Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-4 (362) 77 दुष्ट बैल, दुष्ट महिष (पाडा) दुष्ट मनुष्य, घोडा, हाथी, सिंह, वाघ, वरू, चित्ता, रीछ, तरक्ष, सरभ, कुत्ते, सूअर, लोमडी, सियार, बिलाडे, इत्यादि भयानक जंगली पशु मार्ग में चिल्लाते हो, तब ऐसे मार्ग से न जायें... तथा वह साधु भिक्षा के लिये निकले तब मार्ग में ध्यान दें कि- बीच में खड्डा, ढूंठ, विषय याने ऊंची-नीची भूमि और कादव कीचड हो तो संयम एवं आत्म विराधना होने की संभावना से, अन्य मार्ग होने पर उस सीधे मार्ग से न जायें... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- भिक्षा के लिए जाते समय साधु को विवेक से चलना चाहिए। यदि रास्ते में मदोन्मत्त बैल या हाथी खड़ा हो, या सिंह, व्याघ्र, भेड़िया आदि जङ्गली जानवर खडे हो तब अन्य मार्ग के होते हुए साधु को उस मार्ग से नहीं जाना चाहिए और इसी तरह जिस मार्ग में गड्ढे आदि हैं उस पथ से भी नहीं जाना चाहिए। क्योंकि- उन्मत्त बैल एवं हिंसक जन्तुओं से आत्म विराधना हो सकती है और गड्ढे आदि से युक्त पथ से जाने पर संयम की विराधना हो सकती है। अतः मुनि को उस पथ से न जाकर अन्य पथ से जाना चाहिए, यदि अन्य मार्ग कुछ लम्बा भी पड़ता हो तो संयम रक्षा के लिए लम्बे रास्ते से जाना चाहिए। .. उस युग में कई बार मुनि को भिक्षा के लिए एक गांव से दूसरे गांव भी जाना पड़ता था और कहीं-कहीं दोनों गांवों के बीच में पड़ने वाले जंगल में सिंह, व्याघ्र आदि जङ्गली जानवर भी रास्ते में मिल जाते थे। इसी अपेक्षा से इनका उल्लेख किया गया है। परन्तु, इसका यह अर्थ नहीं है कि- कुत्तों की तरह शेर भी गांवों की गलियों में घूमते रहते थे। अतः आहार के लिए जाने वाले मुनि को नामान्तर में जाते हुए शेर आदि का मिल जाना भी संभव है, इस दृष्टि से सूत्रकार ने मुनि को यतना एवं विवेक पूर्वक चलने का आदेश दिया है। ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र 'कहतें हैं। I सूत्र // 4 // // 362 // से भिक्खू वा गाहावडकुलस्स दुवारबाहं कंटगबुंदियाए परिपिहियं पेहाए तेसिं पुष्वामेव उग्गहं अणणुण्णविय अपडिलेहिय अपमज्जिय नो अवंगुणेज वा पविसिज्ज वा निक्खमिज वा तेसिं पुवामेव उग्गहं अणुण्णविय पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पमजिय तओ संजयामेव अवंगुणिज वा पविसिज वा निक्खमिज वा। // 362 //