Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ मंगलकलश - परमपूज्य आचार्यश्री वर्धमानसागरजी महाराज अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में प्रतिपादित और गौतम गणधर द्वारा ग्रथित आचारांगादि रूप द्वादशांगवाणी के प्रथम अंग आचारांग का प्रतिनिधि ग्रन्थ 'मूलाचार' ग्रन्थ है । इस शौरसेनी प्राकृत ग्रन्थ के रचयिता आचार्य वट्टकेर स्वामी हैं । इस ग्रन्थ में ‘षडावश्यक अधिकार' नामक प्रकरण है, जिसमें मुनिजनों के छह आवश्यकों का 189 गाथाओं में प्रतिपादन किया है। . ___आवश्यक नियुक्ति द्वादशांग में वर्णित है, अतः मूलाचार ग्रन्थ का यह षडावश्यक अधिकार भी आवश्यक नियुक्ति ही है । इसका कारण यह है कि मंगलाचरणरूप गाथा में पंचपरमेष्ठी की समूह वन्दना करने के पश्चात् ग्रन्थकार प्रस्तुत नियुक्ति का प्रयोजन बताते हुए निम्न गाथा सूत्र में लिखते हैं - 'आवासयणिज्जुत्ती' वोच्छामि जहाकमं समासेण । आयरिय परंपराए जहागदा आणुपुव्वीए ॥2॥ इसकी संस्कृत टीका में सिद्धान्तचक्रवर्ती वसुनन्दी आचार्य ने भी ‘आवश्यकनियुक्तिं वक्ष्ये' कहकर मूलगाथा का ही समर्थन किया है । इसके अनन्तर पंचपरमेष्ठी नमस्कार नियुक्ति के साथ अरहंतादि को नमस्कार करने के बाद लोक प्रसिद्ध गाथा जो कि मूलाचार ग्रन्थ षडावश्यकाधिकार की वट्टकेर स्वामि विरचित गाथा में पंचपरमेष्ठी नमस्कार को प्रथम मंगल बताकर सर्व पापनाशक कहा है । वह मंगल गाथा इस प्रकार है - एसो पंच णमोयारो सव्वपावपणासणो । मंगलेसु य सव्वेसु पढमं हवदि मंगलं ॥ पंचनमस्कार (पंचपरमेष्ठी) की निरुक्तिपूर्ण व्याख्या करके आवश्यक नियुक्ति की निरुक्ति का कथन निम्न गाथा द्वारा स्वयं ग्रन्थकार आचार्य ने किया है । यथा - ण वसो अवसो अवसस्सकम्ममावस्सयंति बोधव्वा । जुत्तित्ति उवायत्ति य णिरवयवा होदि णिज्जुत्ति ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 284