Book Title: Vaani Vyvahaar Me
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा भगवान कथित वाणी, व्यवहार में... The world is the puzzle itself. यह तो ओरीजिनल टेपरिकॉर्डर है। भुगते उसकी भूल! यह बगैर मालिकीभाव की वाणी है ! हुआ सो न्याय! God has not created this world at all. हमारी वाणी चेतन को स्पर्श करके निकली हई प्रत्यक्ष सरस्वती है। ISBN 978-81-80031602 97881891933692 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा भगवान कथित प्रकाशक : अजीत सी. पटेल महाविदेह फाउन्डेशन 'दादा दर्शन', 5, ममतापार्क सोसाइटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - ३८००१४, गुजरात फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९ वाणी, व्यवहार में... All Rights reserved - Shri Deepakbhai Desai Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India. प्रथम संस्करण : ३००० प्रतियाँ, अक्तूबर २०१० मूल गुजराती पुस्तक 'वाणी, व्यवहारमा...' (संक्षिप्त ) का हिन्दी अनुवाद भाव मूल्य : 'परम विनय' और 'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव! द्रव्य मूल्य : २० रुपये लेसर कम्पोज़ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन अनुवाद : महात्मागण मुद्रक : महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिन्टिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नई रिज़र्व बैंक के पास, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (०७९) २७५४२९६४, ३०००४८२३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण दादा वाणी का क्या कहना अहा! फोड़ पाताल बहा झरना यहाँ! लाखों के दिल में जाकर समाई, पढ़े-सुने जो करे मोक्ष कमाई। पावर गज़ब का आत्यांतिक कल्याणी, संसार व्यवहार में भी हितकारिणी। निज बानी को वीतराग टेपरिकॉर्ड कहें, खुद के बोल से अहो! खुद जुदा रहे। कलिकाल में नहीं कभी सुनाई दी, बेशक़ीमती मगर बिन मालिकी की। त्रिमंत्र चार डिग्री है कम, पर बिना भूल की, तीर्थंकरी स्यादवाद की कमी पूर्ण की। सभी तीर्थंकरों ने माना जिसे प्रमाण, जगी ज्योत अक्रम हरे तम तत्काल। वादी-प्रतिवादी निर्विरोध स्वीकार लें, ज्ञानी वचन बल ज्ञानावरण विदार दें। घर-घर पहुँचकर जगाएगी आप्तवाणी पढ़ते ही बोले, मेरी ही बात, मेरे ही ज्ञानी। तमाम रहस्य यहाँ ही खुले वाणी के, समर्पित संसार को सिद्धांत वाणी के। जय सच्चिदानंद Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा भगवान कौन ? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छः बजे का समय, भीड़ | से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रकट हुए और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घंटे में उन्हें विश्वदर्शन हुआ। 'मैं कौन? भगवान कौन? जगत् कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत् के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत | ने विश्व के सम्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके | माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र | के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करनेवाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष ! उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घंटों में अन्य मुमुक्षु | जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से उसे अक्रम मार्ग कहा । अक्रम, अर्थात् बिना क्रम के, और क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट ! वे स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन ?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह जो आपको दिखते है वे दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए. एम. पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, | वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।" 'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं, इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास ( से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे। 4 आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लिंक 'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?" - दादाश्री परम पूज्य दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे । आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूज्य डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थीं। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् आज भी जारी है। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हज़ारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं। ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शन में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग आज भी खुला है। जैसे प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी से आत्मज्ञान प्राप्त कर केही स्वयं का आत्मा जागृत हो सकता है। 5 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय सुबह जागने से लेकर सोने तक हर किसीका अविरत वाणी का व्यवहार चलता ही रहता है। अरे, नींद में भी कितने तो बड़बड़ाते रहते हैं!!! वाणी का व्यवहार दो प्रकार से परिणमित होता है। कड़वा या फिर मीठा! मीठा तो चाव से गले उतर जाता है, पर कड़वा गले नहीं उतरता! कड़वे-मीठे दोनों में समभाव रहे, दोनों ही समान प्रकार से उतर जाएँ, वैसी समझ ज्ञानी देते ही रहते हैं ! इस काल के अधीन व्यवहार में वाणी संबंधित तमाम स्पष्टीकरण परम पूज्य दादाश्री ने दिए हैं। उन्हें लाखों प्रश्न पूछे गए हैं, सभी प्रकार के, स्थूलतम से लेकर सूक्ष्मतम तक के, टेढ़े-मेढ़े, सीधे-उल्टे तमाम प्रकार से पछे गए हैं, फिर भी उसी क्षण सटीक और संपूर्ण समाधानकारी उत्तर देते थे। आपश्री की वाणी में प्रेम, करुणा और सच्चाई का संगम छलकता हुआ दिखता है! निवेदन परम पूज्य 'दादा भगवान' के प्रश्नोत्तरी सत्संग में पछे गये प्रश्न के उत्तर में उनके श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहार ज्ञान संबंधी जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता हैं। उसी साक्षात सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो हम सबके लिए वरदानरूप साबित होगी। प्रस्तुत अनुवाद की वाक्य रचना हिन्दी व्याकरण के मापदण्ड पर शायद पूरी न उतरे, परन्तु पूज्य दादाश्री की गुजराती वाणी का शब्दश: हिन्दी अनुवाद करने का प्रयत्न किया गया है, ताकि वाचक को ऐसा अनुभव हो कि दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है। फिर भी दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वे इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है। अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं। पाठकों से... * इस पुस्तक में मुद्रित पाठ्यसामग्री मूलत: गुजराती वाणी, व्यवहारमा...' (संक्षिप्त) का हिन्दी अनुवाद है। इस पुस्तक में 'आत्मा' शब्द का प्रयोग संस्कृत और गुजराती भाषा की तरह पुल्लिंग में किया गया है। * जहाँ-जहाँ पर 'चंदूलाल' नाम का प्रयोग किया गया है, वहाँ-वहाँ पाठक स्वयं का नाम समझकर पठन करें। पुस्तक में अगर कोई बात आप समझ न पाएँ तो प्रत्यक्ष सत्संग में पधारकर समाधान प्राप्त करें। * दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गजराती शब्द ज्यों के त्यों 'इटालिक्स' में रखे गये हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालाँकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द () में अर्थ के रूप में दिये गये हैं। ऐसे सभी शब्द और शब्दार्थ पुस्तक के अंत में भी दिए गए हैं। परम पूज्य दादाश्री हमेशा जो हो उसे प्रेम से कहते थे. 'पछो, पूछो, आपके तमाम खुलासे प्राप्त करके काम निकाल लो।' आपको समझ में नहीं आए तो बार-बार पूछो, पूर्ण समाधान न हो जाए तब तक अविरत पूछते ही रहो, बिना संकोच के! और आपको समझ में नहीं आए उसमें आपकी भूल नहीं है, समझानेवाले की अपूर्णता है, कमी है। हम यह कहकर आपका प्रश्न नहीं उड़ा सकते कि, 'यह बहुत सूक्ष्म बात है, आपको समझ में नहीं आएगी।' ऐसा करें, वह तो कपट किया कहलाएगा! खुद के पास जवाब नहीं हो, उसे फिर सामनेवाले की समझ की कमी बताकर उड़ा देता है! दादा को सुना हो या फिर उनकी वाणी पढी हो. सूक्ष्मता से उसे मन-वचन-काया की एकतावाले, कथनी के साथ करणीवाले दरअसल ज्ञानी की इमेज (प्रभाव) पडे बिना नहीं रहती! उसे फिर दूसरी और सभी जगहों पर नकली इमेज है, ऐसा भी लगे बिना नहीं रहता! प्रस्तुत 'वाणी, व्यवहार में...' पस्तक में वाणी से उत्पन्न होनेवाले टकराव और उसमें किस प्रकार समाधानकारी हल लाने चाहिए. वैसे ही खुद की कड़वी वाणी, आघाती वाणी हो, तो उसे किस प्रकार की समझ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका से परिवर्तित करना चाहिए? किसी के प्रति एक नेगेटिव शब्द बोले तो उसके रिएक्शन में खुद पर क्या असर होगा? वाणी से तिरस्कार करना, वाणी को ही ऐसे किस प्रकार से मोड़ना कि तिरस्कार के घाव भर जाएँ? वाणी के सूक्ष्म से सूक्ष्म सैद्धांतिक स्पष्टीकरणों से लेकर दैनिक जीवन व्यवहार में पति-पत्नी के बीच, माँ-बाप-बच्चों के बीच, नौकर -सेठ के बीच, जो वाणी उपयोग में आती है, वह कैसी सम्यक् प्रकार की होनी चाहिए, उसके प्रेक्टिकल उदाहरण देकर संदर समाधान करवाते हैं। वे उदाहरण समझो अपने ही जीवन का दर्पण हो ऐसा लगता है! हृदय के पार उतरकर मुक्त कराती है! यथार्थ ज्ञानी को पहचानना अति-अति मुश्किल है। हीरे को परखने के लिए जौहरी की दृष्टि चाहिए, वैसे ही दादा को पहचानने के लिए पक्के मुमुक्षु की दृष्टि विकसित करनी ज़रूरी है! आत्मार्थ के अलावा अन्य किसी चीज़ के लिए नहीं निकली, वैसी ज्ञानी की स्यादवाद वाणी युगों-युगों तक मोक्षमार्ग के पथ को प्रकाशित करती रहेगी। वैसी जबरदस्त वचनबलवाली, यह निश्चय-व्यवहार दोनों को प्रतिपादित करती वाणी प्रवाहित हुई है, जिसका व्यवस्थित अभ्यास करके स्वरूप की प्राप्ति अवश्य की जा सकती है, एक घंटे में ही!!! (१) दुःखदायी वाणी के स्वरूप (२) वाणी से तरछोड़ - अंतराय (३) शब्दों से सर्जित अध्यवसन... (४) दु:खदायी वाणी के समय, समाधान ! (५) वाणी, है ही टेपरिकॉर्ड (६) वाणी के संयोग, पर-पराधीन (७) सच-झूठ में वाणी खर्च हुई (८) दुःखदायी वाणी के करने चाहिए प्रतिक्रमण (९) विग्रह, पति-पत्नी में (१०) पालो - पोसो 'पौधे' इस तरह, बगीचे में... (११) मज़ाक के जोखिम.... (१२) मधुरी वाणी के, कारणों का ऐसे करें सेवन - डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... जाएंगे, तब जगत् बंद हो जाएगा। सारी लड़ाईयाँ शब्द से ही हुई हैं इस दुनिया में, जो भी हुई हैं वे! शब्द मीठे चाहिए और शब्द मीठे नहीं हों तो बोलना नहीं। अरे, झगड़ा किया हो अपने साथ, उनके साथ भी हम मीठा बोलें न, तो दूसरे दिन एक हो जाएँ वापिस। वाणी, व्यवहार में... १. दुःखदायी वाणी के स्वरूप प्रश्नकर्ता : यह जीभ ऐसी है कि घड़ी में ऐसा बोल लेती है, घड़ी में वैसा बोल लेती है। दादाश्री : ऐसा है न, इस जीभ में ऐसा दोष नहीं है। यह जीभ तो अंदर वे बत्तीस दाँत हैं न, उनके साथ रहती है, रात-दिन काम करती है। पर लड़ती नहीं है, झगड़ती नहीं है। इसलिए जीभ तो बहुत अच्छी है, पर हमलोग टेढ़े हैं। आप ओर्गेनाइजर टेढ़े हैं। भूल अपनी है। इसलिए जीभ तो बहुत अच्छी है, इन बत्तीस दाँतों के बीच में रहती है तो कभी भी वह कुचल जाती है? वह कटती है कब? कि अपना चित्त खाते समय दूसरी जगह पर गया हो तब ज़रा कट जाती है। और हम यदि टेढे हों, तो ही चित्त दुसरे में जाता है। नहीं तो चित्त दसरे में नहीं जाता, और जीभ तो बहुत अच्छा काम करती है। ओर्गेनाइजर ने ऐसे टेढ़ा देखा कि जीभ दाँत के बीच में आकर कुचल जाती है। प्रश्नकर्ता : मेरा जीभ पर काबू हो वैसा कीजिए न! क्योंकि मैं अधिक बोलता हूँ। दादाश्री : वह तो मैं भी बोलता ही रहता हूँ पूरे दिन । आपके बोलने में कोई ऐसा वाक्य नहीं है न, कि किसीको दु:खदायी हो जाए वैसा? तब तक बोलना खराब नहीं कहलाता। प्रश्नकर्ता : पर इन शब्दों पर से बहुत झगड़े होते हैं। दादाश्री : शब्दों से तो जगत् खड़ा हो गया है। जब शब्द बंद हो सामने बड़ी उम्रवाला हो न, तो भी उसे कहेंगे, 'आपमें अक्कल नहीं है।' इनकी अक्कल नापने निकले! ऐसा बोला जाता होगा? फिर झगड़े ही होंगे न! पर ऐसा नहीं बोलना चाहिए, सामनेवाले को दु:ख हो वैसा कि 'आपमें अक्कल नहीं है।' सामान्य मनुष्य तो नासमझी के मारे ऐसा बोलकर जिम्मेदारी स्वीकारता है। पर समझदार हों, वे तो खद ऐसी जिम्मेदारी लेते ही नहीं न! नासमझीवाला उल्टा बोले पर खुद को सीधा बोलना चाहिए। सामनेवाला तो नासमझी से चाहे जो पूछे, पर खुद को उल्टा नहीं बोलना चाहिए। जिम्मेदार है खुद। सामनेवाले को 'आप नहीं समझोगे' ऐसा कहना, वह बहुत बड़ा ज्ञानावरण कर्म है। आप नहीं समझोगे वैसा नहीं कह सकते। पर 'आपको समझाऊँगा' ऐसा कहना चाहिए। आप नहीं समझोगे' कहें तो, सामनेवाले के कलेजे पर घाव लगता है। हम सुख में बैठे हों और थोड़ा कोई आकर कहे, 'आपमें अक्कल नहीं है।' इतना बोले कि हो गया, खतम! अब उसने कोई पत्थर मारा है? शब्द का ही असर है जगत् में। छाती पर घाव लगे, वह सौ-सौ जन्मों तक नहीं जाता। छाती पर घाव लगा है, ऐसा बोले हो', कहेंगे। असर ही है यह ! जगत् शब्द के असर से ही खड़ा हुआ है। कितनी ही बहनें मुझे कहती हैं, 'मेरे पति ने मुझे कहा था, उससे मेरी छाती पर घाव लगा है। वह मुझे पच्चीस वर्षों बाद भी भला नहीं जाता।' तब वाणी से कैसा पत्थर मारा होगा?! जो घाव फिर भरते नहीं हैं। वैसे घाव नहीं लगाने चाहिए। