Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 02
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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142 त्रिपदी
उप्पन्ने वा, विगमे वा धुवेति वा ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 573] स्याद्वादमंजरी - 263
प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है और स्थिर भी रहता है - यही तीर्थंकर प्रदत्त 'त्रिपदी' कहलाती है । 143 आत्मा शरीर से भिन्न
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क्षीरे घृतं तिले तैलं काष्ठेऽग्निः सौरभं सुमे । चन्द्रकान्ते सुधा यद्वत् तथात्माप्यङ्गतः पृथक् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 573] कल्पसुबोधिका सटीक एवं
श्री कल्पसूत्रबालावबोध पृ. 254
जैसे दूध में घी, तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि, फूल में सुगन्ध, चंद्र कान्ति अमृत विद्यमान है, वैसे ही आत्मा भी शरीर में रहते हुए भी शरीर से भिन्न है ।
144 विषय-दौड़
पुरः पुरः स्फुर तृष्णा, मृग तृष्णाऽनुकारिषु । इन्द्रियार्थेषु धावन्ति, त्यक्त्वा ज्ञानाऽमृतं जड़ाः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 597]
ज्ञानसार - 7/6
जिन्हें उत्तरोत्तर बढ़ती हुई तृष्णा है, वे मूर्खजन ज्ञानरूपी अमृतरस का त्याग कर मृगतृष्णा के समान इन्द्रियों के विषयों की ओर दौड़ते रहते हैं ।
145 मूर्ख की मृग तृष्णा
गिरिमृत्स्नां धनं पश्यन् धावतीन्द्रियः मोहितः । अनादि निधनं ज्ञानं धनं पार्श्वे न पश्यति ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 597]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 93
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