Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 74 2-1-1-5-2 (380) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन याचित्वा सः तमादाय एकान्तमपक्रामेत्, अपक्रम्य दग्धस्थण्डिले वा यावत् अन्यतरे वा तथा प्रकारे प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य प्रमृज्य प्रमृज्य ततः संयतः एव आमृज्यात् वा यावत् प्रतापयेत् वा // 380 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा सांध्वी अशनादि के लिए महल्ला में, गली में अथवा ग्रामादि में जावे, हुए तब बीच में (रास्ते में) टीले (ऊंचा भूभाग) रवाई के कोट हो, तोरणद्वार हो अथवा आगे दीवार या बाड़ हो तो स्वयं का सामर्थ्य होने पर भी उस मार्ग पर न जाय ! दूसरा मार्ग हो तो उस मार्ग पर होकर जाय। ऐसा केवली भगवन्त कहते हैं। वैसे मार्ग पर जा ने से कर्म-बंध होता है। पूर्वोक्त सीधे मार्ग पर चलने से साधु का पांव फिसल जाएंगा अथवा साधु गिर जायेगा पवि फिसलने से, गिरने से स्वयं को पीड़ा होती है और दूसरें जीवों को पीडा पहुंचती है। उसका शरीर मल, मूत्र, कफ, लीट, वमन, पित्त, मवाद, शुक्र (वीर्य) अथवा रक्त से लिपट सकता है। यतना करने पर भी कदाचित् ऐसा हो जाए तो साधु उपलिप्त स्वयं के शरीर को सचित्त पृथ्वी से, गिली मिट्टी से, सूक्ष्म रज कणवाली मिट्टी से, सचित्त पत्थर से, सचित्त मिट्टी के ढेले से अथवा धुन के बीलों से अथवा धुन वाले काष्ट से जीव युक्त काष्ट से घिसकर साफ न करे। एवं अण्डे युक्त, प्राण युक्त, जालों युक्त वनस्पति से भी वह शरीर पोंछे नहीं, साफ करे नहीं, कुचाले नहीं, कुदरे नहीं, मले नहीं, धूप से तपाएं नहीं / किन्तु सचित्त रज रहित घास, पत्ते, काष्ठ, कंकर आदि की याचना करे, याचना करके एकान्त में जाये। एकान्त में जाकर दग्ध भूमि अथवा ऐसी कोई अचित्त भूमि हो जिसका बारम्बार प्रतिलेखन करके और प्रमार्जन करके यतना पूर्वक शरीर को स्वच्छ करे। || 360 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. भिक्षा के लिये गृहस्थों के घर, पाटक (पाडो, महोल्ला) शेरी, गांव आदि में प्रवेश करने पर देखे कि- वहां मार्ग में यदि उंचे किल्ले हो, या अर्गला आदि हो, तो संयत ऐसा साधु राजमार्ग से ही जाये, किंतु अन्य सीधे मार्ग से न जाये... क्योंकिकेवलज्ञानी प्रभु कहतें हैं कि- राजमार्ग को छोडकर अन्य मार्ग में जाने से संयम विराधना एवं आत्मविराधना होती है। जैसे कि- वप्रादि वाले मार्ग में जाने से वह मार्ग विषम होने से चलने में कंपन हो, स्खलन हो, या पतन हो... यदि वह साधु उस विषम मार्ग से जाते हुए स्खलना पाये या गिर जाये तब पृथ्वीकायादि छह मे से कोई भी काय की विराधना हो, और वहां उस साधु का शरीर मल, मूत्र, श्लेष्म (कफ), सिंधानक याने नाक का मल, वमन, पित्त, पूय याने रसी-परु, शुक्र (वीर्य) शोणित याने खून इत्यादि से मलीन हो, इसलिये ऐसे विषम मार्ग से नहि जाना चाहिये... किंतु जब अन्य कोई मार्ग न होने से ऐसे विषम मार्ग से हि जाते हुए