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... हूँ। बाक़ी सूक्ष्म कला है यह। यह कठोर शब्द कहा, तो उसका फल कितने समय तक आपको उसके स्पंदन लगते रहेंगे। एक भी अपशब्द अपने मुँह से नहीं निकलना चाहिए। सुशब्द होना चाहिए। पर अपशब्द नहीं होना चाहिए। और उल्टा शब्द निकला मतलब खुद के भीतर भावहिंसा हो गई, वह आत्महिंसा मानी जाती है। अब यह सारा लोक चूक जाते हैं और पूरे दिन क्लेश ही करते वाणी, व्यवहार में... अपने लोग लकड़ियाँ मारते हैं घर में? लकड़ियाँ या धौल नहीं मारते? नीची जाति में हाथ से या लकड़ी से मारामारी करते हैं। ऊँची जाति में लकड़ी से नहीं मारते, पर वचनबाण ही मारते रहते हैं। शब्द किसीसे बोलें और उसे खराब लगे तो वह शब्द अपशब्द कहलाता है। वह अकारण ही अपशब्द बोलता हो न, तो भी जोखिम है। और अच्छे शब्द अकारण बोलता हो तो भी हितकारी है। पर गलत शब्द. अपशब्द अकारण ही बोलते हों, वह अहितकारी है। क्योंकि अपशब्द किसे कहा जाता है? दूसरों को कहें, और उसे दुःख हो वे सारे ही अपशब्द कहलाते हैं। बाहर तो पुलिसवाले को तो कुछ कहते नहीं, घर में ही कहते हैं न! पुलिसवाले को अपशब्द कहनेवाला ऐसा कोई बहादुर मैंने देखा नहीं है (!) पुलिसवाला तो हमें पाठ पढ़ाता है। घर में पाठ कौन पढ़ाएगा? हमें नया पाठ तो सीखना चाहिए न?! प्रश्नकर्ता : व्यापार में सामनेवाला व्यापारी जो होता है, वह नहीं समझे और अपने से क्रोधावेश हो जाए, तो क्या करना चाहिए? दादाश्री : व्यापारी के साथ तो मानो कि व्यापार के लिए है, वहाँ तो बोलना पड़ता है। वहाँ भी 'नहीं बोलने' की कला है। वहाँ नहीं बोलें तो सारा काम हो जाए वैसा है। पर वह कला जल्दी आ जाए वैसी नहीं है, वह कला बहुत ऊँची है। इसलिए वहाँ पर लड़ना न, अब वहाँ जो फायदा (!) हो वह देख लेना, उसे फिर जमा कर लेना। लड़ने के बाद जो फायदा (!) होता है न, वह हिसाब में जमा कर लेना चाहिए। बाक़ी घर में बिलकुल झगड़ना नहीं। घरवाले तो अपने लोग कहलाते हैं। 'नहीं बोलने' की कला, वह तो दूसरों को आए ऐसी नहीं है। बहुत कठिन है वह कला। उस कला में तो क्या करना पड़ता है? 'वह तो सामनेवाला आए न, उससे पहले उसके शुद्धात्मा के साथ बातचीत कर लेनी चाहिए और उसे शांत कर देना चाहिए, और उसके बाद हमें बोले बिना रहना चाहिए। इससे अपना सारा काम पूरा हो जाएगा।' मैं आपको संक्षेप में कह देता ये शब्द जो निकलते हैं न, वे शब्द दो प्रकार के हैं, इस दुनिया में शब्द जो हैं उनकी दो क्वॉलिटी हैं। अच्छे शब्द शरीर को निरोगी बनाते हैं और खराब शब्द शरीर को रोगी बनाते हैं। इसलिए शब्द भी उल्टा नहीं निकलना चाहिए। 'एय... नालायक।' अब 'एय...' शब्द हानिकारक नहीं है। पर 'नालायक' शब्द बहुत हानिकारक है। _ 'तुझमें अक्कल नहीं है' ऐसा कहा वाइफ को, वह शब्द सामनेवाले को दुःखदायी है और खुद को रोग खड़ा करनेवाला है। तब वह कहेगी, 'आपमें कहाँ बरकत है!' तो दोनों को रोग उत्पन्न होते हैं। यह तो पत्नी बरकत ढूंढती है और पति उसकी अक्कल ढूंढता है। यही की यही दशा है सारी! इसलिए अपना स्त्रियों के साथ कुछ झगड़ा नहीं होना चाहिए और स्त्रियों को पुरुषों के साथ झगड़ा नहीं करना चाहिए। क्योंकि बंधनवाले हैं। इसलिए निबेड़ा ले आना चाहिए। एक बहन को तो मैंने पूछा, 'पति के साथ सिरफोड़ी-झगड़ा होता है क्या? क्लेश होता है क्या?' तब वह कहती है, 'नहीं, कभी भी नहीं।' मैंने कहा, 'वर्ष में एकाध बार क्लेश ही नहीं?' तब वह कहती है, 'नहीं।' मैं तो यह सुनकर आश्चर्यचकित हो गया कि हिन्दुस्तान में ऐसे घर हैं ! पर वे बहन वैसी थीं। इसलिए फिर मैंने आगे पछा कि, 'कुछ तो होता होगा। पति है इसलिए कुछ हुए बिना रहता नहीं।' तब वह कहती है, 'नहीं, किसी दिन ताना मारते हैं।' गधे को डंडा जमाना और स्त्री को ताना मारना। स्त्री Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... को डंडा नहीं मार सकते पर ताना मारते हैं। ताना आपने देखा है न? ताना मारते हैं ! तब मैंने कहा, 'वह ताना मारे तो आप क्या करती हो?' तब वे बहन कहती हैं, 'मैं कहती हूँ कि आप और मैं कर्म के उदय से दोनों मिले हैं, कर्म के उदय से विवाह हुआ। आपके कर्म आपको भोगने हैं। और मेरे कर्म मुझे भोगने हैं।' मैंने कहा, 'धन्य है बहन तुझे !' हमारे हिन्दुस्तान में ऐसी आर्य स्त्रियाँ अभी भी हैं। वे सती कहलाती है। ये सब मिले किसलिए हैं? हमें पसंद नहीं हो तो भी साथ में किसलिए पड़े रहना पड़ता है? वह कर्म करवाता है। पुरुष को नापसंद हो तो भी कहाँ जाए? पर उसे मन में समझ जाना चाहिए कि, 'मेरे कर्म के उदय हैं।' ऐसा मानकर शांति रखनी चाहिए। वाइफ का दोष नहीं निकालना चाहिए। क्या करना है दोष निकालकर ? दोष निकालकर कोई सुखी हुआ है? कोई सुखी होता है क्या? और मन शोर मचाता है, 'कितना सारा बोल गई, क्या से क्या हो गया।' तब कहें, 'सो जा न, अभी घाव भर जाएगा' कहें। घाव भर जाता है तुरन्त... है न, उसके कंधे थपथपाएँ तो सो जाता है। प्रश्नकर्ता: वाणी का अपव्यय और दुर्व्यय समझाइए । दादाश्री : अपव्यय मतलब वाणी का उल्टा उपयोग करना और दुर्व्यय मतलब व्यय नहीं करने जैसी जगह पर व्यय करना । बिना काम के भौंकता रहे, वह दुर्व्यय कहलाता है। आपने देखा है? बिना काम के भौंकते हैं वैसे होते हैं न? वह दुव्यर्य कहलाता है। जहाँ जो वाणी होनी चाहिए वहाँ दूसरी ही वाणी बोलनी, वह अपव्यय कहलाता है। जो जहाँ फिट होता हो, वह ज्ञान नहीं बोलना और दूसरी प्रकार से बोलना, वह अपव्यय है। झूठ बोले, प्रपंच करे, वह सारा वाणी का अपव्यय कहलाता है। वाणी के दुर्व्यय और अपव्यय में बहुत फर्क है। अपव्यय मतलब सभी प्रकार से नालायक, सभी प्रकार से दुरुपयोग करता है। वकील दो रुपये ६ वाणी, व्यवहार में... के लिए झूठ बोलते हैं कि 'हाँ, इसे मैं पहचानता हूँ।' वह अपव्यय कहलाता है। आज तो लोग आपकी टीका भी करते हैं। खुद क्या कर रहा है, उसका भान नहीं है बेचारे को, इसलिए ऐसा करता रहता है। दुःखवाला ही किसीकी टीका करता है, दुःखवाला किसीको छेड़ता है। सुखी मनुष्य किसीकी टीका नहीं करता। 'अपनी टीका करने का लोगों को अधिकार है। हमें किसीकी टीका करने का अधिकार नहीं है।' (आप्तसूत्र) तो निंदा और टीका में फर्क है ? टीका मतलब क्या कि उसके प्रत्यक्ष दिखनेवाले दोष, उन्हें ओपन करना, वह टीका कहलाती है। और निंदा मतलब दिखनेवाले नहीं दिखनेवाले सारे दोष गाते रहना। उसका उल्टा ही बोलते रहना, वह निंदा है। 'किसीकी थोड़ी भी टीका करना केवलज्ञान को बाधक है। अरे, आत्मज्ञान को भी बाधक है, समकित को भी बाधक है।' (आप्तसूत्र) प्रश्नकर्ता: किसीकी निंदा करें, वह किसमें आ जाता है? दादाश्री : निंदा, वह विराधना मानी जाती है। पर प्रतिक्रमण करें तो चला जाता है। वह अवर्णवाद जैसा है। इसलिए तो हम कहते हैं कि किसीकी निंदा मत करना। तो भी लोग पीछे से निंदा करते हैं । इसलिए किसीकी निंदा में नहीं पड़ना चाहिए। कमाई नहीं करें, कीर्तन नहीं करें तो हर्ज नहीं, पर निंदा में मत पड़ना। मैं कहता हूँ कि निंदा करने में अपना क्या फायदा है? उसमें तो बहुत नुकसान है। जबरदस्त नुकसान यदि कभी इस जगत् में हो तो निंदा करने में है। किसी व्यक्ति की निंदा नहीं कर सकते। अरे, थोड़ी बातचीत भी नहीं कर सकते। उसमें से भयंकर दोष बैठ जाते हैं। उसमें भी यहाँ सत्संग में, परमहंस की सभा में तो किसीकी थोड़ी सी भी उल्टी बातचीत नहीं Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... भी अपने लोग तो छोड़ते नहीं हैं। ऐसा करते हैं या नहीं करते लोग? ऐसा नहीं होना चाहिए, हम ऐसा कहना चाहते हैं। जोखिम है उसमें। बहुत बड़ा जोखिम है। वाणी, व्यवहार में... कर सकते। एक थोड़ी सी उल्टी कल्पना से ज्ञान के ऊपर कितना बड़ा आवरण आ जाता है। तो फिर इन 'महात्माओं' की टीका, निंदा करें तो कितना भारी आवरण आएगा। सत्संग में तो दूध में शक्कर मिल जाती है, वैसे मिल जाना चाहिए। यह बुद्धि ही भीतर दख़ल करती है। हम सभी का सबकुछ जानते हैं, फिर भी किसीका एक अक्षर भी नहीं बोलते। एक अक्षर भी उल्टा बोलने से ज्ञान के ऊपर आवरण आ जाता है। प्रश्नकर्ता : जो अवर्णवाद शब्द है न, उसका एक्जेक्ट मीनिंग क्या है? दादाश्री : किसी भी रास्ते जैसा है वैसा चित्रण नहीं करना, पर उल्टा ही चित्रण करना, वह अवर्णवाद! जैसा है वैसा भी नहीं और वापिस उससे उल्टा। जैसा है वैसा चित्रण करें और खराब को खराब बोलें और अच्छे को अच्छा बोलें, तो अवर्णवाद नहीं कहलाता। पर सारा ही उल्टा बोलें तब अवर्णवाद कहलाता है। अवर्णवाद मतलब किसी व्यक्ति की बाहर अच्छी इज्जत हो, रुतबा हो, कीर्ति हो, तो उसे हम उल्टा बोलकर तोड़ डालें, वह अवर्णवाद कहलाता है। यह अवर्णवाद तो निंदा से भी ज्यादा खराब चीज़ है। अवर्णवाद मतलब उसके लिए गाढ़ निंदाएँ करना। ये लोग निंदा कैसी करते हैं? सादी निंदा करते हैं। पर गाढ़ निंदा करना वह अवर्णवाद कहलाता है। प्रश्नकर्ता : 'हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष, जीवित अथवा मृत, किसीका किंचित मात्र भी अवर्णवाद, अपराध, अविनय नहीं किया जाए, नहीं करवाया जाए या कर्ता के प्रति अनुमोदन नहीं किया जाए, ऐसी परम शक्ति दीजिए।' (नौ कलमों में से आठवीं कलम) दादाश्री : अपने कोई रिश्तेदार मर गए हों और उसकी लोग निंदा कर रहे हों, तो हमें बीच में नहीं पड़ना चाहिए। बीच में पड़ जाएँ, तो हमें फिर पछतावा करना चाहिए कि ऐसा नहीं होना चाहिए। किसी मरे हुए व्यक्ति की बात करनी, वह भयंकर गुनाह है। जो मर गया हो, उसे अभी रावण का उल्टा नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि अभी तो वह देहधारी है। इसलिए उन्हें 'फोन' पहुँच जाता है। रावण ऐसा था और वैसा था' बोलें, वह उसे पहुँच जाता है। उस समय पहले के ओपीनियन से ऐसा बोल लिया जाता है। इसलिए यह कलम बोलते जाओ तो वैसी बात बोल ली जाए तो दोष नहीं लगे। एक शब्द कड़वा नहीं बोल सकते। कडवा बोलने से तो बहत सारे झगड़े खड़े हुए हैं। एक ही शब्द 'अँधे के सब अँधे' इस शब्द से तो पूरा महाभारत खड़ा हो गया। दूसरा तो कोई खास कारण नहीं था, यही मुख्य कारण था ! द्रौपदी ने कहा था न? टकोर की थी न? अब उसका फल द्रौपदी को मिला। हमेशा एक भी कडवा शब्द बोला हो तो फल मिले बगैर रहेगा क्या? प्रश्नकर्ता : वाणी में से कठोरता किस प्रकार जाए? दादाश्री : वह तो हम वाणी को जैसे मोड़ना चाहें वैसी मुड़ जाती है। पर अभी तक हमने कठोर बनाई थी। लोगों को डराने के लिए, घबराने के लिए। सामनेवाला कठोर बोले तो हमें मृदु बोलना चाहिए। क्योंकि हमें छूटना है। ___ हे दादा, कंठ में बिराजमान हो जाइए। तब वाणी सुधर जाएगी। यहाँ गले में दादा का निदिध्यासन करें तो भी वाणी सुधर जाएगी। प्रश्नकर्ता : तंतीली भाषा मतलब क्या? दादाश्री : रात को आपकी वाइफ के साथ झंझट हो जाए न, तो Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... सुबह चाय रखते समय ऐसे पटककर रखती है। तब हम समझ गए कि, 'ओहोहो, रात को हुआ वह भूली नहीं है!' वह तांता है। अभी कोई आकर कहेगा, 'सब बिना अक्कल के यहाँ बैठे हो ? उठो न, खाना खाने चलो।' तब सभी बैठे हुए लोग कहेंगे, 'अरे, खा लिया हमने । अब यह तूने यहाँ पर खिलाया, वह कम है क्या ? !' उसे दुःस्वर कहते हैं। कितने तो खिचड़ी खिलाते हैं, वे इतना मीठा बोलते हैं कि, 'भाई, ज़रा भोजन के लिए पधारिए न ।' तो हमें खिचड़ी इतनी अच्छी लगती है। भले ही सिर्फ खिचड़ी हो, पर वह सुस्वर है। एक भाई ने मुझे पूछा कि, 'आपके जैसी मीठी वाणी कब होगी?' तब मैंने कहा कि 'ये सारे जो नेगेटिव शब्द हैं आपके, वैसा बोलना बंद होगा तब ।' क्योंकि हरएक शब्द उसके गुण-पर्याय सहित होता है। हमेशा पोज़िटिव बोलो। भीतर आत्मा है, आत्मा की हाज़िरी है। इसलिए पोजिटिव बोलो। पोजिटिव में नेगेटिव नहीं बोलना चाहिए। पोज़िटिव हुआ, उसमें नेगेटिव बोलें, वह गुनाह है और पोज़िटिव में नेगेटिव बोलते हैं, इसलिए ये सारी मुश्किलें खड़ी होती हैं। 