Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 02
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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119 विश्वमैत्री मित्ति मे सव्वभूएसु, वे मज्झ ण केणइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 432]
एवं [भाग-5 पृ. 317]
- महानिशीथ 1/59 एवं श्राद्धप्रतिक्रमण 49 समस्त प्राणियों के साथ मेरी मित्रता है। किसी के साथ भी मेरा वैर विरोध नहीं है। 120 प्रमाणोपेत आहार
बत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छि पूरओ भणिओ। पुरिसस्स महिलाए, अट्ठावीसं भवे कवला ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 449]
- पिण्ड नियुक्ति गाथा 642 सामान्यतया पुरुष के लिए (श्रमण) बत्तीस कवल जितना आहार और स्त्री (श्रमणी) के लिए अट्ठावीस कवल जितना आहार प्रमाणोपेत कहा जाता है। 121 आलोचना : पर-साक्षी
छत्तीस गुणसम्पन्ना गण्णते णावि अवस्स कायव्वा । परसक्खिया विसोही, सुटु वि ववहार कुसलेण ॥ जह कुसलो वि वेज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाही। विज्जस्स य सोयंतो, पडिकम्मं समारभतो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 450]
- ओघनियुक्ति - 794/795 __ आचार्य के छत्तीस गुणों से समन्वित एवं श्रेष्ठ ज्ञान व क्रियाव्यवहार आदि में विशेष निपुण श्रमण भी पाप-शुद्धि पर-साक्षी से ही करे, अपने आप नहीं । जैसे परम कुशल वैद्य भी अपनी बीमारी दूसरे वैद्य से कहता है, उससे ही इलाज करवाता है एवं उस वैद्य के कथनानुसार कार्य भी करता है; वैसे ही आलोचक प्रायश्चित्त-विधि में स्वयं दक्ष होते हुए भी अपने दोषों की आलोचना प्रकट रूप से अन्य के समक्ष करे । ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 87