Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 70 2-1-1-4-3 (358) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को जाने से पूर्व ही अपने माता-पिता या श्वसुर आदि कुलों से या परिचित कुलों से सरसस्वादिष्ट एवं इच्छानुकूल पदार्थ लाकर वापर ले और उसके बाद उनके साथ अन्य साधारण घरों से भिक्षा लाकर वापरे, यह माया एवं छल-कपट का सेवन है। अतः साधु को आगन्तुक मुनियों के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा व्यवहार साधुता के अनुकूल तो क्या, मानवता के अनुकूल भी नहीं है, इसलिए सूत्रकार ने इस तरह माया-जाल (कपट) का व्यवहार करने का निषेध किया है। साधु का कर्तव्य है कि- वह नवागन्तुक मुनियों के साथ अभेद वृत्ति रखे, उनके साथ आहार को जाए और जैसा भी आहार उपलब्ध हो उसे संयमभाव से उनके साथ बैठकर वापरें। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'समाणा-वसमाणा' का अर्थ है- जो साधु चलने-फिरने में या विहार करने में असमर्थ होने के कारण किसी एक क्षेत्र में स्थिरवास रहते हैं। निष्कर्ष यह निकला कि- साधु को अतिथि रूप से आए हुए साधु के साथ छल-कपट एवं भेद-भाव का वर्ताव नहीं रखना चाहिए। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझे। / प्रथमचूलिकायां प्रथमपिण्डैषणाध्ययने चतुर्थः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐卐 . : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शश्रृंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद विजय यतीन्द्रसरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058.