'कुछ भी नहीं बिगड़ा है' ऐसा बोलते ही भीतर कितना ही बदलाव हो जाता है। इसलिए पोज़िटिव बोलो। वर्षों के वर्षों बीत गए, पर थोड़ा भी नेगेटिव नहीं हुआ है मेरा मन । थोड़ा भी, किसी भी संजोग में नेगेटिव नहीं हुआ है। ये मन यदि पोज़िटिव हो जाएँ लोगों के, तो भगवान ही बन जाएँ। इसलिए लोगों से क्या कहता हूँ कि यह नेगेटिविटी छोड़ते जाओ, समभाव से निकाल करके । पोजिटिव तो अपने आप रहेगा फिर । व्यवहार में पोजिटिव और निश्चय में पोजिटिव नहीं और नेगेटिव भी नहीं ! २. वाणी से तरछोड़ - अंतराय प्रश्नकर्ता: कितने ही घर ऐसे होते हैं, कि जहाँ वाणी से बोलाचाली १० होती रहती है। पर मन और हृदय साफ होते हैं। वाणी, व्यवहार में... दादाश्री : अब वाणी से क्लेश होता हो, तब सामनेवाले के हृदय पर असर होता है। बाक़ी यदि नाटकीय रहता हो तब तो हर्ज नहीं है। बाक़ी ऐसा है न, बोलनेवाला तो हृदय से और मन से चोखा होता है, वह बोल सकता है। पर सुननेवाले को तो, उसे पत्थर लगा हो, ऐसा लगता है, इसलिए क्लेश होता ही है। जहाँ कोई भी बोल खराब है न, विचित्र हैं न, वहाँ क्लेश होता है। बोल (शब्द) तो लक्ष्मी है। उसे तो गिन गिनकर देना चाहिए। लक्ष्मी कोई गिने बगैर देता है? यह बोल एक ऐसी वस्तु है कि वह यदि सँभाल लिया गया तो सारे ही महाव्रत आ जाते हैं। किसीको थोड़ी भी तरछोड़ (तिरस्कारपूर्वक दुत्कारना) नहीं लगे, वैसा अपना जीवन होना चाहिए। आप तरछोड़ को पहचानते हो या नहीं पहचानते? बहुत पहचानते हो? अच्छी तरह? किसीको चोट लग जाती है क्या? प्रश्नकर्ता: भीतर में सूक्ष्म रूप से चोट लग जाती है। दादाश्री : वह सूक्ष्म लगे उसमें हर्ज नहीं है। सूक्ष्म लगे, वह तो हमें नुकसानदेह है। हालाँकि सामनेवाले के लिए भी विरोधक तो है ही । क्योंकि सामनेवाला एकता अनुभव नहीं करेगा। प्रश्नकर्ता : मान लो कि स्थूल तिरस्कार हुआ हो तो भी प्रतिक्रमण तुरन्त ही हो जाता है। दादाश्री : हाँ, किसीको तरछोड़ लग जाए तो फिर प्रतिक्रमण करने चाहिए। और दूसरा, फिर बाद में उसके साथ अच्छा बोलकर बात पलट देनी चाहिए। हमें पिछले जन्मों का भीतर दिखता है तब आश्चर्य होता है कि ओहोहो, तिरस्कार से कितना अधिक नुकसान है! इसलिए मज़दूरों का भी तिरस्कार नहीं हो, उस तरह बरतना चाहिए। अंत में साँप होकर भी काटते Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ वाणी, व्यवहार में... हैं, तिरस्कार का बदला लिए बगैर रहते नहीं हैं। प्रश्नकर्ता: क्या उपाय करना चाहिए कि जिससे तिरस्कार के परिणाम भोगने की बारी नहीं आए? दादाश्री : उसके लिए दूसरा कोई उपाय नहीं है, सिर्फ प्रतिक्रमण ही करते रहना चाहिए। जब तक सामनेवाले का मन वापिस नहीं बदले तब तक करने चाहिए। और प्रत्यक्ष मिलें तो फिर वापिस मीठा बोलकर क्षमा माँग लेनी चाहिए कि, 'भाई, मेरी तो बड़ी भूल हो गई है। मैं तो मूर्ख हूँ, बेअक्कल हूँ।' इससे सामनेवाले के घाव भरते जाएँगे। हम अपना खुद का बुरा बोलें तो सामनेवाले को अच्छा लगेगा, तब उसके घाव भर जाएँगे। प्रश्नकर्ता : पैरों में गिरकर भी माफ़ी माँग लेनी चाहिए। दादाश्री : नहीं। पैरों में पढ़ें तो गुनाह होता है, ऐसा नहीं है। दूसरे प्रकार की वाणी से पलटो। वाणी से घाव हुआ हो न, तो वाणी से पलटो। पैरों में गिरने से तो वापिस मन में उस समय वह उल्टा चला हुआ व्यक्ति उल्टा ही समझेगा। मुझे बहुत तरह के लोग मिलते हैं। पर मैं उनके साथ एकता नहीं टूटने देता। एकता टूटे तो फिर उसकी शक्ति नहीं रहेगी। जब तक मेरी एकता है, तब तक उसकी शक्ति है। इसलिए सँभालना पड़ता है। हम जिस प्रयोगशाला में बैठे हैं, वहाँ प्रयोग सारे देखने पड़ते हैं न! प्रश्नकर्ता : ये अंतराय किस तरह से पड़ते हैं? दादाश्री : यह भाई नाश्ता दे रहे हों, तो आप कहो कि, 'अब रहने देन, बेकार ही बिगड़ेगा।' वह अंतराय डाला कहलाता है। कोई दान दे रहा हो तब आप कहो कि, 'इन्हें कहाँ दे रहे हो? ये तो हड़प जाएँ, ऐसे हैं।' यह आपने दान का अंतराय डाला। फिर दान देनेवाले दे या नहीं दे वह बात अलग है, पर आपने अंतराय डाला। फिर आपको कोई दुःख में भी दाता नहीं मिलेगा। वाणी, व्यवहार में... आप जिस ऑफिस में नौकरी कर रहे हों, वहाँ आपके आसिस्टेन्ट को 'बेअक्कल' कहा तो आपकी अक्कल पर अंतराय पड़ा! बोलो, अब इस अंतराय में फँस-फँसकर यह मनुष्यजन्म यों ही खो डाला है! आपको राइट (अधिकार) ही नहीं है सामनेवाले को बेअक्कल कहने का। आप ऐसा बोलते हो इसलिए सामनेवाला भी उल्टा बोलेगा, तो उसे भी अंतराय पड़ेगा! बोलो अब, ये अंतराय डालने से जगत् किस तरह रुकेगा? किसीको आपने नालायक कहा, तो आपकी ही काबलियत पर अंतराय पड़ेंगे। आप उसके तुरन्त ही प्रतिक्रमण करो तो अंतराय पड़ने से पहले ही धुल जाएँगे। प्रश्नकर्ता : वाणी से अंतराय नहीं डाले हों, पर मन से अंतराय डाले हों तो? दादाश्री : मन से डाले हुए अंतराय अधिक असर करते हैं, वे तो दूसरे जन्म में असर करते हैं। और इस वाणी से बोला हुआ इस जन्म में असर करता है। प्रश्नकर्ता : ज्ञानांतराय, दर्शनांतराय किससे पड़ते हैं? दादाश्री : धर्म में उल्टा-सीधा बोले, 'आप कुछ भी नहीं समझते और मैं ही समझता हूँ', उससे ज्ञानांतराय और दर्शनांतराय पड़ते हैं। या फिर कोई आत्मज्ञान प्राप्त कर रहा हो, उसमें विघ्न डाले तो उसे ज्ञान का अंतराय पड़ता है। कोई कहे कि, "ज्ञानी पुरुष' आए हैं, चलो आना हो तो।' तब आप कहो कि, 'अब ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' तो बहुत देखे हैं।' यह अंतराय पड़ा! अब मनुष्य है, इसलिए बोले बिना तो रहता ही नहीं न! आपसे नहीं जाया जाए ऐसा हो, तब आपको मन में भाव होता है कि, 'ज्ञानी पुरुष' आए हैं पर मुझसे नहीं जाया जा सकता, तो अंतराय टूटेंगे। अंतराय डालनेवाला खुद नासमझी से अंतराय डालता है, उसकी उसे खबर नहीं है। कितने सारे अंतराय डाले हैं जीव ने! ये ज्ञानी पुरुष हैं, हाथ में मोक्ष देते हैं। चिंता रहित स्थिति बनाते हैं, फिर भी अंतराय कितने सारे हैं कि उसे 'वस्तु' की प्राप्ति ही नहीं होती। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ वाणी, व्यवहार में... किसीको गलत कहा, वह खुद के आत्मा पर धूल डालने के समान वाणी, व्यवहार में... कुछ लोग कहते हैं, 'ऐसा अक्रम ज्ञान तो कहीं होता होगा? घंटेभर में मोक्ष तो होता होगा?' ऐसा बोले कि उन्हें अंतराय पड़े। इस जगत् में क्या नहीं हो सकता, वह कहा नहीं जा सकता। इसलिए यह जगत् बुद्धि से नापने जैसा नहीं है। क्योंकि यह हुआ है, वह हक़ीक़त है। 'आत्मविज्ञान' के लिए तो खास अंतराय पड़े हुए होते हैं। यह सबसे अंतिम स्टेशन है। प्रश्नकर्ता : संसार चीज़ ही ऐसी है कि जहाँ सिर्फ अंतराय ही हैं। दादाश्री : आप खुद परमात्मा हो, पर उस पद का लाभ नहीं मिलता। क्योंकि निरे अंतराय हैं। 'मैं चंदूभाई हूँ' बोले कि अंतराय पड़े। क्योंकि भगवान कहते हैं कि, 'तू मुझे चंदू कहता है?' यह बिना समझे बोला तो भी अंतराय पड़ता है। अंगारों पर अनजाने में हाथ डालें तो वे छोड़ेंगे क्या? प्रश्नकर्ता : दो लोग बात कर रहे हों और हम बीच में बोलें, तो वह क्या हमने दखलअंदाजी की कहलाएगा? या फिर हमारा डिस्चार्ज है वह? दादाश्री : दखलअंदाजी करने से दखल हो जाती है। प्रश्नकर्ता : दख़ल करने से यानी किस तरह से होता है? दादाश्री : वह कहे कि 'आप किसलिए बोले?' तब हम कहें, 'अब नहीं बोलूँगा।' तो वह दख़ल नहीं है। उसके बदले आप उस घड़ी यदि कहो कि 'मैं नहीं बोलें तो नहीं चलेगी यह गाड़ी, बिगड़ जाएगा सब।' वह दखल की। बीच में बोल लिया जाए, वह दखलअंदाजी कहलाती है। पर वह दखलअंदाजी भी डिस्चार्ज है। अब उस डिस्चार्ज दख़ल में भी नई दखलअंदाज़ी हो जाती है। दखलअंदाजी करना ही अंतराय है। आप परमात्मा हो, और परमात्मा को अंतराय किसलिए? पर ये तो दखलअंदाजी करते हैं कि, 'यह ऐसा क्यों किया? यह इस तरह से कर।' अरे, यह किसलिए करते हो ऐसा? हमें जैसा पसंद हो वैसा बोलना चाहिए। ऐसा प्रोजेक्ट करो कि आपको पसंद आए। यह सब आपका ही प्रोजेक्शन है। इसमें भगवान ने कोई दखल नहीं की है। किसीके ऊपर डालो तो सारी ही वाणी अंत में आपके ही ऊपर आती है। इसलिए ऐसी शुद्ध वाणी बोलो कि शुद्ध वाणी ही आपके ऊपर पड़े। हम किसीको भी 'तू गलत है' ऐसा नहीं कहते। चोर को भी गलत नहीं कहते। क्योंकि उसके व्यू पोइन्ट से वह सच्चा है। हाँ, हम उसे चोरी करने का फल क्या आएगा, वह 'जैसा है वैसा', उसे समझाते हैं। ३. शब्दों से सर्जित अध्यवसन... ये जो तार बजते हैं न, वह एक ही तार हिलाएँ तो कितनी आवाज़ होती है अंदर? प्रश्नकर्ता : बहुत बजते हैं। दादाश्री : एक ही हिलाओ तो भी? वैसे ही यह एक ही शब्द बोलें, उससे भीतर कितने ही शब्द खड़े हो जाते हैं। उसे भगवान ने अध्यवसन कहा है। अध्यवसन मतलब नहीं बोलना हो, तो भी वे खड़े हो जाते हैं सारे। खुद का बोलने का भाव हो गया न, इसलिए वे शब्द अपने आप बोल लिए जाते हैं। जितनी शक्ति होती है न वह सारी जागृत हो जाती है। इच्छा नहीं हो तो भी ! अध्यवसन इतने सारे खड़े हो जाते हैं कि कभी भी मोक्ष में नहीं जाने दें। इसलिए ही तो हमने अक्रम विज्ञान दिया है, कितना सुंदर अक्रम विज्ञान है। कोई भी बुद्धिशाली मनुष्य इस पज़ल का अंत ला दे, ऐसा विज्ञान है। __ 'आप नालायक हो' ऐसा बोलें न, वह शब्द सुनकर उसे तो दुःख हुआ ही? पर उसके जो पर्याय खड़े होते हैं, वे आपको बहुत दुःख देते हैं और आप कहो, 'बहुत अच्छे व्यक्ति, आप बहुत भले व्यक्ति हो', तो Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... १५ आपको भीतर शांति देगा। आपके बोलने से सामनेवाले को शांति हो गई। आपको भी शांति। इसलिए यही सावधानी रखने की ज़रूरत है न! आप एक शब्द बोलो कि 'यह नालायक है', तो 'लायक' का वजन एक किलो होता है और 'नालायक' का वजन चालीस किलो होता है। इसलिए ‘लायक' बोलोगे उसके स्पंदन बहुत कम होंगे, कम हिलाएँगे, और 'नालायक' बोलोगे तो चालीस पाउन्ड हिलेगा। बोल बोले उसके परिणाम ! प्रश्नकर्ता: यानी चालीस पाउन्ड का पेमेन्ट खड़ा रहा। दादाश्री : छुटकारा ही नहीं न ! प्रश्नकर्ता: फिर हम ब्रेक कैसे लगाएँ? उसका उपाय क्या है? दादाश्री : 'यह वाणी गलत है' ऐसा लगे तब प्रतिदिन परिवर्तन होता जाता है। एक व्यक्ति से आप कहो कि 'आप झूठे हो।' तो अब 'झूठा' कहने के साथ ही तो इतना सारा साइन्स घेर लेता है भीतर, उसके पर्याय इतने सारे खड़े हो जाते हैं कि आपको दो घंटों तक तो उस पर प्रेम ही उत्पन्न नहीं होता। इसलिए शब्द बोला ही नहीं जाए तो उत्तम है और बोल लिया जाए तो प्रतिक्रमण करो। मन-वचन-काया के तमाम लेपायमान भाव, वे क्या होते हैं? वे चेतनभाव नहीं हैं। वे सारे प्राकृतिक भाव, जड़ के भाव हैं। लेपायमान भाव मतलब हमें लेपित नहीं होना हो तो भी वह लेपायमान कर देते हैं। इसलिए हम कहते हैं न कि, 'मन-वचन काया के तमाम लेपायमान भावों से मैं सर्वथा निर्लेप ही हूँ।' उन लेपायमान भावों ने पूरे जगत् को लेपायमान किया है और वे लेपायमान भाव वे सिर्फ प्रतिघोष ही हैं। और वे निर्जीव हैं वापिस । इसलिए आपको उनका सुनना नहीं चाहिए । पर वे यों ही चले जाएँ, वैसे भी नहीं हैं। वे शोर मचाते ही रहेंगे। तो उपाय क्या करोगे? हमें क्या करना पड़ेगा? उन अध्यवसन को बंद करने के लिए? 'वे तो मेरे उपकारी हैं' ऐसा-वैसा बोलना पड़ेगा। अब १६ वाणी, व्यवहार में... आप ऐसा बोलोगे तब वे उल्टे भाव सारे बंद हो जाएँगे, कि यह तो नई ही तरह का 'उपकारी' कहता है वापिस इसलिए फिर शांत हो जाएँगे ! आप कहो न, कि 'यह नुकसान हो जाए वैसा है।' इसलिए तुरन्त ही लेपायमान भाव तरह-तरह से शोर मचाएँगे, 'ऐसा हो जाएगा और वैसा हो जाएगा।' 'अरे भाई, आप बैठो न बाहर अभी, मैंने तो कहने को कह दिया, पर आप किसलिए शोर मचा रहे हो?' इसलिए हम कहें कि, 'नहीं, नहीं। वह तो लाभदायी है।' उसके बाद वे सारे भाव बैठ जाएँगे वापिस । ये टेपरिकार्डर और ट्रान्समीटर जैसे कितने ही साधन अभी उपलब्ध हो गए हैं। इससे बड़े-बड़े लोगों को भय लगा ही करता है कि कोई कुछ रेकॉर्ड कर लेगा तो? अब उसमें (टेप मशीन में) तो शब्द टेप हुए उतना ही है। पर यह मनुष्य की बोडी मन सारा ही टेप हो जाए वैसे हैं। उसका लोग जरा सा भी भय नहीं रखते हैं। यदि सामनेवाला नींद में हो और आप कहो कि, 'यह नालायक है' तो वह उस व्यक्ति के भीतर टेप हो गया। वह फिर उस व्यक्ति को फल देगा। इसलिए सोते हुए व्यक्ति के लिए भी नहीं बोलना चाहिए, एक अक्षर भी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि सारा टेप हो जाता है, वैसी यह मशीनरी है। बोलना हो तो अच्छा बोलना कि, 'साहब, आप बहुत अच्छे व्यक्ति हो।' अच्छा भाव रखना, तो उसका फल आपको सुख मिलेगा। पर उल्टा थोड़ा भी बोले, अंधेरे में भी बोले या अकेले में बोले, तो उसका फल कड़वा जहर जैसा आएगा। यह सब टेप ही हो जाएगा। इसलिए टेपिंग अच्छा करवाओ। जितना प्रेममय डीलिंग (व्यवहार) होगा, उतनी ही वाणी इस टेपरिकॉर्ड में पुसाए ऐसी है, उसका यश अच्छा मिलेगा। न्याय-अन्याय देखनेवाला तो बहुतों को गालियाँ देता है। वह तो देखने जैसा ही नहीं है। न्याय-अन्याय तो एक थर्मामीटर है जगत् का, कि किसका कितना बुखार उतर गया और कितना चढ़ा? ! जगत् कभी भी न्यायी बननेवाला नहीं है और अन्यायी भी हो जानेवाला नहीं है। यही का यही मिला-जुला खिचड़ा चलता ही रहेगा। