Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 4
________________ निवेदन __ जैन दर्शन आचार प्रधान दर्शन रहा। आज के तथाकथित सर्व विरति साधक वर्ग ने तरहतरह की विकृतियों को अपने जीवन में प्रवेश करा कर, इसे प्रचार प्रधान बना डाला है जो जैन दर्शन की मान्यता के अनुरूप नहीं है। इसका यह मतलब कतई नहीं कि यह दर्शन प्रचार का निषेध करता है। सर्व विरति साधक यानी साधु-साध्वी को अपने स्वीकृत महाव्रतों को पूर्णरूपेण सुरक्षित रखते हुए जितना अधिक से अधिक धर्म का प्रचार-प्रसार उनसे हो सके उतना अवश्य करना चाहिये। किन्तु अपने स्वीकृत नियमों में दोष लगाकर जनता को उपकृत करना, यह जैन दर्शन को कतई मंजूर नहीं है। यह तो ठीक वैसा ही है जैसा कि अपनी झोपड़ी को जला कर दूसरे की सर्दी को शान्त करना। झोपड़ी के सुरक्षित रहने पर तो वह अपनी तथा जितने झोपड़ी में समावे उतने पुरुषों की सर्दी से सुरक्षा कर सकता था, पर झोपड़ी जला देने पर स्वयं असहाय बन जायेगा। अतः अपने गृहित व्रतों में दोष लगा कर लोगों को उपकृत करना स्वयं को अनाथ बनाने जैसा है। ज्ञानियों की दृष्टि में अपने स्वीकृत व्रतों में दोष लगाना अनाथ बनाने जैसा है। इसके लिए उत्तराध्ययन सूत्र का महानिग्रंथीय नामक २० वां अध्ययन निहारा जा सकता है। आगमकार मनीषियों ने संसार त्याग कर प्रव्रजित होने के जो कारण बतलाये उनमें से कुछ उदाहरण के रूप यहाँ उपस्थित किये जा रहे हैं। - १. "इच्चेयाई पंचमहव्वयाइं राइभोयणवेरमण छहाई अत्तहियट्ठाए उवसंपजित्ताणं विहरामि" (दशवैकालिक अध्ययन ४) ' अर्थात् ये पांच महाव्रत और छठा रात्रि भोजन त्याग व्रत में आत्महितार्थ ग्रहण करता है। तात्पर्य यह कि संसार त्याग कर प्रव्रजित होने का एक मात्र ध्येय आत्महित, आत्मशुद्धि, .. आत्मशान्ति एवं आत्मस्थिरता है। ___२. धर्मोपदेश करने वाले साधु को सावधान करते हुए भगवान् फरमाते हैं कि हे साधु! तू धर्म का उपदेश करे. तो - _ "अणुवीइ भिक्खूधम्ममाइक्खमाणेणो अत्ताणं आसाइजा, णोपरं आसाइजा'. णो अपणाई पाणाइं भूयाइं जीवाई सत्ताई आसाइजा" (आचारांग १-६-५) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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