Book Title: Aavashyak Niryukti Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain Publisher: Jin Foundation View full book textPage 8
________________ किया। संक्षिप्त होते हुए भी सभी आवश्यकों का सम्पूर्ण विवेचन बड़ी खूबी के साथ इसमें "गागर में सागर" की तरह किया गया है। ये छह आवश्यक मुनियों के अट्ठाईस मूलगणों में ही सम्मिलित हैं। आचार्य वट्टर ने इसकी दूसरी गाथा में कहा भी है कि "मैं पूर्व आचार्य परम्परा के अनुसार और आगम के अनुरूप संक्षेप में यथाक्रम से आवश्यक निर्युक्ति कहता हूँ ।" अतः शौरसेनी प्राकृत साहित्य में निर्युक्ति विधा की कमी की पूर्ति के उद्देश्य से इस ग्रन्थ का स्वतंत्र रूप में प्रकाशन आवश्यक कार्य समझकर किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम श्रमण आवश्यक निर्युक्ति इसलिए रखा गया है, क्योंकि श्रावकों के भी अलग से छह आवश्यक मान्य हैं। यद्यपि यह सभी जानते हैं कि प्राचीनकाल में सभी आगम शास्त्र विद्यमान रहे हैं, किन्तु दिगम्बर जैन मान्यतानुसार स्मृति-क्षीणता, कालदोष आदि कारणों से जब वे क्रमशः लुप्त होने लगे तो चिन्ता होना स्वाभाविक था। अतः तत्कालीन समर्थ आचार्यों ने अवशिष्ट ज्ञाननिधि के आधार पर कसायपाहुड (आ० गुणधर प्रणीत), षट्खण्डागम, (आ० पुष्पदन्त - भूतबलि प्रणीत), भगवंती आराधना (आ० शिवार्य प्रणीत), मूलाचार ( आ० वट्टकेर प्रणीत) तथा आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी प्रणीत विशाल पाहुड साहित्य के साथ ही अनेक महान् आचार्यों द्वारा प्रणीत जो विशाल आगम साहित्य प्रस्तुत किया वह विद्यमान है। इस विशाल साहित्य पर भी इनके परवर्ती आचार्यों ने प्राकृत- संस्कृत आदि भाषाओं में विशाल व्याख्या साहित्य आदि की सर्जना करके उस अक्षय सम्यग्ज्ञान निधि को सुरक्षित रखने में महनीय योगदान किया है। अतः प्रस्तुत निर्युक्ति के प्रकाशन से शौरसेनी प्राकृत आगम साहित्य के इतिहास की अभिवृद्धि में अब इस नियुक्ति के स्वतंत्र योगदान का मूल्यांकन भी होने लगेगा। यह प्रसन्नता की बात यह है कि इस ग्रन्थ की महत्ता समझते हुए सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में प्रकाशन संस्थान के यशस्वी निदेशक डॉ0 हरिश्चन्द्रमणि त्रिपाठी जी ने भी प्रस्तुत ग्रन्थ को अपने यहाँ से प्रकाशित करने में अपनी गहरी रूचि व्यक्त की है। प्रस्तुत निर्युक्ति के सन्दर्भ में एक स्पष्टीकरण अति आवश्यक है, ताकि कोई भ्रम न रहे। वह यह कि यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर जैन परम्परा में अर्धमागधी प्राकृत के प्रमुख आगमों पर आ० भद्रबाहु द्वारा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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