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... १८ वाणी, व्यवहार में... प्रतिपक्षी भाव नहीं होते, और इसी प्रकार आपको भी वहाँ तक पहुँचना यह जगत् है, तब से ऐसे का ऐसा ही है। सत्युग में जरा कम बिगड़ा हुआ वातावरण होता है, अभी अधिक असर है। रामचंद्रजी के समय में सीता का हरण कर जानेवाले थे। तो अभी नहीं होंगे? यह तो चलता ही रहेगा। यह मशीनरी ऐसी ही है पहले से ही। और उसे सूझ नहीं पड़ती है। खुद की जिम्मेदारियों का भान नहीं है, इसलिए गैर जिम्मेदारीवाला बोलना नहीं । गैर जिम्मेदारीवाला वर्तन करना नहीं। गैर जिम्मेदारीवाला कुछ भी करना नहीं। सारा पोज़िटिव लेना। किसीका अच्छा करना हो तो करने जाना। नहीं तो बुरे में पड़ना ही नहीं। और बुरा सोचना नहीं। बरा सुनना ही नहीं किसीका। बहत जोखिमदारी है। नहीं तो इतना बडा जगत, उसमें मोक्ष तो खुद के भीतर ही पड़ा हुआ है और खुद को मिलता नहीं है! और कितने ही जन्मों से भटकते रहते हैं। घर में पत्नी को डाँटे तो वह समझता है कि किसीने सुना ही नहीं न! यह तो ऐसी ही है न! छोटे बच्चे हों, तब उनकी उपस्थिति में पतिपत्नी चाहे जैसा बोलते हैं। वे समझते हैं कि यह छोटा बच्चा क्या समझनेवाला है? अरे, भीतर टेप हो रहा है, उसका क्या? वह बड़ा होगा तब वह सब बाहर निकलेगा! इतनी अपनी कमजोरी जानी ही चाहिए कि प्रतिपक्षी भाव उत्पन्न नहीं हों। और कभी हुए हों तो हमारे पास प्रतिक्रमण का हथियार है, उससे मिटा डालें। पानी कारखाने में पहुंच गया हो, पर बर्फ नहीं बना तब तक हर्ज नहीं है। बर्फ हो गया फिर अपने हाथ में नहीं रहेगा। प्रश्नकर्ता : वाणी बोलते समय के भाव और जागृति के अनुसार टेपिंग होता है? दादाश्री : नहीं। वह टेपिंग वाणी बोलते समय नहीं होता है। यह तो मूल पहले ही हो चुका है। और फिर आज क्या होता है? छपे हुए के अनुसार ही बजता है। प्रश्नकर्ता : फिर अभी बोलें, उस समय जागृति रखें तो? दादाश्री : अभी आपने किसीको धमकाया। फिर मन में ऐसा हो कि 'इसे धमकाया वह ठीक है।' इसलिए फिर वापिस उस तरह के हिसाब का कोडवर्ड टेप हुआ। और 'इसे धमकाया. वह गलत हआ।' ऐसा भाव हुआ, तो कोडवर्ड आपका नई प्रकार का हुआ। यह धमकाया, वह ठीक है। ऐसा माना कि उसके जैसा ही फिर कोड उत्पन्न हुआ और उससे वह अधिक वज़नदार बनता है। और यह बहुत हो गया, ऐसा नहीं बोलना चाहिए। ऐसा क्यों होता है?' ऐसा हो तो कोड छोटा हो गया। प्रश्नकर्ता : तीर्थंकरों की वाणी के कोड कैसे होते हैं? दादाश्री : उन्होंने कोड ऐसा नक्की किया हुआ होता है कि मेरी वाणी से किसी भी जीव को किंचित् मात्र भी दु:ख नहीं हो। दु:ख तो हो ही नहीं, पर किसी जीव का किंचित् मात्र प्रमाण भी नहीं दुभे। पेड़ का भी प्रमाण नहीं दुभे। ऐसे कोड सिर्फ तीर्थंकरों के ही हुए होते हैं। प्रश्नकर्ता : जिसे टेप ही नहीं करना हो, उसके लिए क्या रास्ता है? सामान्य व्यवहार में बोलने में हर्ज नहीं है। पर देहधारी मात्र के लिए कुछ भी उल्टा-सीधा बोला गया तो वह भीतर टेपरिकॉर्ड हो गया। इस संसार के लोगों की टेप उतारनी हो तो समय कितना लगेगा? एक जरासा छेड़ो तो प्रतिपक्षी भाव टेप होते ही रहेंगे। तुझमें कमजोरी ऐसी है कि छेड़ने से पहले ही तू बोलने लगेगा। प्रश्नकर्ता: खराब बोलना तो नहीं है. पर खराब भाव भी नहीं आना चाहिए न? दादाश्री : खराब भाव नहीं आना चाहिए, वह बात सही है। भाव में आता है, वह बोल में आए बगैर रहता नहीं है। इसलिए बोलना यदि बंद हो जाए न तो भाव भी बंद हो जाएँ। ये भाव तो बोलने के पीछे रहा प्रतिघोष है। प्रतिपक्षी भाव तो उत्पन्न हुए बगैर रहते ही नहीं न! हमें Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में.... १९ दादाश्री : कुछ भी स्पंदन नहीं करना चाहिए। सब देखते ही रहना चाहिए। पर वैसा होता नहीं है न! यह भी मशीन है और फिर पराधीन है। इसलिए हम दूसरा रास्ता बताते हैं कि टेप हो जाए कि तुरन्त मिटा दो तो चलेगा। यह प्रतिक्रमण, वह मिटाने का साधन है। इससे एकाध भव में परिवर्तन होकर सारा बोलना बंद हो जाएगा। यह 'सच्चिदानंद' शब्द बोलने से बहुत इफेक्ट होता है। बिना समझे बोलें तो भी इफेक्ट होता है। समझकर बोले तब तो बहुत लाभ होता है। ये शब्द बोलने से स्पंदन होते हैं और भीतर मंथन होता है। सब सायन्टिफिक है। प्रश्नकर्ता: 'काम नहीं करना है, ऐसा बोले, तो उसमें क्या हो जाता है? दादाश्री : फिर आलस आ जाता है। अपने आप ही आलस आता है और 'करना है' कहे तो आलस सारा जाने कहाँ चला जाता है। मैं 'ज्ञान' होने से पहले की बात बताता हूँ। मैं पच्चीस वर्ष का था, तब मेरी तबियत नरम हो और कोई पूछता कि, 'कैसी है आपकी तबियत?' मैं कहता कि, 'बहुत अच्छी है।' और दूसरे किसीकी तबियत अच्छी हो और हम पूछें कि, 'कैसी है आपकी तबियत ?' तब वह कहता है, 'ठीक है।' अरे भाई, 'ठीक है' कहता है, इसलिए आगे नहीं बढ़ेगा। इसलिए फिर मैंने 'ठीक' शब्द उड़ा दिया। यह शब्द नुकसान करता है। आत्मा 'ठीक' हो जाता है फिर 'बहुत अच्छा' कहें, उस घड़ी आत्मा 'अच्छा' हो जाता है। बाक़ी लोग समझते हैं कि दादा चैन से कमरे में जाकर सो जाते हैं। उस बात में माल नहीं है। पद्मासन लगाकर एक घंटे तक और इस सतहत्तर वर्ष की उम्र में पद्मासन लगाकर बैठना। पैर भी मुड़ जाते हैं और उससे आँखों की शक्ति, आँखों का प्रकाश, वह सब आज भी कायम है। क्योंकि प्रकृति की मैंने कभी भी निंदा नहीं की है। उसकी बुराई २० वाणी, व्यवहार में.... कभी भी नहीं की है। अपमान कभी किया नहीं। लोग बुराई करके अपमान करते हैं। प्रकृति जीवंत है, उसका अपमान करोगे तो उस पर असर होगा। ४. दुःखदायी वाणी के समय, समाधान ! प्रश्नकर्ता : कोई कुछ बोल जाए, उसमें हम समाधान किस तरह करें? समभाव किस तरह रखें? T दादाश्री : अपना ज्ञान क्या कहता है? कोई आपका कुछ कर सके ऐसा है ही नहीं वर्ल्ड में कोई जन्मा ही नहीं कि जो आपमें कुछ दखल कर सकता हो । किसीमें कोई दखल कर सके वैसा है ही नहीं। तो यह दख़ल क्यों आती है ? आपमें जो दखलअंदाजी करता है वह आपके लिए निमित्त है। पर उसमें मूल हिसाब आपका ही है। कोई उल्टा करे या सीधा करे, पर उसमें हिसाब आपका ही है और वह निमित्त बन जाता है। वह हिसाब पूरा हुआ कि फिर कोई दखल नहीं करेगा। इसलिए निमित्त के साथ झगड़ा करना बेकार है। निमित्त को काटने दौड़ने पर फिर वापिस गुनाह खड़ा होगा। इसलिए इसमें करने के लिए कुछ रहता नहीं है। यह विज्ञान है, वह सब समझ लेने की ज़रूरत है। प्रश्नकर्ता: कोई हमें कुछ कह जाए, वह भी नैमितिक ही है न? अपना दोष नहीं हो, फिर भी बोले तो? दादाश्री : इस जगत् में आपका दोष नहीं हो तो किसी व्यक्ति को ऐसा बोलने का अधिकार नहीं है। इसलिए ये बोलते हैं तो आपकी भूल है, उसका बदला देते हैं यह । हाँ, वह आपकी पिछले जन्म की जो भूल है, उस भूल का बदला यह व्यक्ति आपको दे रहा है। वह निमित्त है और भूल आपकी है। इसलिए ही वह बोल रहा है। अब वह अपनी भूल है, इसलिए यह बोल रहा है। तो वह व्यक्ति हमें उस भूल में से मुक्त करवा रहा है। उसकी तरफ भाव नहीं बिगाड़ना चाहिए। और हमें क्या कहना चाहिए कि प्रभु, उसको सद्बुद्धि दीजिए। उतना ही कहना, क्योंकि वह निमित्त है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... हम क्या कहना चाहते हैं? कि जो कुछ आता है वह आपका हिसाब है। उसे चुक जाने दो और फिर नए सिरे से रकम उधार मत देना। प्रश्नकर्ता : नई रकम उधार देना किसे कहते हैं आप? दादाश्री : कोई आपको उल्टा कहे तो आपको मन में ऐसा होता है कि 'यह मुझे क्यों उल्टा सुना रहा है?' इसलिए आप उसे नई रकम उधार देते हो। जो आपका हिसाब था, वह चुकाते समय आपने फिर से नये हिसाब का खाता शुरू किया। इसलिए एक गाली जो उधार दी थी, वह वापिस देने आया, तब वह हमें जमा कर लेनी थी, उसके बदले में आपने पाँच नई उधार दे दीं वापिस। यह एक तो सहन होती नहीं, वहाँ दुसरी पाँच उधार दी, वहाँ पर नई जमा-उधार करता है न, और फिर उलझता रहता है। इस तरह सारी उलझनें खड़ी करता है। अब इसमें मनुष्य की बुद्धि किस तरह पहुँचे? यदि तुझे यह व्यापार नहीं पुसाए तो फिर से देना मत, नया उधार मत देना, और यह पुसाता हो तो फिर से पाँच दे। प्रश्नकर्ता : एक बार जमा करें, दो बार जमा करें, सौ बार जमा करें, ऐसा हर बार जमा ही करते रहें? दादाश्री : हाँ, फिर उधार दोगे तो फिर से वह बहीखाता चलता रहेगा। इसके बदले तू लाख बार जमा करवा न, हमें जमा करने हैं। और उसका अंत आएगा। देखना न, मेरे कहे अनुसार चलो न! प्रश्नकर्ता : इतने वर्ष बीत गए, फिर भी अभी तक अंत नहीं आया। दादाश्री : दूसरा विचार करने के बदले मेरे कहे अनुसार करना न, अंत आ जाएगा। और मैंने जमा किए हैं, ऐसे बहुत सारे। हम अट्ठाईस वर्षों से नया उधार ही नहीं देते। इसलिए बहीखाते सारे कितने चोखे हो गए हैं! अपने पड़ोसी से कहें कि, 'आप सुबह पहले मुझे पाँच गालियाँ देना।' तब वह क्या कहेगा कि, 'मैं कोई फालतू हूँ?' यानी हिसाब नहीं २२ वाणी, व्यवहार में... है, वह कोई गालियाँ देगा ही नहीं न! और हिसाब है, वह कोई छोड़नेवाला नहीं है। अब अपना इतना पुरुषार्थ शेष रहा कि, 'हँसते मुख से जहर पीओ।' किसी दिन बेटे के साथ कोई मतभेद हो गया, बेटा विरोध करे तो फिर जो 'प्याला' दे जाए, वह पीना तो पड़ेगा न ! रो-रोकर भी पीना तो पड़ेगा ही न? वह 'प्याला' थोड़े ही कोई उसके सिर पर मार सकते हैं? पीना तो पड़ेगा ही न? प्रश्नकर्ता : हाँ, पीना पड़ेगा। दादाश्री : जगत् रो-रोकर पीता है। हमें हँसकर पीना है! बस, इतना ही कहा है। सामनेवाला क्या बोला, कठोर बोला, उसके हम ज्ञाता-दृष्टा। हम क्या बोले, उसके भी हम ज्ञाता-दृष्टा। किसी व्यक्ति ने गाली सुनाई, तो वह क्या है? उसने आपके साथ व्यवहार पूरा किया। सामनेवाला जो कुछ भी करता है, जय-जय करता हो, तो वह, अथवा गालियाँ देता हो, तो वह भी सारा आपका ही. आपके साथ का व्यवहार ओपन करता है। वहाँ पर व्यवहार को व्यवहार से छेदना। और व्यवहार एक्सेप्ट (स्वीकार) करना। वहाँ तू बीच में न्याय मत डालना। न्याय डालेगा तो उलझ जाएगा। प्रश्नकर्ता : और यदि हमने गाली कभी दी ही नहीं हों तो? दादाश्री : यदि गालियाँ नहीं दी हों तो सामने गालियाँ नहीं मिलेंगी। पर यह तो अगला-पिछला हिसाब है, इसलिए दिए बगैर रहेगा ही नहीं। बहीखाते में जमा हो तो ही आता है। किसी भी प्रकार का असर हुआ, वह बिना हिसाब के नहीं होता। असर, वह बीज का फल है। इफेक्ट (असर) का हिसाब, वह व्यवहार। व्यवहार किसे कहा जाता है? नौ हो उसे नौ से भाग करना। यदि नौ को बारह से भाग देंगे तो व्यवहार कैसे चलेगा? Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... २३ न्याय क्या कहता है? नौ का बारह से भाग दो। वहाँ फिर उलझ जाता है। न्याय में तो क्या कहेंगे कि, 'वे ऐसा ऐसा बोले, इसलिए आपको ऐसा बोलना चाहिए।' आप एक बार बोलो तब फिर सामनेवाला दो बार बोलेगा। आप दो बार बोलो तो फिर सामनेवाला दस बार बोलेगा । जिस तरह के व्यवहार से लिपट गया है, उस तरह के व्यवहार से खुलता है। यह आप मुझे पूछते हो कि आप मुझे क्यों नहीं डाँटते ? तो मैं कहूँ कि, आप वैसा व्यवहार नहीं लाए हो। जितना व्यवहार आप लाए थे, उतना आपको टोक दिया। उससे अधिक व्यवहार नहीं लाए थे। हमें, ज्ञानी पुरुष को कठोर वाणी होती ही नहीं है और सामनेवाले के लिए कठोर वाणी निकले तो वह हमें पसंद नहीं आता। और फिर भी निकली, तो हम तुरन्त ही समझ जाते हैं कि इसके साथ हम ऐसा ही व्यवहार लाए हैं। वाणी सामनेवाले के व्यवहार के अनुसार निकलती है। वीतराग पुरुषों की वाणी निमित्त के अधीन निकलती है। कोई कहेगा, 'इस भाई को दादा क्यों कठोर शब्द कहते हैं?' उसमें दादा क्या करें? वह व्यवहार ही ऐसा लाया है। कितने तो बिलकुल नालायक होते हैं, फिर भी दादा ऊँची आवाज़ से बोले ही नहीं होते। तब से ही नहीं समझ में आ जाए कि वह अपना व्यवहार कितना सुंदर लाया है! जो कठोर व्यवहार लाया हो, वह हमारे पास से कठोर वाणी पाता है। अब हमारी वाणी उल्टी निकले, तो वह सामनेवाले के व्यवहार के अधीन है, पर हमें तो मोक्ष में जाना है, इसलिए उसका प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। प्रश्नकर्ता पर तीर निकल गया, उसका क्या? : दादाश्री : वह व्यवहाराधीन है। प्रश्नकर्ता: ऐसी परंपरा रहे तो बैर बढ़ेगा न? दादाश्री : नहीं, इसलिए ही तो हम प्रतिक्रमण करते हैं। प्रतिक्रमण मात्र मोक्ष ले जाने के लिए नहीं है। पर वह तो बैर रोकने के लिए भगवान २४ वाणी, व्यवहार में.... के वहाँ का फोन है। प्रतिक्रमण में कच्चे पड़े तो बैर बँधता है। भूल जब समझ में आए तब तुरन्त ही प्रतिक्रमण कर लो। उससे बैर बँधेगा ही नहीं। सामनेवाले को बैर बाँधना हो तो भी नहीं बँधेगा। क्योंकि हम सामनेवाले के आत्मा को सीधा ही फोन पहुँचाते हैं। व्यवहार निरूपाय है। सिर्फ यदि हमें मोक्ष में जाना हो तो प्रतिक्रमण करो, जिसे स्वरूपज्ञान नहीं हो, उसे व्यवहार को व्यवहार स्वरूप ही रखना हो तो, सामनेवाला उल्टा बोला, वही करेक्ट है ऐसा रखो। परन्तु मोक्ष में जाना हो तो उसके प्रतिक्रमण करो, नहीं तो बैर बँधेगा। आपको अभी रास्ते में जाते हुए कोई कहे कि, 'आप नालायक हो, चोर हो, बदमाश हो।' ऐसी-वैसी गालियाँ दे दे और आपको वीतरागता रहे तो समझना कि इस बारे में आप उतने भगवान हो गए। जिस-जिस बारे में आप जीत गए उतनी बातों में आप भगवान हो गए। और आप जगत् से जीत गए तो फिर पूरे ही, पूर्ण भगवान हो गए। फिर किसीके साथ मतभेद नहीं पड़ेगा। टकराव हुआ इसलिए हमें समझना चाहिए कि, 'मैं ऐसा कैसा बोल गया कि यह टकराव हुआ!' अर्थात् हो गया हल। फिर पजल सॉल्व हो गया। नहीं तो जब तक हम 'सामनेवाले की भूल है' ऐसा ढूंढने जाएँगे, तो कभी भी यह पज़ल सॉल्व नहीं होगा। 'अपनी भूल है' ऐसा मानेंगे तब ही इस जगत् का अंत आएगा। दूसरा कोई उपाय नहीं है। दूसरे सारे उपाय उलझानेवाले हैं। और उपाय करने, वह अपना अंदर का छुपा हुआ अहंकार है । उपाय किसलिए ढूंढते हो? सामनेवाला अपनी भूल निकाले तो हमें ऐसा कहना चाहिए कि 'मैं तो पहले से ही टेढ़ा हूँ । ' प्रश्नकर्ता: 'आप्तवाणी' मैं ऐसा लिखा है कि 'दादा चोर हैं' ऐसा कोई कहे तो महान उपकार मानना । दादाश्री : ऐसा किसके बदले में उपकार मानना चाहिए? क्योंकि कोई कहेगा नहीं ऐसा । यह प्रतिघोष है किसी चीज का तो यह मेरे खुद का ही प्रतिघोष है। इसलिए उपकार मानूँगा । