Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 579
________________ 540 2-4-3 (543) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन साधु को और भी ऐसे हि परिषहों के उत्पन्न होने पर भी पर्वत की तरह अचल, अटल एवं निष्कंप रहना चाहिए, इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते है I सूत्र // 3 // // 543 // तहप्पगारेहिं जणेहिं हीलिए ससद्दफासा फरुसा उईरिया। तितिक्खए नाणी अदुट्ठचेयसा गिरिव्व वाएण न संपवेयए // 543 // II संस्कृत-छाया : तथा प्रकारैः जनैः हीलितः __सथब्द-स्पर्शान् परुषान् उदीरितान् / तितिक्षते ज्ञानी अदुष्टचेतसा ___गिरिः इव वातेन न संप्रवेपते // 543 // III सूत्रार्थ : असंस्कृत एवं असभ्य पुरुषों द्वारा आक्रोशादि शब्दों से या शीतादि स्पर्शों से पीडित या व्यथित किया हुआ ज्ञानयुक्त मुनि उन परीषहोपसर्गों को शान्ति पूर्वक सहन करे। जिस प्रकार वायु के प्रबल वेग से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता, ठीक उसी प्रकार संयम शील मुनि भी इन परीषहों से कम्पित-विचलित न हो अर्थात् अपने संयम व्रत में दृढ़ रहे। IV टीका-अनुवाद : अनार्य जैसे मिथ्यादृष्टि लोगों ने मुनिवरों को जो कठोर अपमान जनक शब्दों तथा शीतगर्मी आदि दुःखो देने के लिये किये गये कठोर स्पर्शों को मुनिवर समभाव से सहन करें... यहां ज्ञानी गीतार्थ मुनिराज ऐसा चिंतन करे कि- यह सब कुछ पूर्व किये हुए कर्मो का ही फल है... इत्यादि सोचकर मुनिराज अपने चित्त को कलुषित नही होने दें... जिस प्रकार प्रचंड पवन से मेरु पर्वत कंपित नही होता, उसी प्रकार मुनिराज भी परीषह एवं उपसर्गो के समय में समाधि भाव से चलित नहीं होतें... अब पांच श्लोक से रुप्य दृष्टांत-अधिकार कहतें हैं...

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