Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 58 2-1-1-3-8 (355) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यहां यह प्रश्न हो सकता है कि- यदि सूत्रकार को मल-मूत्र के त्याग का निषेध करना इष्ट नहीं था, तो उसने आहार एवं स्वाध्याय भूमि के साथ उसे क्यों जोडा ? इसका समाधान यह है कि- यह संलग्न सूत्र है, जैसा विधि रूप में इसका उल्लेख किया गया है. उसी प्रकार सामान्य रूप से निषेध के समय भी उल्लेख कर दिया गया है। ऐसा और भी कई स्थलों पर होता है। भगवती सूत्र में एक जगह जीव को गुरु-लघु कहा है और दूसरी जगह अगुरु लघु कहा है। फिर भी दोनों पाठों में कोई विरोध नहीं है। क्योंकि- औदारिक आदि शरीर की अपेक्षा से जीव को गुरु-लघु कहा है, क्योंकि- जीव उन औदारिक आदि शारीरिक पर्यायों के साथ संलग्न है और अगरूलघु आत्म स्वरूप की अपेक्षा से कहा गया है। अतः यहां पर भी मल-मूत्र का पाठ आहार एवं स्वाध्याय भूमि के साथ संलग्न होने के कारण उसके साथ उसका भी उल्लेख किया गया है। परन्तु इससे विभिन्न जिनकल्पी मुनि के लिए वर्षा आदि के समय मल-मूत्र त्याग का निषेध किया गया है। . " नया हा ___कुछ ऐसे कुल भी हैं, जिनमें साधु को भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। उन कुलों का निर्देश करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैंI सूत्र // 8 // // 55 // से भिक्खू वा से जाइं पुण कुलाइं जाणिज्जा त जहा- खत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेसियाण वा रायवंसट्ठियाण वा अंतो वा बाहिं गच्छंताण वा संनिविट्ठाण वा निमंतेमाणाण वा अनिमंतेमाणाण वा असणं वा, लाभे संते नो पडिगगाहिजा / / 355 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा, स: यानि पुनः कुलानि जानीयात् तद्यथा-क्षत्रियाणां वा राज्ञां वा कुराज्ञां वा राजप्रेक्ष्याणां वा राजवंशस्थितानां वा अन्त: वा बहिः वा गच्छतां वा संनिविष्टानां वा निमन्त्रयतां वा अनिमन्त्रयतां वा अशनं वा, लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात || 355 // III सूत्रार्थ : चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि क्षत्रिय, सामान्य राजा ठाकोर, सामंत आदि, दंडपाशिक तथा राजवंशीय, उपाश्रय के अंदर या बाहर रहे हो और भिक्षा के लिए आमन्त्रित करे या.न करे तो भी उनके घर से साधु अथवा साध्वी अशनादि मिलने पर भी न लेवें ऐसा मैं कहता हूं।