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... २५ यह जगत् प्रतिघोष के रूप में है। कुछ भी आए तो वह आपका ही परिणाम है। उसकी हंड्रेड परसेन्ट गारन्टी लिखकर देता हूँ । इसलिए हम उपकार ही मानते हैं। तो आपको भी उपकार मानना चाहिए न? ! और तब ही आपका मन बहुत अच्छा रहेगा। हाँ, उपकार नहीं मानो तो उसमें आपका पूरा अहंकार खड़ा होकर द्वेष परिणाम पाएगा। उसे क्या नुकसान होनेवाला है? आपने दिवाला निकाला। ५. वाणी, है ही टेपरिकॉर्ड वाणी की तो सारी झंझट है। वाणी के कारण ही तो यह सब भ्रांति जाती नहीं है। कहेगा कि 'यह मुझे गालियाँ देता है।' और इसलिए फिर बैर जाता ही नहीं न! प्रश्नकर्ता: इतने सारे झगड़े होते है, गालियाँ दें तो भी लोग मोह के कारण सारा भूल जाते हैं। और मुझे तो दस वर्ष पहले कहा हुआ हो तो भी लक्ष्य में रहता है। और फिर मैं उनके साथ नाता नहीं रखता हूँ। दादाश्री : पर मैं कुछ नाता तोड़ नहीं देता। हम जानते हैं कि इसकी नोंध (अत्यंत राग अथवा द्वेष सहित लम्बे समय तक याद रखना, नोट करना) रखने जैसी नहीं है। रेडियो बजता हो ऐसा मुझे लगता है। उल्टा अंदर मन में हँसना आता है। इसलिए मैंने खुल्ले आम पूरे वर्ल्ड को कहा है कि यह ओरिजिनल टेपरिकॉर्ड बज रहा है। ये सारे ही रेडियो हैं। कोई मुझे साबित कर दे कि 'यह टेपरिकॉर्ड नहीं है' तो यह पूरा ज्ञान ही गलत है। करुणा किसे कहा जाता है? सामनेवाले की मूर्खता पर प्रेम रखना, उसे । मूर्खता पर बैर रखे, वह तो पूरा जगत् रखता ही है। प्रश्नकर्ता: बोल रहे हों न, तब वैसा लगता नहीं है कि यह मूर्खता कर रहा है। दादाश्री : उस बेचारे के हाथ में सत्ता ही नहीं है। टेपरिकॉर्ड गाता रहता है। हमें तुरन्त पता चल जाता है कि यह टेपरिकॉर्ड है। जोखिमदारी २६ वाणी, व्यवहार में... समझता हो तो बोले नहीं न! और टेपरिकॉर्ड भी नहीं बजे । कोई हमें शब्द कहे कि, 'आप गधे हो, मूर्ख हो' वह हम लोगों को हिलाए नहीं। 'आपमें अक्कल नहीं है' ऐसा मुझे कहे तो, मैं कहूँ कि, 'उस बात को तू जान गया इतना अच्छा हुआ। मैं तो पहले से ही जानता हूँ तूने तो आज जाना।' तब फिर से कहूँ कि, 'अब दूसरी बात कर ।' तो निबेड़ा आएगा या नहीं आएगा? इस अक्कल को तौलने बैठें तो तराजू किसके वहाँ से लाएँ? बाट किसके वहाँ से लाएँ? वकील कहाँ से लाएँ? ! इससे तो हम कह दें कि, 'भाई, हाँ, अक्कल नहीं है, यह बात तो तूने आज जानी। हम तो पहले से ही जानते हैं। चल, आगे की बात कर अब ।' तो निबेड़ा आए इसमें । सामनेवाले की बात पकड़कर बैठने जैसा नहीं है और शब्द तो सारे टेपरिकॉर्ड बोलता है। और कारण ढूंढने से क्या हुआ है? यह कारण ढूंढने से ही जगत् खड़ा हुआ है। कारण किसीमें ढूंढना मत। यह तो 'व्यवस्थित' है। 'व्यवस्थित' से बाहर कोई कुछ बोलनेवाला नहीं है। यों ही बेकार ही उसके ऊपर आप जो मन में धारण करते हो न, वह आपकी भूल है। जगत् पूरा निर्दोष है। निर्दोष देखकर मैं आपको कहता हूँ कि निर्दोष है। किसलिए निर्दोष है जगत् ? शुद्धात्मा निर्दोष हैं या नहीं? तब दोषित क्या लगता है? यह पुद्गल । अब पुद्गल उदयकर्म के अधीन है, पूरी जिन्दगी। अब उदयकर्म में हो वैसा यह बोलता है, उसमें आप क्या करोगे फिर ?! देखो तो सही, इतना अच्छा दादा ने विज्ञान दिया है कि कभी भी झगड़ा ही नहीं हो। वाणी जड़ है, रिकॉर्ड ही है। यह टेपरिकॉर्ड बजता है, उसके पहले टेप में उतरता है या नहीं? उसी प्रकार इस वाणी की भी पूरी टेप उतर चुकी है। और उसे संयोग मिलते ही, जैसे पिन लगे और रिकॉर्ड शुरू हो जाती है, वैसे ही वाणी शुरू हो जाती है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ वाणी, व्यवहार में... कई बार ऐसा होता है या नहीं कि आपने दृढ़ निश्चय किया हो कि सास के सामने या पति के सामने नहीं बोलना है, फिर भी बोल लिया जाता है या नहीं? बोल लिया जाता है। वह क्या है? अपनी तो इच्छा नहीं थी। तब क्या पति की इच्छा थी कि पत्नी मुझे गाली दे? तब फिर कौन बुलवाता है। यह तो रिकॉर्ड बोलता है और टेप हो चकी रिकॉर्ड को कोई बाप भी बदल नहीं सकता। बहुत बार कोई मन में पक्का करके आया हो कि आज तो उसे ऐसा सुनाना है और वैसा कह दूंगा। और जब उसके पास जाता है और दूसरे दो-पाँच लोगों को देखता है, तो एक अक्षर भी बोले बिना वापिस आता है या नहीं? अरे, बोलने जाए पर जबान ही नहीं चलती। ऐसा होता है या नहीं? यदि तेरी सत्ता की वाणी हो, तो तू चाहे, वैसी ही वाणी निकले। पर वैसा होता है? कैसे होगा? यह विज्ञान इतना सुंदर है न कि किसी प्रकार से बाधक ही नहीं और झटपट हल ला दे ऐसा है। पर इस विज्ञान को लक्ष्य में रखे कि दादा ने कहा है कि वाणी मतलब बस रिकॉर्ड ही है, फिर कोई चाहे जैसा बोला हो या कोतवाल झिड़कता हो पर उसकी वाणी वह रिकॉर्ड ही है, वैसा फिट हो जाना चाहिए, तब फिर यह कोतवाल झिड़क रहा हो तो हमें असर नहीं करेगा। वाणी, व्यवहार में... मन में से वाणी की क़ीमत चली जाएगी। हमें तो कोई चाहे जैसा बोले न तो भी उसकी एक अक्षर भी क़ीमत नहीं है। मैं जानता हूँ कि वह बेचारा किस तरह बोल सकता है? वह खुद ही लद्र है न! और यह तो रिकॉर्ड बोल रहा है। वह तो लट्ट है, दया रखने जैसा है! प्रश्नकर्ता : 'यह लट्ट है' इतना उस समय लक्ष्य में नहीं रहता है। दादाश्री : नहीं, पहले तो 'वाणी रिकॉर्ड है' ऐसा नक्की करो। फिर 'यह बोलता है, वह 'व्यवस्थित' है। यह फाइल है, उसका समभाव से निकाल करना है।' यह सारा ज्ञान साथ-साथ हाज़िर रहे न तो हमें कुछ भी असर नहीं होगा। जो बोलता है वह 'व्यवस्थित' है न? और रिकॉर्ड ही बोलता है न? वह खुद नहीं बोलता न आज? इसलिए कोई व्यक्ति जोखिमदार है ही नहीं। और भगवान को वैसा दिखा है कि कोई जीव किसी प्रकार से जोखिमदार है ही नहीं। इसलिए कोई गनहगार है ही नहीं। वह भगवान ने देखा था। उस दृष्टि से भगवान मोक्ष में गए। और जगत् ने गुनहगार है ऐसा देखा, इसलिए जगत् में भटकते हैं। बस, इतना ही दृष्टि का फर्क है! प्रश्नकर्ता : हाँ, पर यह जो दृष्टि है वह अंदर फिट हो जाए, उसके लिए क्या पुरुषार्थ करना चाहिए? दादाश्री : पुरुषार्थ कुछ भी नहीं करना है। इसमें तो 'दादाजी' की यह बात बिलकुल सच है, उस पर उल्लास जैसे-जैसे आएगा, वैसे-वैसे अंदर फिट होता जाएगा। इसलिए अब ऐसा नक्की कर दो कि दादा ने कहा है. वैसा ही है कि यह वाणी टेपरिकॉर्ड ही है। अब उसे अनुभव में लो। वह धमकाता हो तो उस घड़ी हम अपने मन में हँसने लगें. ऐसा कछ करो। क्योंकि वास्तव में वाणी टेपरिकॉर्ड ही है और ऐसा आपको समझ में आ गया है। क्योंकि नहीं बोलना हो तो भी बोल लिया जाता है, तो फिर 'यह टेपरिकॉर्ड ही है', वह ज्ञान फिट कर दो। प्रश्नकर्ता : मानो कि सामनेवाले का टेपरिकॉर्ड बज रहा हो और कोई भी व्यक्ति बहुत अधिक बोलता हो तो भी हमें समझ जाना चाहिए कि यह रिकॉर्ड बोली। रिकॉर्ड को रिकॉर्ड समझें, तो हम लुढ़क नहीं पड़ेंगे। नहीं तो तन्मयाकार हो जाएँ तो क्या होगा? __ अपने ज्ञान में यह 'वाणी रिकॉर्ड है' वह एक चाबी है और उसमें हमें गप्प नहीं मारनी है। वह है ही रिकॉर्ड। और रिकॉर्ड मानकर यदि आज से आरंभ करो तो? तब फिर है कोई दु:ख? अपनी ऊँची जाति में लकड़ी लेकर मारामारी नहीं करते। यहाँ तो सब वाणी के ही धमाके! अब उसे जीत लेने के बाद रहा कुछ? इसलिए मैंने यह खुलासा किया कि वाणी रिकॉर्ड है। यह बाहर खुलासा करने का कारण क्या है? उसके कारण हमारे Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... वाणी, व्यवहार में... विनाशी चीज़ होती है, वह वस्तु इफेक्टिव होती है। अपना 'ज्ञान' मिलने के बाद चाहे जैसी वाणी हो तो वाणी इफेक्टिव नहीं होती। फिर भी अभी होता है उसका क्या कारण? पहले की अवस्थाएँ भूले नहीं हैं। बाकी इफेक्ट होता है, उसे आपने जाना कि सामनेवाले की वाणी है वह रिकॉर्ड स्वरूप है, और वह चंदूभाई को कह रहा है, 'आपको' नहीं कह रहा है। इसलिए किसी भी रास्ते 'आपको' असर नहीं करेगी। उसे कुछ ऐसा नहीं बोलना चाहिए, ऐसा उसके हाथ में नहीं है। उसके चाहे जैसे बोल से हमें टकराव नहीं होना चाहिए। वह धर्म है। हाँ। बोल तो चाहे जैसे हो सकते हैं। बोल की कोई ऐसी शर्त होती है कि वह बोले तो 'टकराव ही करना है?' और हमारे कारण सामनेवाले को अड़चन हो वैसा बोलना, वह सबसे बड़ा गुनाह है। उल्टे वैसा कोई बोला हो तो उसे दबा देना चाहिए, वह मनुष्य कहलाता है! उस समय हम कहें कि यह रिकॉर्ड बज रहा है। पर अंदर वापिस 'वह गलत है, वह ठीक नहीं है, ऐसा क्यों बोल रहा है?' वैसा रिएक्शन भी हो जाता है। दादाश्री : नहीं, पर ऐसा किसलिए होना चाहिए? यदि वह रिकॉर्ड ही बज रहा है, आप यदि जान गए हो कि यह रिकॉर्ड ही बज रहा है, तो फिर उसका असर ही नहीं होगा न?! प्रश्नकर्ता : पर खद निश्चित रूप से मानता है, सौ प्रतिशत मानता है कि यह रिकॉर्ड ही है, फिर भी वह रिएक्शन क्यों आता है? दादाश्री : ऐसा है कि वह रिकॉर्ड ही है, ऐसा रिकॉर्ड की तरह तो सारा आपने नक्की किया हुआ है। पर 'रिकॉर्ड' है, ऐसा एक्जेक्ट ज्ञान उस घड़ी रहना चाहिए। पर वह एकदम रिकॉर्ड के अनुसार रह नहीं सकता। क्योंकि अपना अहंकार उस घड़ी कूदता है। इसलिए फिर 'उसे' फिर 'हमें' समझाना चाहिए कि 'भाई, यह रिकॉर्ड बज रहा है। तू किसलिए शोर मचाता है?' ऐसा हम कहें तब फिर अंदर ठंडा पड़ जाता है। यह तो मेरी पच्चीस वर्ष की उम्र थी, तब की बात है। मेरे वहाँ एक आदमी आया। उस दिन मुझे रिकॉर्ड की खबर नहीं थी। वह मुझे बहुत ही खराब शब्द बोल गया, वह रिश्तेदार था। उस रिश्तेदार के साथ झगड़ा करके कहाँ जाए?! मैंने उनसे कहा, 'बैठिए न अब. बैठिए न. अब वह तो भूल हो गई होगी? कभी भूल हो जाती है अपनी।' फिर चाय पिलाकर उन्हें शांत किया। फिर वे मुझे कहते हैं, 'मैं जा रहा हूँ अब।' तब मैंने कहा, 'वह पोटली लेते जाओ आपकी। यह जो आपने मुझे प्रसाद दिया था, वह मैंने चखा नहीं है। क्योंकि बिना तौल का था। वह तो मुझसे लिया नहीं जाएगा न। मुझे तो तौला हुआ माल हो तो काम का। बिना तौला हुआ माल हम लेते नहीं हैं। इसलिए आपका माल आप लेते जाओ।' इससे वे शांत हो गए। ___ शब्द तो ठंडक भी देते हैं और सुलगाते भी हैं। इसलिए इफेक्टिव हैं, और इफेक्टिव सभी वस्तुएँ निश्चेतन होती हैं। चेतन इफेक्टिव नहीं होता। वाणी बोले उसमें हर्ज नहीं है। वह तो कोडवर्ड है। वह फटता है और बोलता रहता है, उसका हमें रक्षण नहीं करना चाहिए। वाणी बोलो उसमें हर्ज नहीं है, पर 'हम सच्चे हैं' इस तरह उसका रक्षण नहीं होना चाहिए। खुद की बात का रक्षण करना, वही सबसे बड़ी हिंसा है। खद की बात सच्ची ही है, वैसा सामनेवाले के मन में बिठाने का प्रयत्न करना ही हिंसा है। _ 'हम सच्चे हैं, वही रक्षण कहलाता है और रक्षण नहीं हो तो कुछ भी नहीं है। गोले सारे फूट जाएँगे और किसीको चोट नहीं लगेगी बहुत। अहंकार का रक्षण करें, उससे बहुत चोट लगती है। प्रश्नकर्ता : आंतरिक स्थिति में, यानी अंतरविज्ञान में वह बोलना किस तरह होता है और बोलना बंद किस तरह होता है? दादाश्री : साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स हैं सारे। सामनेवाले को जितना देना हो, उतना निकलेगा हमारे लिए, और नहीं देना Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... हो तो बंद हो जाएगा। मैंने एक भाई से कहा था दादर में। वह भाई कहता है, 'दादा को बदनाम कर दूंगा', ऐसा कह रहा था। वह आया तब मैंने कहा, 'बोलो न कुछ।' उसे फिर से कहा, 'बोलो न कछ।' तब उसने तो साफ-साफ कहा, 'यहाँ तक आ रहा है पर बोला नहीं जाता।' ले बोल न?! ये बोलनेवाले आए!! यहाँ तक आ रहा है पर बोला नहीं जाता, मुझे साफ-साफ कहा, इसलिए समझ गया। एक अक्षर भी नहीं बोल सकते, मेरा हिसाब चुक गया है। फिर तेरी बिसात ही क्या है? ३२ वाणी, व्यवहार में... खाते हो। प्रश्नकर्ता : सामनेवाला व्यक्ति उल्टा बोले तब अपने ज्ञान से समाधान रहता है, पर मुख्य सवाल यह रहता है कि हमसे कडवा निकलता है, तो उस समय हम यदि इस वाक्य का आधार लें तो हमें उल्टा लायसेन्स मिल जाता है? ६. वाणी के संयोग, पर-पराधीन प्रश्नकर्ता : आप ऐसा कहते हो कि, 'स्थूल संयोग, सूक्ष्म संयोग, वाणी के संयोग पर हैं और पराधीन हैं।' तो वह समझाइए। दादाश्री : स्थूल संयोग मतलब आपको चलते-फिरते हवा मिलती है, फलाना मिलता है, मामा मिलते हैं, काका मिलते हैं, साँप मिलता है, वे सारे स्थूल संयोग हैं। किसीने बड़ी-बड़ी गालियाँ दी ऐसा भी मिलता है। यानी ये बाहर के संयोग मिलते हैं, वे सारे स्थूल संयोग हैं। सूक्ष्म संयोग मतलब भीतर मन में जरा विचार आते हैं, टेढे आते हैं. उल्टे आते हैं, खराब आते हैं, अच्छे आते हैं अथवा ऐसे विचार आते हैं कि 'अभी एक्सिडेन्ट हो जाएगा तो क्या होगा?' वे सारे सूक्ष्म संयोग। भीतर मन में सब आते ही रहते हैं। और वाणी के संयोग मतलब हम बोलते रहते हैं या कोई बोले और हम सुनें, वे सारे वाणी के संयोग! 