Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-4-6 (546) 545 कि एकेन्द्रियादि आदि भाव दिशाओं में स्थित जगत के जीवों के हित के लिए भगवान ने महाव्रतों का उपदेश दिया है। जिसका आचरण करके आत्मा अनादि काल से लगे हुए कर्म बन्धनों को तोड़कर पूर्णतया मुक्त हो सकता है। क्योंकि भगवान का प्रवचन प्रकाशमय है, ज्योतिर्मय है। इससे समस्त अज्ञान अन्धकार नष्ट हो जाता है, जिस अज्ञान अन्धकार में आत्मा अनादि काल से भटकता रहा है, उससे छूटने का मार्ग मिल जाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सर्वज्ञों का उपदेश प्राणी जगत के हितार्थ होता है। इसमें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि संसार में आत्मा एवं कर्म संबन्ध भी अनादि है। परन्तु, यह अनादिता एक कर्म या एक गति की अपेक्षा नहीं बल्कि कर्म प्रवाह की अपेक्षा से है। बन्धने वाला प्रत्येक कर्म अपनी स्थिति के अनुसार फल देकर आत्मा से पृथक् हो जाता है, परन्तु साथ में अन्य कर्म बन्धते रहते हैं। इस तरह आत्मा पहले के बांधे हुए कर्मों को यथा समय भोग कर क्षय करता है और फिर नए कर्मों का बन्ध करता रहता है। इस प्रकार कर्मों का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है। इस बात को इससे स्पष्ट कर दिया गया है कि महाव्रतों का आचरण करके साधु उस प्रवाह को सर्वथा नष्ट कर सकता है। यदि एक ही कर्म अनादि काल से चला आता हो तो उसे नष्ट करना असंभव था। परन्तु एक कर्म अनादि नहीं है। व्यक्ति की दृष्टि से वह सादि है, अर्थात् अमुक समय में बन्धा है और अपने उदय काल पर फल देकर क्षय हो जाता है। इस तरह कर्म व्यक्ति की दृष्टि से सादि है, परन्तु समष्टी-प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है। क्योंकि संसार में स्थित जीव एक के बाद दूसरी, तीसरी-कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता रहता है। इस कारण कर्मों को नष्ट भी किया जा सकता है और उसे नष्ट करने का साधन है—महाव्रत। क्योंकि, राग-द्वेष, कषाय एवं हिंसा आदि प्रवृत्तियों से कर्म का बन्ध होता है और महाव्रत इन प्रवृत्तियों के-आश्रव के द्वार को रोकने एवं पूर्व बन्धे कर्मों को क्षय करने का महान् साधन है। इस तरह संवर के द्वारा आत्मा जब अभिनव कर्म प्रवाह के स्रोत का आना बन्द कर देता है और पुरातन कर्म को तप, स्वाध्याय एवं ध्यान आदि साधना से सर्वथा क्षय कर देता है, तब वह कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त उन्मुक्त हो जाता है। अतः, महाव्रत की साधना आत्मा को कर्म बन्धन से मुक्त करती है और इसका उपदेश सर्वज्ञ पुरुष देते हैं। क्योंकि वे राग-द्वेष से मुक्त हैं और अपने निरावरण ज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को सम्यक्तया देखते जानते हैं। अतः उनका उपदेश तेज-अग्नि की तरह प्रकाशमान है और प्रत्येक आत्मा को प्रकाशमान बनने की प्रेरणा देता है। महाव्रतों को शुद्ध रखने के लिए उत्तर गुणों में सावधानी रखने का आदेश देते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं...