Book Title: Acharang Sutra Part 01 Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 6
________________ [5] Ge @@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@988888888@@@@@@ भावार्थ - आचार का सार अनुयोगार्थ है, अनुयोग का सार प्ररूपणा है। प्ररूपणा का सार सम्यक् चारित्र है और सम्यक् चारित्र का सार निर्वाण है, निर्वाण का सार अव्याबाध सुख है। यह आचार, मुक्ति महल में प्रवेश करने का भव्य द्वार है। यह आत्मा पर लगे अनादि काल के मैल को नष्ट करने वाला है। जीव आत्मा अनादि अनन्त काल से कर्म बन्धन से बन्धी हुई है। इसका प्रमुख कारण राग द्वेष सहित जीव हिंसा का आचरण है। जब तक जीवात्मा जीव हिंसा का पूर्ण रूप से त्याग नहीं करता तब तक उसके संसार परिभ्रमण की परम्परा रुक नहीं सकती। श्रमण जीवन में हिंसा का पूर्ण रूपेण तीन करण और तीन योग से त्याग हो जाता है। इस अवस्था में वह लोक में रहे हुए समस्त जीवों का चाहे वे सूक्ष्म अथवा बादर हैं उनका स्वरूप समझ कर उनकी रक्षा करने का संकल्प करता है। इसके पीछे मूल कारण यदि देखा जाय तो इस विराट लोक में जितने भी जीव हैं उन्हें सुखप्रिय है, कोई भी जीव दुःखी होना नहीं चाहता। अतएव जो भी व्यक्ति जीवों के दुःख परिताप का निमित्त बनता है वह महान् कर्मों का बंध करता है। इसका सुन्दर स्वरूप आचारांग सूत्र में बतलाया गया है। ____ प्रस्तुत सूत्र में सर्व प्रथम पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय का स्वरूप बतलाया गया है और यह स्पष्ट किया है कि इन जीवनिकायों की हिंसा मानव अपने स्वार्थ के लिए, पारिवारिकजनों के लिए अथवा अपनी प्रतिष्ठा के लिए करता है, वह हिंसा उसके महान् कर्मों के बन्ध एवं संसार परिभ्रमण का कारण है। अतएव तीर्थंकर भगवन्तों ने किसी भी जीव की हिंसा न करने का उपदेश फरमाया। क्योंकि मौलिक रूप से सभी आत्माएं समान स्वभाव वाली है। किन्तु कर्मों के कारण उसके दो रूप बन जाते हैं। एक कर्म सहित संसारी आत्मा, दूसरी कर्म रहित मुक्त आत्मा। आत्मा तभी मुक्त बनता है जब वह कर्म रहित बनता है। इसलिए कर्म विघात के मूल साधन आचारांग में प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत आचारांग सूत्र में प्रभु महावीर स्वामी ने लोक को तीन भागों में विभक्त कर उसके स्वरूप का निरूपण किया है। ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक। अधोलोक में दुःख की प्रधानता है। मध्यलोक में दुःख और सुख की मध्यम स्थिति है, न सुख की उत्कृष्टता है और न दुःख की। ऊर्ध्वलोक में सुख की प्रधानता है, इसके अलावा लोक का अन्तिम स्थान ऐसा है जहाँ मुख्यतः मुक्त आत्माएं निवास करती हैं। ऊर्ध्वलोक देव प्रधान, मध्य लोक मानव प्रधान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 366