'स्थूल संयोग, सूक्ष्म संयोग और वाणी के संयोग पर हैं और पराधीन हैं।' इतना ही वाक्य खुद की समझ में रहता हो, खुद की जागृति में रहता हो तो सामनेवाला व्यक्ति चाहे जो बोले तो भी हमें जरा भी असर नहीं होता। और यह वाक्य कल्पित नहीं है। जो एक्जेक्ट है वह कह रहा हूँ। मैं आपको ऐसा नहीं कहता हूँ कि मेरे शब्दों का मान रखकर चलो। एक्जेक्ट ऐसा ही है। हक़ीक़त आपको समझ में नहीं आने से आप मार दादाश्री : इस वाक्य का आधार ले ही नही सकते न?! उस समय तो आपको प्रतिक्रमण का आधार दिया है। सामनेवाले को दुःख हो जाए वैसा बोला गया हो तो प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। और सामनेवाला चाहे जो बोले, तब वाणी पर है और पराधीन है, इसका स्वीकार किया। इसलिए आपको सामनेवाले से दु:ख रहा ही नहीं न? अब आप खुद उल्टा बोलो, फिर उसका प्रतिक्रमण करो, इसलिए आपके बोल का आपको दुःख नहीं रहा। इसलिए इस प्रकार सारा हल आ जाता है। प्रश्नकर्ता : कई बार नहीं बोलना हो, फिर भी बोल लिया जाता है। फिर पछतावा होता है। दादाश्री : वाणी से जो कुछ बोला जाता है, उसके हम 'ज्ञाता-दृष्टा' हैं। पर जिसे वह दुःख पहुँचाती है, उसका प्रतिक्रमण 'हमें बोलनेवाले' के पास से करवाना पड़ेगा। हमें तो कोई गालियाँ सुनाए तो हम समझें कि यह 'अंबालाल पटेल' को गालियाँ दे रहा है। पुद्गल को गालियाँ दे रहा है। आत्मा को तो जान ही नहीं सकता, पहचान ही नहीं सकता न! इसलिए हम स्वीकार नहीं करते, 'हमें' छूता नहीं है। हम वीतराग रहते हैं। हमें उस पर राग-द्वेष नहीं होता। हमारे, 'ज्ञानी' के प्रयोग कैसे होते हैं कि हरएक क्रिया को 'हम' 'देखते हैं'। इसलिए मैं इस वाणी को रिकॉर्ड कहता हूँ न! यह रिकॉर्ड बोल रहा है उसे देखता रहता हूँ कि 'रिकॉर्ड क्या बज रहा है और क्या नहीं!' और जगत् के लोग तन्मयाकार हो जाते हैं। संपूर्ण निर्तन्मयाकार रहें, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ वाणी, व्यवहार में... उसे केवलज्ञान कहा है। ____ जगत् के लोग देखते हैं, वैसा ज्ञानी भी देखते हैं, पर जगत् के लोगों का देखा हुआ काम में नहीं आता। क्योंकि उनका 'बेसमेन्ट' अहंकार है। 'मैं चंदूलाल हूँ' वह उसका 'बेसमेन्ट' है। और 'अपना' 'बेसमेन्ट' 'मैं शुद्धात्मा हूँ' है। इसलिए अपना देखा हुआ केवलज्ञान के अंश में जाता है। जितने अंश से हमने देखा, जितने अंश से हमने अपने खुद को जुदा देखा, वाणी को जुदा देखा, ये 'चंदूभाई' क्या कर रहे हैं वह देखा, उतने अंश में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। हमें तो कोई गालियाँ दे तो वह हमारे ज्ञान में ही होता है, 'यह रिकॉर्ड क्या बोल रहा है' वह भी हमारे ज्ञान में ही होता है। रिकॉर्ड गलत बोला हो, वह हमारे ज्ञान में ही होता है। हमें पूरी जागृति रहा करती है। और संपूर्ण जागृति वह केवलज्ञान है। व्यवहार में लोगों को व्यवहारिक जागृति रहती है, वह तो अहंकार के मारे रहती है। पर यह तो शद्धात्मा होने के बाद की जागृति है। यह अंश केवलज्ञान की जागृति है और वहाँ से ही कल्याणकारी है। भीतर की मशीनरी को ढीला मत छोड़ना। हमें उसके ऊपर देखरेख रखनी चाहिए कि कहाँ-कहाँ घिस रहा है. क्या होता है. किसके साथ वाणी कठोर निकली। बोले उसमें हर्ज नहीं है, हमें 'देखते' रहना है कि, 'ओहोहो, चंदूभाई कठोरता से बोले!' वाणी, व्यवहार में... के ऊपर राग नहीं। अच्छा-बुरा देखने की आपको जरूरत नहीं है। क्योंकि सत्ता ही मूल अपने काबू में नहीं है। ७. सच-झूठ में वाणी खर्च हुई प्रश्नकर्ता : मस्का लगाना, वह सत्य है? झूठी हाँ में हाँ मिलाना वह? दादाश्री : वह सत्य नहीं कहलाता। मस्का लगाने जैसी वस्तु ही नहीं है। यह तो खुद की खोज है, खुद की भूल के कारण दूसरे को मस्का मारता है यह। प्रश्नकर्ता : किसीके साथ मिठास से बोलें तो उसमें फायदा है? दादाश्री : हाँ, उसे सुख लगता है! प्रश्नकर्ता : वह तो फिर पता चले तब तो बहुत दु:ख हो जाता होगा। क्योंकि, कोई बहुत मीठे बोल होते हैं, और कोई सच्चे बोल होते हैं, तो हम ऐसा कहते हैं न कि यह मीठा बोलता है, पर इससे तो दूसरा व्यक्ति भले ही खराब बोलता है पर वह अच्छा व्यक्ति है। दादाश्री : सच्चे बोल किसे कहा जाता है? एक भाई उसकी मदर के साथ सच बोला, एकदम सत्य बोला। और मदर से क्या कहता है? "आप मेरे पिताजी की पत्नी हो' कहता है, वह सत्य नहीं है? तब मदर ने क्या कहा? तेरा मुँह फिर मत दिखाना, भाई। अब तू जा यहाँ से! मुझे तेरे बाप की पत्नी बोलता है। __ इसलिए सत्य कैसा होना चाहिए? प्रिय लगे ऐसा होना चाहिए। सिर्फ प्रिय लगे वैसा हो तो भी नहीं चलेगा। वह हितकर होना चाहिए, उतने से ही नहीं चलेगा। मैं सत्य, प्रिय और हितकारी ही बोलता है, तो भी मैं अधिक बोलता रहूँ न, तो आप कहो कि, 'अब चाचा बंद हो जाओ न। अब मुझे भोजन के लिए उठने दो न।' इसलिए वह मित चाहिए सही मात्रा में चाहिए। यह कोई रेडियो नहीं है कि बोलते रहे, क्या? मतलब सत्य-प्रिय-हितकर और मित, चार गुणाकार हो तो ही सत्य कहलाता है। प्रश्नकर्ता : पर जब तक नहीं बोला जाए तब तक अच्छा न? दादाश्री : 'बोलना, नहीं बोलना' वह अपने हाथ में रहा नहीं है अब। बाहर का तो आप देखोगे वह बात अलग है, पर आपके ही अंदर का आप सारा देखते रहोगे, उस समय आप केवलज्ञान सत्ता में होओगे। पर अंश केवलज्ञान होता है, सर्वांश नहीं। अंदर खराब विचार आए उन्हें देखना, अच्छे विचार आए उन्हें देखना। खराब के ऊपर द्वेष नहीं और अच्छे Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... प्रश्नकर्ता : इस समाज में बहुत लोग झूठ बोलते हैं और चोरीलुच्चाई सब करते हैं, और बहुत अच्छी तरह रहते हैं। सच बोलते हैं, उन्हें सब तकलीफें आती हैं। तो अब कौन-सी लाइन पकड़नी चाहिए? झूठ बोलकर खुद को थोड़ी शांति रहे ऐसा करना चाहिए या फिर सच बोलना चाहिए? वाणी, व्यवहार में... ___३५ नहीं तो सिर्फ नग्न सत्य बोलें, तो वह असत्य कहलाता है। वाणी कैसी होनी चाहिए? हित-मित-प्रिय और सत्य, इन चार गुणाकारोंवाली होनी चाहिए। और दूसरी सब असत्य हैं। व्यवहार वाणी में यह नियम लागू होता है। इसमें तो ज्ञानी का ही काम है। चारों ही गुणाकारोंवाली वाणी सिर्फ 'ज्ञानी पुरुष' के पास ही होती है. सामनेवाले के हित के लिए ही होती है, थोड़ी भी खुद के हित के लिए वाणी नहीं होती है। ज्ञानी' को 'पोतापणं' (मैं हूँ और मेरा है, ऐसा आरोपण, मेरापन) होता ही नहीं है, यदि 'पोतापणुं' हो तो वह ज्ञानी ही नहीं होते है। सत्य किसे कहा जाता है? किसी जीव को वाणी से दु:ख नहीं हो, वर्तन से दःख नहीं हो और मन से भी उसके लिए खराब विचार नहीं किया जाए। वह सबसे बड़ा सत्य है। सबसे बड़ा सिद्धांत है। यह रियल सत्य नहीं है। यह अंतिम व्यवहार सत्य है। प्रश्नकर्ता : मनुष्य झूठ किसलिए बोलता है? दादाश्री : मेरे पास कोई झूठ नहीं बोलता। मेरे पास तो इतना तक बोलते हैं कि, दस-बारह वर्ष की उम्र की लड़की हो और आज पचास वर्ष की हुई हो, उसने बारह वर्ष से लेकर पचास वर्ष तक उसने क्याक्या किया वह सबकुछ मुझे स्पष्ट लिखकर दे देती है। नहीं तो इस दुनिया में हुआ ही नहीं, ऐसा। कोई स्त्री खुद का ज़ाहिर करे ऐसा हुआ नहीं है। ऐसी हजारों स्त्रियाँ मेरे पास आती हैं और मैं उनके पाप धो देता हूँ। प्रश्नकर्ता : मनुष्य बिना कारण झूठ बोलने के लिए प्रेरित होता है। उसके पीछे कौन-सा कारण काम करता होगा? दादाश्री: क्रोध-मान-माया-लोभ के कारण करते हैं वे। कोई भी वस्तु प्राप्त करनी है, या तो मान प्राप्त करना है या लक्ष्मी प्राप्त करनी है, कुछ तो चाहिए। उसके लिए झूठ बोलता है या तो भय है, भय के मारे झूठ बोलता है। अंदर छुपा-छुपा भय है कि 'कोई मुझे क्या कहेगा?' ऐसा कुछ भी भय होता है। फिर धीरे-धीरे झूठ की आदत ही पड़ जाती है। फिर भय नहीं होता तो भी झूठ बोल लेता है। दादाश्री : ऐसा है न, पहले झूठ बोला था उसका यह फल आया है, यहाँ चख रहे हो आराम से (!) दूसरा थोड़ा सच बोला था, उसका फल उसे मिला है। अब इस समय झूठ बोलता है, तो उसका फल उसे मिलेगा। आप सच बोलोगे तो उसका फल मिलेगा। यह तो फल चखते हैं। न्याय है, बिलकुल न्याय है। आज एक व्यक्ति की परीक्षा का रिजल्ट आया और वह पास हो गया। और हम नापास हुए। पास होनेवाला व्यक्ति आज भटकता रहता है, पर परीक्षा देते समय करेक्ट दी होती है। इसलिए यह सब जो आता है, वह फल आता है। उस फल को शांतिपूर्वक भोग लेना उसका नाम पुरुषार्थ। प्रश्नकर्ता : कितने ही झूठ बोलें तो भी सत्य में खप जाता है और कितने ही सच बोलें तो भी झूठ में खपता है। यह पज़ल (पहेली) क्या है?! दादाश्री : वह उनके पाप और पुण्य के आधार पर होता है। उनके पाप का उदय हो तो वे सच बोलते हैं तो भी झूठ में चला जाता है। जब पुण्य का उदय हो तब झूठ बोले तो भी लोग उसे सच स्वीकारते हैं, चाहे जैसा झूठा करे तो भी चल जाता है। प्रश्नकर्ता : तो उसे कोई नुकसान नहीं होता? दादाश्री : नुकसान तो है, पर अगले भव का। इस भव में तो उसे पिछले जन्म का फल मिला। और यह झूठ बोला न, उसका फल उसे अगले भव में मिलेगा। अभी यह उसने बीज बोया। बाक़ी, यह कोई अंधेर नगरी नहीं है कि चाहे जैसा चल जाएगा! Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... ३७ प्रश्नकर्ता : जान-बूझकर गलत करें और फिर प्रतिक्रमण कर लूँगा कहें, तो वह चलेगा? दादाश्री : नहीं, जान-बूझकर मत करना। पर गलत हो जाए तो प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। प्रश्नकर्ता : दूसरों के भले के लिए झूठ बोलना, वह पाप माना जाएगा? दादाश्री : मूल तो झूठ बोलना वही पाप माना जाता है। तो दूसरों के भले के लिए बोलें तो एक तरफ पुण्य बंधा और एक तरफ पाप बंधा। इसलिए इसमें थोड़ा-बहुत तो पाप रहता है। झूठ बोलने से क्या नुकसान होता होगा? विश्वास उठ जाता है अपने पर से। और विश्वास उठ गया मतलब मनुष्य की क़ीमत खतम! प्रश्नकर्ता : और झूठ पकड़ा जाए तब क्या दशा होती है? दादाश्री : हमें कहना चाहिए न कि, 'पकड़ा गया हमारा' और मैं तो कह दूँ कि 'भाई, मैं पकड़ा गया।' हर्ज क्या है? फिर वह भी हँसे और हम भी हँसे। उससे वह समझ जाता है कि इसमें कुछ लेना-देना नहीं है या नुकसान हो वैसा नहीं है। प्रश्नकर्ता : मान लो कि हमारा झूठ आपने पकड़ लिया, तो फिर आपको क्या होता है? दादाश्री : कुछ भी नहीं होता। बहत बार मैं झठ पकडता हैं। मैं जानता हूँ कि ऐसा ही होता है। उससे अधिक आशा हम किस तरह से रखें? __अनंत जन्मों से झूठ ही बोले हैं। सच बोले ही कब हैं? हम पूछे, 'कहाँ गए थे?''रास्ते में घूमने गया था ऐसा कहता है, और गया होता है सिनेमा में। हाँ, पर उसकी तो माफ़ी माँग लेनी चाहिए। प्रश्नकर्ता : परमार्थ के काम के लिए थोड़ा झूठ बोलें तो उसका वाणी, व्यवहार में... दोष लगता है? दादाश्री : परमार्थ मतलब आत्मा हेतु जो कुछ भी किया जाए, उसका दोष नहीं लगता। और देह के लिए जो कुछ भी किया जाए, गलत किया जाए तो दोष लगता है और अच्छा किया जाए तो गुण लगता है। आत्महेतु हो न, उसके जो-जो कार्य हैं, उनमें कोई दोष नहीं है। सामनेवाले को हमारे निमित्त से दु:ख पड़े तो उसका दोष लगता है! __ झूठ बोलकर भी आत्मा का करते होंगे तो हर्ज नहीं है और सच बोलकर भी देह का हित करोगे तो हर्ज है। सच बोलकर भौतिक का हित करोगे तो भी हर्ज है। पर झूठ बोलकर आत्मा के लिए करोगे न, तो हितकारी है। प्रश्नकर्ता : किसीका अच्छा काम करने के लिए हम झूठ बोलें, तो किसे दोष लगेगा? ऐसा किया जा सकता है? दादाश्री : झूठ बोले उसे दोष लगता है। प्रश्नकर्ता : कोई झूठ बोलने के लिए दबाव डाले तो? दूसरे किसीका अच्छा हो रहा है इसलिए आप झूठ बोलो, ऐसा कोई दबाव डाले तो? दादाश्री : तो ऐसा कहना चाहिए कि, 'भाई, मैं आपके दबाव से बोलूँगा। मैं तो तोता हूँ। यह तो आपके दबाव से तोता होकर बोलूँगा। बाक़ी, मैं नहीं बोलता।' फिर तोता बोले उस तरह से बोलना। आप खुद मत बोल उठना। तोता होकर बोलना। हम कहें 'आया राम' तो तोता कहेगा, 'आया राम।' ऐसे बोलना चाहिए। मुझे 'ज्ञान' नहीं हुआ था न, तब कोर्ट में एक बार जाना हुआ था। गवाही देनी थी। तब वकील कहता है कि, 'यह मैं आपको कहूँ वैसा आपको बोलना है।' मैंने कहा, 'नहीं भाई। मैं जानता हूँ उतना बोलूँगा। मैं कोई आपका कहा हुआ बोलनेवाला नहीं हैं।' तब वह कहता है, 'मझे यहाँ कहाँ आपके लिए खड़ा किया? मैं झूठा दिलूँगा। मेरी आबरू जाएगी। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... ऐसे गवाह मिलें तो हमारा तो पूरा केस ही उड़ जाए।' तब मैंने कहा, 'इसका उपाय क्या है?' तब वकील कहता है, 'हम कहें उतना बोलना है।' फिर मैंने कहा, 'कल सोचकर बताऊँगा।' फिर रात को अंदर से जवाब मिला, कि अपने तोता बन जाओ। वकील के कहने से कह रहा हूँ, वैसा भाव रहना चाहिए, और फिर बोलो। बाक़ी, किसीके लिए अच्छा काम करते हो तो हो सके तब तक झठ नहीं बोलना चाहिए। किसीके अच्छे के लिए चोरी नहीं करनी चाहिए। किसीके अच्छे के लिए हिंसा नहीं करनी चाहिए। सब अपनी ही जोखिमदारी है। झूठ बोलने की आपकी इच्छा है अंदर? थोड़ी-बहुत भी? