा करते है। IV टीका-अनुवाद : अनित्य भावना से गृहस्थावास का त्याग करनेवाले एवं साधारण वनस्पति स्वरूप निगोद के अनंत जीवों की विराधना से विरत ऐसे संयत साधु, कि- जिन्होंने जिनागम के सार का श्रवण करके असाधारण विद्वता याने गीतार्थता प्राप्त की है ऐसे वे मुनिवर एषणासमिति के बयालीस (42) दोषों का त्याग करतें हैं... किंतु ऐसे मुनिवरों को, अपने पापकर्मों से आर्तध्यानवाले मिथ्यादृष्टि लोग असभ्य प्रलाप याने अनुचित बातों से दुःखी करतें हैं... और पत्थर, लकडी आदि के प्रहारों से उपद्रव करतें हैं... जिस प्रकार रणभूमि के अग्रिम भाग में रहे हुए हाथी के ऊपर दुश्मन सेना बाणों की वर्षा करती है... इस पर्वताधिकार में और भी बात कहतें हैं... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु की सहिष्णुता एवं समभाव वृत्ति का उल्लेख किया गया है। इसमें बताया गया है जैसे युद्ध के समय रणभूमि में अग्रभाग में रहे हुए हाथी पर शस्त्रों एवं बाणों का प्रहार करते हैं और वह हाथी उन प्रहारों को सहता हुआ उन पर विजय प्राप्त करता हे, उसी प्रकार यदि कोई असभ्य, अशिष्ट या अनार्य पुरुष किसी साधु के साथ अशिष्टता का व्यवहार करे, उसे अभद्र गालिया दे या उस पर पत्थर आदि फैंके तो साधु समभाव पूर्वक उस वेदना को सहता हुआ राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करे। उस समय साधु उत्तेजित न हो और न आवेश में आकर उनके साथ वैसा ही व्यवहार करे और न उन्हें श्राप-अभिशाप दे। क्योंकि, इससे उसकी आत्मा में राग-द्वेष की प्रवृत्ति बढ़ेगी और परस्पर वैर भाव में अभिवृद्धि होगी और कर्म बन्ध होगा। अतः साधु अपनी प्रवृत्ति को राग-द्वेष की ओर न बढ़ने दे। उस समय वह क्षमा एवं शान्ति के द्वारा राग-द्वेष एवं कषायों पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करे। आर्तध्यानी वे दुष्ट एवं असभ्य व्यक्ति साधु के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं और इस दुर्व्यवहार के द्वारा वे मनुष्य कर्मबन्ध करके संसार परिभ्रमण बढ़ा रहे हैं। साधु राग-द्वेष के इस भयंकर परिणाम को जानकर आत्मा के इन अंतरंग शत्रुओं को दबाने का, नष्ट करने का प्रयत्न करे। इसका तात्पर्य यह है कि साधु को हर हालत में, प्रत्येक परिस्थिति में अपनी अहिंसा वृत्ति का परित्याग नहीं करना चाहिए किन्तु सदा समभाव एवं निर्भयता पूर्वक प्रत्येक प्राणी को क्षमा करते हुए राग-द्वेष पर विजय पाने का प्रयत्न करना चाहिए।

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