Book Title: Aavashyak Niryukti Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain Publisher: Jin Foundation View full book textPage 6
________________ प्रतिष्ठान एवं निष्ठापन के 1-1 (2) । इस प्रकार प्रसंगोपात्त विनय आदि का भी विवेचन पाया जाता है । आवश्यक चूलिका के रूप में षडावश्यकों का फल बतलाते हुए कहा है कि जो मुनि आवश्यकों से परिपूर्ण होते हैं, वे नियम से सिद्ध हो जाते हैं, किन्तु (पूर्ण सावधानी के बाद भी) कुछ कमी रह जाती है वे नियम से स्वर्गादि में निवास करते हैं, उन्हें उसी भव से मुक्ति प्राप्त नहीं होती है । आचार्यदेव ने अन्त में आवश्यक परिपालन की विधि का कथन किया है । वे कहते हैं कि “मनवचन-काय रूप त्रिकरण से विशुद्ध हो, द्रव्य-क्षेत्र और आगम कथित काल में निराकुल चित्त होकर मौनपूर्वक नित्य ही इन आवश्यकों का पालन करना चाहिए। पुनश्च आवश्यकों के पालन का फल बताते हुए ग्रन्थकार लिखते हैं कि “मैंने संक्षेप में विधिवत् आवश्यक नियुक्ति कही, जो नित्य ही इनका आचरण करता है, वह सर्वकर्म रहित विशुद्धात्मा सिद्धि को प्राप्त कर लेता है । सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी में प्रोफेसर एवं जैनदर्शन विभागाध्यक्ष डॉ० फूल चन्द जैन प्रेमी ने 'मूलाचार का समीक्षात्मक :: अध्ययन' विषय पर श्रेष्ठ एवं प्रसिद्ध शोध-प्रबन्ध लिखा है । इसके अतिरिक्त मूलाचार भाषा वचनिका नामक एक और महत्वपूर्ण बृहद् ग्रन्थ का सम्पादन कार्य किया, तभी से उनकी भावना “द्वादशांग जिनवाणी के प्रथम आचारांग के प्रतिनिधिरूप ग्रन्थ मूलाचार में प्रतिपादित षडावश्यक अधिकार में निरूपित षडावश्यकों के नियुक्ति सहित प्रतिपादन को 'आवश्यक नियुक्ति' रूप में पृथक् से आगम ग्रन्थ प्रकाशित कर दिया जाय” यही विचार या भावना इसके प्रकाशन का आधार बना । इसकी विस्तृत प्रस्तावना भी स्वयं उन्होंने लिखी ही है। सुधी विद्वान् डॉ० फूलचन्दजी प्रेमी जिनागम-जिनवाणी के प्रति समर्पित भाव से इसी प्रकार कार्य करते रहें । प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन सौजन्यपुण्यार्जक परिवार एवं सम्पादक डॉ0 प्रेमी जी, इनके सुपुत्र युवा विद्वान् डॉ० अनेकान्त कुमार जैन को हमारे मंगल आशीर्वाद । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 284