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : फिर भी बोल लिया जाता है, वह हक़ीक़त है न! तो जब झूठ बोला जाए और आपको पता चले कि यह झूठ बोला गया कि तुरन्त 'दादा' के पास माफ़ी माँग लेना कि 'दादा, मुझे झूठ नहीं बोलना है, फिर भी झूठ बोल लिया गया। मझे माफ़ करो। अब फिर झूठ नहीं बोलूँगा।' और फिर भी यदि ऐसा हो जाए तो परेशान नहीं रहना है। माफ़ी माँगते रहना है। उससे उसके गुनाह की वहाँ फिर नोंध नहीं होगी। माफ़ी माँगी मतलब नोंध नहीं होगा। वाणी, व्यवहार में... दादाश्री : बेशक! पर झूठ बोले हों न, उससे तो झूठ बोलने के भाव करते हो, वह उससे भी बढ़कर कर्म कहलाता है। झूठ बोलना तो मानो कर्मफल है। झूठ बोलने के भाव ही, झूठ बोलने का हमारा निश्चय, उससे कर्मबंधन होता है। आपकी समझ में आया? यह वाक्य कुछ हेल्प करेगा आपको? क्या हेल्प करेगा? प्रश्नकर्ता : झूठ बोलना बंद कर देना चाहिए। दादाश्री : नहीं, झूठ बोलने का अभिप्राय ही छोड़ देना चाहिए और झूठ बोला जाए तो पश्चाताप करना चाहिए कि, 'क्या करूँ?! ऐसे झूठ नहीं बोलना चाहिए।' पर झूठ बोला जाना वह बंद नहीं हो सकेगा। पर वह अभिप्राय बंद हो जाएगा। 'अब आज से झूठ नहीं बोलूँगा, झूठ बोलना महापाप है, महा दुःखदायी है और झूठ बोलना ही बंधन है।' ऐसा यदि आपका अभिप्राय हो गया तो आपके झूठ बोलने के पाप बंद हो जाएँगे। और पूर्व में जब तक यह भाव बंद नहीं किया था, तब तक उसके रिएक्शन (प्रतिक्रियाएँ) हैं, उतने बाकी रहेंगे। उतना हिसाब आपको आएगा। आपको फिर उतना झूठ अनिवार्य रूप से बोलना पड़ेगा, तब उसका पश्चाताप कर लेना। अब पश्चाताप करते हो, फिर भी जो झूठ बोले, तो उस कर्मफल का भी फल तो आएगा और फिर उसे भुगतना ही पड़ेगा। तब लोग आपके घर से बाहर निकलकर आपकी बदनामी करेंगे कि, 'क्या, ये चंदूभाई, पढ़े लिखे आदमी, ऐसा झूठ बोले? यह उनकी योग्यता है?!' अर्थात् बदनामी का फल भुगतना पड़ेगा फिर, पश्चाताप करोगे तो भी। और यदि पहले से वह पानी बंद कर दिया हो, 'कॉजेज' ही बंद कर दिए जाएँ, तब फिर 'कॉज़ेज़' का फल और उसका भी फल नहीं होगा। इसलिए हम क्या कहते हैं? झूठ बोला गया पर 'ऐसा नहीं बोलना चाहिए' इस तरह से उसका तू विरोधी है न? हाँ, तो यह झूठ बोलना तुझे पसंद नहीं है, ऐसा निश्चय हो गया कहलाएगा। झूठ बोलने का तेरा अभिप्राय नहीं है न, इसलिए तेरी जिम्मेदारी का 'एन्ड' (अंत) आ जाता प्रश्नकर्ता : हम हररोज़ बातें करते हैं कि यह गलत है, नहीं बोलना चाहिए था, फिर भी वह क्यों हो जाता है? नहीं करना है फिर भी क्यों हो जाता है? दादाश्री : ज़रूरत से अधिक अक्ल अंदर भरकर लाए हैं इसलिए। हमने एक भी दिन कभी किसीको कुछ कहा नहीं है कि ऐसा नहीं करना चाहिए। यदि कहा हो, तो भी सतर्क हो जाते हैं उस घड़ी। प्रश्नकर्ता : हम झूठ बोले हों, वह भी कर्म ही बांधा कहा जाएगा न? Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... प्रश्नकर्ता : पर जिसे झूठ बोलने की आदत हो गई है, वह क्या करे? दादाश्री : उसे तो फिर साथ-साथ प्रतिक्रमण करने की आदत डालनी पड़ेगी। और प्रतिक्रमण करे, तब फिर जोखिमदारी हमारी है। इसलिए अभिप्राय बदलो! झूठ बोलना वह जीवन के अंत समान है, जीवन का अंत लाना और झूठ बोलना दोनों समान हैं, ऐसा 'डिसाइड' (निश्चित) करना पड़ेगा। और फिर सच की पूंछ मत पकड़ना। प्रश्नकर्ता : बोलने में जन्म से ही तकलीफ़ है। दादाश्री : पिछले अवतार में जीभ लड़ाई थी न, हर जगह गालियाँ दी हों न, उसकी जीभ चली जाती है फिर। फिर क्या होगा? बोलने में कुछ भी बाकी रखते हैं? कर्म कम होंगे तो जीभ फिर से खुल जाएगी वापिस। पाँच-सात साल के बाद, वैसा कुछ भी नहीं रहेगा। वाणी, व्यवहार में... दादाश्री : एक तो, उसे गरज होती है, गरजवाला सहन करता है। दूसरा क्लेश नहीं हो इसलिए सहन करता है। तीसरा आबरू नहीं जाए, इसलिए सहन कर लेता है। कुत्ता भौंके परन्तु हमें नहीं भौंकना है, ऐसे किसी भी कारण से चला लेता है, निबाह लेते हैं लोग। ८. दुःखदायी वाणी के करने चाहिए प्रतिक्रमण भगवान के यहाँ सत्य और असत्य, दोनों होते ही नहीं हैं। यह तो यहाँ समाजव्यवस्था है। हिन्दुओं का सत्य, मुसलमानों का असत्य हो जाता है। और मुसलमानों का सत्य, वह हिन्दुओं का असत्य हो जाता है। यह सारी समाज-व्यवस्था है। भगवान के वहाँ सच्चा-झूठा कुछ होता ही नहीं। भगवान तो इतना कहते हैं कि, 'किसीको दु:ख हो तो हमें प्रतिक्रमण करना चाहिए।' दु:ख नहीं होना चाहिए अपने से। आप 'चंदूभाई' थे, वह इस दुनिया में सच है। बाक़ी, भगवान के वहाँ तो वह 'चंदूभाई' ही नहीं है। यह सत्य भगवान के वहाँ असत्य है। संसार चले, संसार छुए नहीं, बाधक नहीं हो और काम हो जाए, वैसा है। सिर्फ हमारी आज्ञा का आराधन करना है। 'चंदूभाई' झूठ बोलें, तो भी अपने यहाँ हर्ज नहीं है। झूठ बोलें तो सामनेवाले को नुकसान हुआ। तो हम 'चंदभाई' से कहें, 'प्रतिक्रमण कर लो।' झठ बोलने का प्रकृति गुण है, इसलिए बोले बगैर रहेगा नहीं। झूठ बोलने के लिए मैं आपत्ति नहीं उठाता। मैं झूठ बोलने के बाद प्रतिक्रमण नहीं करो तो आपत्ति उठाता हूँ। झूठ बोलें और प्रतिक्रमण के भाव हों, उस समय जो ध्यान बरतता है, वह धर्मध्यान होता है। लोग धर्मध्यान क्या है, उसे ढूंढते हैं। झूठ बोल लिया जाए, तब 'दादा' के पास माफ़ी माँग लेनी चाहिए और फिर झूठ नहीं बोला जाए, वैसी शक्तियाँ माँगनी चाहिए। प्रश्नकर्ता : मानों कि जीभ से कहा, तो उसे मेरी तरफ से तो दुःख हो गया कहलाएगा न? दादाश्री : हाँ, वह दुःख तो अपनी इच्छा के विरुद्ध हुआ है न, इसलिए हमें प्रतिक्रमण करना है। यही उसका हिसाब होगा, जो चुक गया। खोटी वाणी बोलने के कारण यह जीभ चली गई न! जीभ का जितना दुरुपयोग किया उतनी जीभ चली जाती है। प्रश्नकर्ता : मेरा स्वभाव, मेरे वचन कठोर हैं। किसीको भी ठेस पहुँचा देते हैं, दुःख हो जाता है। मुझे ऐसा नहीं है कि मैं उसे दुःख पहुँचाने के लिए बोल रहा हूँ। दादाश्री : दुःख हो वैसा नहीं बोलना चाहिए। किसी जीव को दुःख हो, वैसी वाणी बोलना, वह बहुत बड़ा गुनाह है। प्रश्नकर्ता : यह ऐसी वाणी होने का कारण क्या है? दादाश्री : रौब जमाने के लिए, दूसरों पर रौब जम जाए इसलिए। प्रश्नकर्ता : हम रौब जमाने के लिए कठोरता से बोले और सामनेवाला व्यक्ति सहन कर लेता है। वह सहन करता है, वह किस आधार पर सहन करता है? Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ वाणी, व्यवहार में... वाणी, व्यवहार में... प्रश्नकर्ता : हम कुछ कहें तो उसे मन में खराब भी बहुत लगेगा न? दादाश्री : हाँ, वह तो सब खराब लगेगा। गलत हुआ हो तो बुरा लगेगा न। हिसाब चुकाना पड़ेगा, वह तो चुकाना ही पड़ेगा न। उसका दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। प्रश्नकर्ता : अंकुश नहीं रहता, इसलिए वाणी द्वारा निकल जाता दादाश्री : हाँ, वह तो निकल जाता है। पर निकल जाए उस पर हमें प्रतिक्रमण करना है, बस दूसरा कुछ नहीं। पश्चाताप करके, और फिर से 'ऐसा नहीं करूँगा', ऐसा निश्चय करना चाहिए। फिर फरसत मिले तब उसके लिए बार-बार प्रतिक्रमण करते ही रहना, ताकि सब नरम पड़ जाए। जो-जो कठिन फाइलें हैं, उतनी ही नरम करनी है, सिर्फ दो-चार फाइलें कठिन होती हैं, अधिक नहीं होती न! प्रश्नकर्ता : अपनी इच्छा नहीं हो फिर भी क्लेश हो जाता है, वाणी खराब निकले तो क्या करें? दादाश्री : वह अंतिम स्टेप्स (सीढ़ियों) पर है। जब रास्ता पूरा होने आया हो न, तब हमें भाव नहीं हो तो भी गलत हो जाता है। तो हमें वहाँ पर क्या करना चाहिए कि पश्चाताप लें तो मिट जाएगा बस । गलत हो जाए तो इतना ही उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। वह भी जब वह कार्य पूरा होने आया तब अंदर खराब करने का भाव नहीं होता है और खराब कार्य हो जाता है। नहीं तो वह कार्य अभी अधूरा होता है, हमें उल्टा करने का भाव भी होता है और उल्टा कार्य होता भी है, दोनों होते हैं। प्रश्नकर्ता : हेतु अच्छा है तो फिर प्रतिक्रमण किसलिए करें? दादाश्री : प्रतिक्रमण तो करना पड़ेगा, सामनेवाले को दुःख हुआ न। और व्यवहार में लोग कहेंगे न, देखो यह स्त्री कैसे पति को डाँटती है। फिर प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। जो आँख से दिखे, उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए। अंदर हेतु आपका सोने का हो, पर किस काम का? वह हेतु काम नहीं आएगा। हेतु शुद्ध सोने का हो तो भी हमें प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। भूल हुई कि प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। इन सभी महात्माओं की इच्छा है, अब जगत् कल्याण करने की भावना है। हेतु अच्छा है, पर तो भी नहीं चलेगा। प्रतिक्रमण तो पहले करना पड़ेगा। कपड़ों पर दाग़ पड़े तो धो देते हो न? वैसे ये कपड़े के ऊपर के दाग़ हैं। यह 'हमारा' टेपरिकॉर्डर बजता है, उसमें कुछ भूलचूक हो जाए तो हमें तुरन्त ही उसका पछतावा ले लेना होता है। नहीं तो नहीं चलता। टेपरिकॉर्डर की तरह निकलता है, यानी हमारी वाणी बिना मालिकी की है, तो भी हम पर जिम्मेदारी आती है। लोग तो कहेंगे न कि, 'पर साहब, टेप तो आपकी ही है न?' ऐसा कहेंगे या नहीं कहेंगे? क्या दसरे की टेप थी? इसलिए वे शब्द हमें धोने पड़ते हैं। नहीं बोल सकते उल्टे शब्द। प्रतिक्रमण तो अंतिम साइन्स है। इसलिए आपके साथ मझसे कठोरता से बोल लिया गया हो, आपको बहुत दुःख नहीं हुआ हो फिर भी मुझे समझ लेना चाहिए कि यह मुझसे कठोरता से बोला ही नहीं जा सकता। इसलिए इस ज्ञान के आधार पर अपनी भूल पता चलती है। इसलिए मुझे आपके नाम का प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : अर्थात् वाणी बोलते समय, हमें अपने व्यू पोइन्ट से करेक्ट लग रहा हो, पर सामनेवाले को उसके व्यू पोइन्ट से करेक्ट नहीं लग रहा हो तब? दादाश्री : वह सारी वाणी बिलकुल गलत है। सामनेवाले को फिट हो जाए, वह करेक्ट वाणी कहलाती है ! सामनेवाले को फिट हो जाए वैसी हमें वाणी बोलनी चाहिए। प्रश्नकर्ता : हम सामनेवाले से कुछ कह दें, अपने मन में अंदर कुछ भी नहीं हो उसके बावजूद भी हम उसे कहें तो उसे ऐसा लगता है कि 'यह ठीक नहीं कह रहे हैं, गलत है।' तो उसे अतिक्रमण कहा जाता है? Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... दादाश्री : उसे दुःख होता हो तो हमें प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। हमें उसमें क्या मेहनत लगनेवाली है? किसीको द:खी करके हम सखी नहीं हो सकते। वाणी, व्यवहार में... अच्छा, ऐसा नहीं हो तो अच्छा।' हम ऐसा कह सकते हैं। पर हम उसके बॉस (ऊपरी) हों, उस तरह से बात करते हैं न, इसलिए बुरा लगता है। खराब शब्द हों, वे विनय के साथ कहने चाहिए। प्रश्नकर्ता : व्यवहार में कोई गलत कर रहा हो, उसे टोकना पड़ता है। तो वह करना चाहिए या नहीं? दादाश्री : व्यवहार में टोकना पड़ता है, पर वह अहंकार सहित होता है। इसलिए उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रश्नकर्ता : टोके नहीं तो वह सिर पर चढ़ेगा? दादाश्री : टोकना तो पड़ता है, पर कहना आना चाहिए। कहना नहीं आता, व्यवहार नहीं आता, इसलिए अहंकार सहित टोकते हैं। इसलिए बाद में उसका प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। आप सामनेवाले को टोको, तब सामनेवाले को बुरा तो लगेगा, पर उसका प्रतिक्रमण करते रहोगे तो छह महीने में, बारह महीने में वाणी ऐसी निकलेगी कि सामनेवाले को मीठी लगेगी। प्रश्नकर्ता : हमें कितनी ही बार सामनेवाले के हित के लिए उसे टोकना पड़ता है, रोकना पड़ता है। तो उस समय उसे दुःख पहुँचे तो? दादाश्री : हाँ, कहने का अधिकार है, पर कहना आना चाहिए। यह तो भाई आया कि उसे देखते ही कहेंगे कि, 'तू ऐसा है और तू वैसा है।' तब वहाँ अतिक्रमण हुआ कहलाएगा। सामनेवाले को दःख हो जाए वैसा हो, तो हमें कहना चाहिए, 'हे चंदूभाई प्रतिक्रमण करो। अतिक्रमण क्यों किया? फिर ऐसा नहीं बोलूंगा और यह बोला उसका पश्चाताप करता हूँ।' इतना ही प्रतिक्रमण करना पड़ता है। प्रश्नकर्ता : पर वे गलत बोलते हों या गलत करते हों तो भी हमें नहीं बोलना चाहिए? दादाश्री : बोलना चाहिए। ऐसा कह सकते हैं, 'ऐसा नहीं हो तो प्रश्नकर्ता : बुरा शब्द बोलते समय विनय रह सकता है? दादाश्री : वह रह सकता है, वही विज्ञान कहलाता है। क्योंकि 'ड्रामेटिक' (नाटकीय) है न! होता है लक्ष्मीचंद और कहता है, 'मैं भर्तृहरि राजा हूँ, इस रानी का पति हूँ, फिर भिक्षा दे दे मैया पिंगला।' कहकर आँखों में से पानी टपकाता है। तब, 'अरे, तू तो लक्ष्मीचंद है न? तू सचमुच रोता है?' तब कहेगा, 'मैं क्यों सचमुच रोऊँ? यह तो मुझे अभिनय करना ही पड़ेगा, नहीं तो मेरी तनख्वाह काट लेंगे।' उस तरह से अभिनय करना है। ज्ञान मिलने के बाद यह तो नाटक है। प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करने हों, वे मन से करने हैं या पढ़कर अथवा बोलकर? दादाश्री : नहीं। मन से ही। मन से करें, बोलकर करें, चाहे जिस तरह कि मेरा उसके प्रति जो दोष हुआ है, उसकी क्षमा माँगता हूँ। वह मन में बोलें तो भी चलेगा। मानसिक अटेक हुआ, इसलिए उसके प्रतिक्रमण करने हैं बस। प्रश्नकर्ता : एक खराब मौका आया हो, सामनेवाला व्यक्ति आपके लिए खराब बोल रहा हो या कर रहा हो, तो उसके रिएक्शन से हमें अंदर जो गुस्सा आता है, वह जीभ से शब्द निकलवा देता है, पर मन अंदर से कहता है कि, यह गलत है। तो बोल देता है उसका दोष अधिक है या मन से करे हुए के दोष अधिक हैं? दादाश्री : जीभ से करें न, वह झगड़ा अभी के अभी हिसाब चुकाकर चला जाएगा और मन से किया हुआ झगड़ा आगे बढ़ेगा। जीभ से करें न, वह तो हम सामनेवाले से कहें, तो वह वापिस लौटा देता है। तुरन्त उसका फल मिल जाता है। और मन से करे तो उसका फल तो Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ वाणी, व्यवहार में... वह फल पकेगा, उसका अभी बीज बोया है। इसलिए कॉजेज़ कहलाते हैं। यानी कॉजेज नहीं पड़ें, उसके लिए मन से हो गया हो तो मन से प्रतिक्रमण करना चाहिए। ९. विग्रह, पति-पत्नी में मनुष्य होकर प्राप्त संसार में दखल नहीं करे, तो संसार इतना सरल और सीधा चलता रहेगा। पर यह प्राप्त संसार में दख़ल ही करता रहता है। जागा तब से ही दखल। और पत्नी भी जागे तब से दखल ही करती रहती है, कि इस बच्चे को जरा झूला भी नहीं झुलाते। देखो यह कब से रो रहा है ! तब वापिस पति कहेगा, 'तेरे पेट में था तब तक क्या मैं उसे झूला डालने आता था! तेरे पेट में से बाहर निकला तो तुझे रखना है', कहेगा। वह सीधी न रहे तो क्या करे फिर? वाणी, व्यवहार में... दादाश्री : ऐसे वाणी इतनी मीठी बोलते हैं कि कहने से पहले ही वह समझ जाए। प्रश्नकर्ता : यह कठोर वाणी-कर्कश वाणी हो, उसे क्या करें? दादाश्री : कर्कश वाणी, वही दख़ल होती है! कर्कश वाणी हो तो उसमें इतने शब्द जोड़ने पड़ेंगे कि 'मैं विनती करता हूँ, इतना करना।' 