Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 02
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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असत् कभी सत् नहीं होता। 45 शरणदाता नहीं
णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा तुमं पि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग-2 पृ. 177
178-179]
- आचारांग - 120/64 हे आत्मन् ! वे तेरे स्वजन तेरी रक्षा करने में या शरण देने में समर्थ नहीं है और तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो । 46 नारी-रक्षा
पिता रक्षति कौमारे - भर्ता रक्षति यौवने । पुत्राश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 177] - हितोपदेश - 1/21 एवं महाभारत
आदिपर्व 73/5 कुमारावस्था में पिता, जवानी में पति और बुढापे में पुत्र रक्षा करता है । स्त्री कभी स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है । 47 धिक् धिक् जरा
गात्रं संकुचितं गतिविगलिता, दन्ताश्च नाशं गता । दृष्टि र्भश्यति रूपमेव हसते वक्त्रं च लालायते ॥ वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूयते । धिक्कष्टं जरयाऽभिभूतं पुरूषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 177]
- पंचतंत्र - 2194 शरीर सिकुड़ गया, चाल बिगड़ गई, दाँत गिर गए, दृष्टि घूमने लगी, रूप-सौन्दर्य नष्ट हो गया, मुख से लारें टपकने लगी, बन्धुजन उसकी बात नहीं सुनते, पत्नी सेवा नहीं करती और पुत्र भी अपमान करते हैं ऐसे जरा से अभिभूत पुरुष के कष्ट को धिक्कार है।
अभिधान राजेन्द्र में सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 68