Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-2 (380) 75 स्खलित हो और कीचड (कादव) से शरीर मलीन हो तब वह साधु उस अशुचि-कीचड आदि से मलीन हुए शरीर को सचित्त (मिट्टी) पृथ्वी से, आर्द्र (मिट्टी) पृथ्वीसे सचित्त शिला से, सचित्त लेलु याने ढेफा (लोष्ठ) से अथवा पृथ्वी (पथ्थर) के टुकडे से, इसी प्रकार कीडे (धूण) वाली लकडी, जीववाले अंडे एवं उस जंतुवाली पृथ्वी पे उस कीचड को साफ न करें और वहां रहा हुआ तपावे (सुखावे) भी नही... किंतु ऐसी स्थिति में अल्परजः कणवाले अचित्त तृण, पत्ते, काष्ठ छोटे पत्थर के टुकड़ों की याचना करके एकांत जीव निर्जन भूमि में जाकर शरीर को साफ करें... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को विषम-मार्ग से भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। यदि रास्ते में खड़े, खाई आदि हैं, सीधा एवं सम मार्ग नहीं है, तो अन्य मार्ग के होते हुए साधु को उस मार्ग से नहीं जाना चाहिए। क्योंकि- उस मार्ग से जाने पर कभी शरीर में कम्पन होने या पैर आदि के फिसलने पर वह साधु गिर सकता है और उसका शरीर मलमूत्र या नाक के मैल या गोबर आदि से लिप्त हो सकता है और उसे साफ करने के लिए सचित्त मिट्टी, सचित्त लकड़ी या सचित्त पत्थर या जीव-जन्तु से युक्त काष्ठ का प्रयोग करना पड़े। इससे अनेक जीवों की विराधना होने की संभावना है। अतः साधु को ऐसे विषम मार्ग का त्याग करके अच्छे रास्ते से जाना चाहिए। यदि अन्य मार्ग न हो और उधर जाना आवश्यक है तो उसे विवेक पूर्वक उस रास्ते को पार करना चाहिए और विवेक रखते हुए भी यदि उसका पैर फिसल जाए और वह गिर पड़े तो अपने अशुचि से लिपटे हुए अंगोपाङ्गों को सचित्त मिट्टी आदि से साफ न करे, परंतु अचित्त काष्ठ-कंकर की याचना करके एकान्त स्थान में चले जाना चाहिए और वहां अचित्त भूमि को देखकर वहां जीव-जन्तु से रहित अचित्त काष्ठ आदि के टुकड़े एवं अचित्त मिट्टी से अशुचि को साफ करके, फिर से अपने शरीर को धूप में सूखाकर शुद्ध करना चाहिए। आगम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि- अशुचि को दूर करने के लिए साधु अचित्त पानी का उपयोग कर सकता है। आगम में यह भी बताया गया है कि- गुरु एवं शिष्य शौच के लिए एक ही पात्र में पानी ले गए हों तो शिष्य को गुरु से पहले शुद्धि नहीं करनी चाहिए। और प्रतिमाधारी मुनि के लिए सब तरह से जल स्पर्श का निषेध होने पर भी शौच के लिए जल का उपयोग करने का आदेश दिया गया है। आगम में पांच प्रकार की शुद्धि का वर्णन आता है, वहां जल से शुद्धि करने का भी उल्लेख है। और अशुचि की अस्वाध्याय भी मानी है। इससे स्पष्ट होता है कि- जल से अशुचि दूर करने का निषेध नहीं किया गया है। साधक को यह विवेक अवश्य रखना चाहिए कि- पहले अचित्त एवं जन्तु रहित काष्ठ आदि से साफ