'मैं विनती...' इतना शब्द जोड़कर कहो। प्रश्नकर्ता : अब हम ऐसा कहें कि, 'ए..य.., यह थाली यहाँ से उठा।' और हम धीरे से कहें कि 'तू यह थाली यहाँ से उठा ले न।' अर्थात् वह जो बोलने का प्रेशर है.... दादाश्री : वह दख़ल नहीं कहलाता। अब उसके ऊपर रौब मारो तो दख़ल कहलाएगा। प्रश्नकर्ता : यानी धीरे से बोलना है। दादाश्री : नहीं, वह तो धीरे से बोलो तो चलेगा। पर वह तो धीरे से बोले तो भी दखल कर देता है। इसलिए आपको कहना है, 'मैं विनती करता हूँ, तू इतना करना न!' उसमें शब्द जोड़ना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : कईबार घर में बड़ी लड़ाई हो जाती है, तो क्या करें? दादाश्री : समझदार व्यक्ति हो न तो लाख रुपये दें, तो भी झगड़ा नहीं करे। और यह तो बिना पैसे के झगड़ा करते हैं। तो वे अनाड़ी नहीं तो क्या है? भगवान महावीर को कर्म खपाने के लिए साठ मील चलकर अनाड़ी क्षेत्र में जाना पड़ा था। और आज के लोग पुण्यशाली हैं कि घर बैठे अनाड़ी क्षेत्र है! कैसे धन्यभाग्य! यह तो अत्यंत लाभदायी है, कर्म खपाने के लिए, यदि सीधा रहे तो। घर में सामनेवाला पूछे, सलाह माँगे, तब ही जवाब देना चाहिए। बिना पूछे सलाह देने बैठ जाओ और उसे भगवान ने अहंकार कहा है। पति पूछे कि, 'ये प्याले कहाँ रखने हैं?' तो पत्नी जवाब देती है कि, प्रश्नकर्ता : दख़ल नहीं करो कहा है आपने, तो वह सब जैसे हो वैसे पड़े रहने देना चाहिए? घर में बहुत लोग हों, तो भी? दादाश्री : पड़े नहीं रखना चाहिए और दखल भी नहीं करनी चाहिए। प्रश्नकर्ता : ऐसा किस तरह से होगा? दादाश्री: भला दखल तो होती होगी? दखल तो अहंकार का पागलपन कहलाता है! प्रश्नकर्ता : कोई कार्य हो तो कह सकते हैं घर में कि इतना करना, इस तरह? दादाश्री : पर कहने-कहने में फर्क होता है। प्रश्नकर्ता : बिना इमोशन के कहना है। इमोशनल नहीं हों और कहें ऐसा? Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... 'फलानी जगह पर रखो।' तो हमें वहाँ पर रख देने चाहिए। उसके बदले वह कहे कि, 'तुझे अक्कल नहीं, यहाँ वापिस कहाँ रखने को तू कहती है?' तब फिर पत्नी कहेगी कि, 'अक्कल नहीं तभी तो मैंने आपको ऐसा कहा, अब आपकी अक्कल से रखो।' इसका कब अंत आए? ये संयोगों के टकराव हैं सिर्फ! प्रश्नकर्ता : पर सबकी बुद्धि थोडे ही समान होती है दादा! विचार समान नहीं होते। हम अच्छा करें तब भी कोई समझता नहीं, उसका क्या करें? दादाश्री : ऐसा कुछ भी नहीं है। सारे ही विचार समझ में आते हैं। पर सब खुद अपने आप को ऐसा मानते हैं कि मेरे विचार सच्चे हैं ऐसा। उसी प्रकार बाक़ी सभी के विचार गलत हैं। सोचना नहीं आता है। भान ही नहीं है वहाँ पर। मनुष्य की तरह भी भान नहीं है। ये तो मन में मान बैठे हैं कि मैं बी.ए. और ग्रेज्युएट हो गया। पर मनुष्य की तरह भान हो तो क्लेश ही नहीं हो। सब जगह खुद एडजेस्टेबल हो जाए। ये दरवाज़े खड़कें, तो भी अच्छा नहीं लगता हमें, दरवाजा हवा से टकराए तो आपको अच्छा लगता है? वाणी, व्यवहार में... उसके ऊपर रौब मारना है। इस तरह पतिपन बताना है। फिर बुढ़ापे में आपको बहुत अच्छा (!) देगी। पति कछ माँगे तो, 'ऐसे क्या कच-कच करते रहते हो, सोए पड़े रहो न', कहेगी। इसलिए जान-बूझकर पड़े रहना पड़ता है। यानी आबरू ही जाती है न। इसके इच्छा तो मर्यादा में रहो। घर पर झगड़ा-वगड़ा क्यों करते हो? लोगों से कहो, समझाओ कि घर में झगड़े मत करना। बाहर जाकर करना और बहनों, तुम भी मत करना हाँ! प्रश्नकर्ता : वाणी से कुछ भी क्लेश नहीं होता। पर मन में क्लेश उत्पन्न हुआ हो, वाणी से नहीं कहा हो, पर मन में बहुत होता है, तो उसे क्लेश रहित घर कहना चाहिए? दादाश्री : वह और अधिक क्लेश कहलाता है। मन बेचैनी का अनुभव करे उस समय क्लेश होता ही है और बाद में हमें कहेगा. 'मझे चैन नहीं पड़ता।' वह क्लेश की निशानी। हल्के प्रकार का हो या भारी प्रकार का। भारी प्रकार के क्लेश तो ऐसे होते हैं कि हार्ट भी फेल हो जाता है। कितने तो ऐसा बोल बोलते हैं कि हार्ट तरन्त खाली हो जाता है। सामनेवाले को घर खाली ही करना पड़ता है, घर का मालिक आ जाए, फिर!! प्रश्नकर्ता : किसीने जान-बूझकर कोई वस्तु फेंक दी तो वहाँ पर कौन-सा एडजस्टमेन्ट लेना चाहिए? दादाश्री : वह तो फेंक दिया, पर बेटा फेंक दे तो भी हमें 'देखते' रहना है। बाप बेटे को फेंक दे तो हमें देखते रहना है। तब क्या हमें पति को फेंक देना चाहिए? एक को तो अस्पताल भेजना पड़ा। अब वापिस दो को अस्पताल में भेजना है?! और फिर जब उसे मौका मिलेगा तब वह हमें पछाड़ेगा। फिर तीसरे को अस्पताल जाना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : तो फिर कुछ कहना ही नहीं चाहिए? दादाश्री : कहो, पर सम्यक् कहना, यदि बोलना आए तो। नहीं तो कुत्ते की तरह भौंकते रहने का अर्थ क्या है? इसलिए सम्यक् कहना। प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : तो फिर मनुष्य झगड़ें तो कैसे अच्छा लगेगा? कुत्ते झगड़ते हों तो भी अच्छा नहीं लगता हमें। यह तो कर्म के उदय से झगड़े चलते रहते हैं, पर जीभ से उल्टा बोलना बंद करो। बात को पेट में ही रखो, घर में या बाहर बोलना बंद करो। कई स्त्रियाँ कहती हैं, 'दो धौल लगाओ तो अच्छा, पर ये आप जो बोलते हो न तो मेरी छाती में घाव लगते हैं!' अब लो, छूता नहीं और कैसे घाव लगते हैं! खुद टेढ़ा है मुआ। अब रास्ते में ज़रा छप्पर पर से एक इतना पत्थर का टुकड़ा गिरे, खून निकले, वहाँ क्यों नहीं बोलता? यह तो जान-बूझकर Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... प्रश्नकर्ता : सम्यक् मतलब किस प्रकार का? दादाश्री : ओहोहो! आपने इस बच्चे को क्यों फेंका? क्या कारण है उसका? तब वह कहेगा कि, जान-बूझकर मैं फेंकूँगा क्या? वह तो मेरे हाथ में से छूट गया और गिर गया। प्रश्नकर्ता : वह तो उसने गलत कहा न? दादाश्री : वह झूठ बोले वह हमें नहीं देखना है। झूठ बोले या सच बोले वह उसके अधीन है। वह अपने अधीन नहीं है। वह उसकी मर्जी में जैसा आए, वैसा करेगा। उसे झूठ बोलना हो या हमें खतम करना हो वह उसके ताबे में है। रात को हमारी मटकी में जहर डाल दे तो हम तो खतम ही हो जाएंगे न! इसलिए अपने हाथ में जो नहीं है, वह हमें नहीं देखना है। सम्यक् कहना आए तो काम का है कि, 'भाई, इसमें आपको क्या फायदा हुआ?' तो वह अपने आप कबल करेगा। सम्यक नहीं कहते और आप पाँच सेर का दो तो सामनेवाला दस सेर का लौटाएगा! प्रश्नकर्ता : कहना नहीं आए तो फिर क्या करना चाहिए? चुप बैठना चाहिए? दादाश्री : मौन रहना और देखते रहना कि 'क्या होता है?' सिनेमा में बच्चों को पटकते हैं, तब क्या करते हैं हम? कहने का अधिकार है सभी को, पर क्लेश बढ़े नहीं उस तरह कहने का अधिकार है, बाक़ी जो कहने से क्लेश बढ़े वह तो मूर्ख का काम है। प्रश्नकर्ता : अबोला लेकर बात को टालने से उसका निकाल हो सकता है? दादाश्री : नहीं हो सकता। हमें तो सामनेवााला मिले तो कैसे हो? कैसे नहीं? ऐसे कहना चाहिए। सामनेवाला जरा शोर मचाए तो हमें ज़रा धीरे से 'समभाव से निकाल' करना चाहिए। उसका निकाल तो करना ही पड़ेगा न, जब कभी भी? अबोला करने से क्या निकाल हो गया? वह निकाल नहीं होता, इसलिए तो अबोला खड़ा होता है। अबोला मतलब ५२ वाणी, व्यवहार में... बोझा, जिसका निकाल नहीं हुआ उसका बोझा। हमें तो तुरन्त उसे खड़ा रखकर कहना चाहिए, 'ठहरो न, मेरी कोई भूल हुई हो तो मुझे कहो, मेरी बहुत भूलें होती हैं। आप तो बहुत होशियार, पढ़े-लिखे इसलिए आपकी नहीं होती, पर मैं कम पढ़ा-लिखा हूँ इसलिए मेरी बहुत भूलें होती हैं, ऐसा कहें तो वह खुश हो जाएगा।' प्रश्नकर्ता : ऐसा कहने पर भी वह नरम नहीं पड़ें तब क्या करें? दादाश्री : नरम नहीं पड़े तो हमें क्या करना है? हमें तो कहकर छोड़ देना है। फिर क्या उपाय है? कभी न कभी तो नरम पड़ेंगे। डाँटकर नरम करो तो उससे कोई नरम होता नहीं है। आज नरम दिखेगा, पर वह मन में नोंध रखेगा और हम जब नरम हो जाएँगे, उस दिन वह सारा वापिस निकालेगा। यानी जगत् बैरवाला है। कुदरत का नियम ऐसा है कि हरएक जीव अंदर बैर रखता ही है। भीतर परमाणुओं का संग्रह करके रखते हैं। इसलिए हमें पूरा केस ही ख़ारिज कर देना चाहिए। प्रश्नकर्ता : हम सामनेवाले को अबोला तोड़ने के लिए कहें कि 'मेरी भूल हो गई, अब माफ़ी माँगता हूँ', तो भी वह अधिक अकड़ने लगे तो क्या करना चाहिए? दादाश्री : तो हमें कहना बंद कर देना चाहिए। उसका स्वभाव टेढ़ा है ऐसा जानकर बंद कर देना चाहिए हमें। उसे ऐसा कुछ उल्टा ज्ञान हो गया होगा कि 'बहुत नमे नादान' वहाँ फिर दूर ही रहना चाहिए। फिर जो हिसाब हो, वह सही। परन्तु जितने लोग सरल हों न, वहाँ तो हल ले आना चाहिए। घर में कौन-कौन सरल है और कौन-कौन टेढ़ा है, हम वह नहीं समझते? प्रश्नकर्ता : सामनेवाला सरल नहीं हो तो उसके साथ हमें व्यवहार तोड़ देना चाहिए? दादाश्री : नहीं तोड़ना चाहिए। व्यवहार तोड़ने से टूटता नहीं है। व्यवहार तोड़ने से टूटे, ऐसा है भी नहीं। इसलिए हमें वहाँ मौन रहना चाहिए Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में.. कि किसी दिन चिढ़ेगा तब अपना हिसाब पूरा हो जाएगा, हम मौन रखें तो किसी दिन वह चिढ़ेगा और खुद ही बोलेगा कि, 'आप बोलते नहीं हो, कितने दिनों से चुपचाप फिरते हो!' ऐसा चिढ़े, मतलब अपना हिसाब पूरा हो गया। तब क्या हो फिर? यह तो तरह-तरह के लोहे होते हैं, हमें सब पहचान में आते हैं। कितनों को बहुत गरम करें तो मुड़ जाते हैं। कितनों को भट्ठी में डालने पड़ते हैं, फिर जल्दी से दो हथौड़े मारें कि सीधा हो जाता है। ये तो तरह-तरह के लोहे हैं! इसमें आत्मा वह आत्मा है, परमात्मा है और लोहा वह लोहा है, ये सारी दूसरी धातुएँ हैं। आप एक दिन तो कहकर देखो कि "देवी', आज तो आपने बहुत अच्छा भोजन खिलाया', इतना बोलकर तो देखो। प्रश्नकर्ता : खुश, खुश! दादाश्री : खुश-खुश हो जाएगी। पर यह तो बोलते भी नहीं। वाणी में भी मानो कि मुफ्त की खरीदकर लानी पड़ती हो न, ऐसे। वाणी खरीदकर लानी पड़ती है? प्रश्नकर्ता : नहीं, पर पतिपन वहाँ चला जाएगा न! दादाश्री : पतिपन चला जाएगा, पतिपन!! ओहोहो! बड़ा पति बन बैठा!! और अन्सर्टिफाइड पति वापिस, यदि सर्टिफिकेट लेकर आया होता तो ठीक है!! पत्नी और उसका पति, दोनों पडोसी के साथ लडते हैं. तब कैसे अभेद होकर लड़ते हैं? दोनों एक साथ ऐसे हाथ करके कि, 'आप ऐसे और आप वैसे।' दोनों जने ऐसे हाथ करते हैं। तब हमें लगता है कि ओहोहो! इन दोनों में इतनी अधिक एकता!! यह कोर्पोरेशन अभेद है, ऐसा हमें लगता है। और फिर घर में घुसकर दोनों लड़ते हैं तब क्या कहेंगे? घर पर वे लोग लड़ते हैं या नहीं लड़ते? कभी तो लड़ते हैं न? वह कोर्पोरेशन अंदर-अंदर जब झगड़ता है न, 'तू ऐसी और आप ऐसे, तू ऐसी और आप वैसे।' ....फिर घर में जमता है न, तब कहता है, 'तू चली जा, वाणी, व्यवहार में... यहाँ से घर चली जा, मुझे चाहिए ही नहीं' कहेगा। अब यह नासमझी नहीं है? आपको कैसा लगता है? वे अभेद थे और ट गया और भेद उत्पन्न हुआ। इसलिए वाइफ के साथ भी 'मेरी-तेरी' हो जाता है। 'तू ऐसी है और तू ऐसी है!' तब वह कहेगी, 'आप कहाँ सीधे हो?' इसलिए घर में भी 'मैं और तू' हो जाता है। फ़ैमिलि के व्यक्ति से ऐसे हाथ टकरा जाए तो हम उसके साथ लड़ते हैं? नहीं। एक फ़ैमिलि की तरह रहना चाहिए। बनावट नहीं करनी चाहिए। यह तो, लोग बनावट करते हैं, वैसा नहीं। एक फ़ैमिलि... तेरे बिना मुझे अच्छा नहीं लगता ऐसे कहना चाहिए, वह डाँटे न हमें, उसके बाद थोड़ी देर बाद फिर कह देना, 'तू चाहे जितना डाँटे, तो भी तेरे बिना मुझे अच्छा नहीं लगता।' ऐसे कह देना चाहिए। इतना गुरुमंत्र कह देना चाहिए। ऐसा कभी बोलते ही नहीं, आपको बोलने में हर्ज क्या है? मन में प्रेम रखते ज़रूर हैं, पर थोड़ा प्रकट करना चाहिए। यानी, हमारा सब ड्रामा ही होता है। हीराबा ७३ वर्ष के, फिर भी मझे कहते हैं, 'आप जल्दी आना। मैंने कहा. 'मझे भी आपके बिना अच्छा नहीं लगता!' ऐसा ड्रामा करें तो कितना उन्हें आनंद हो जाए। जल्दी आना, जल्दी आना कहती हैं। तो उन्हें भाव है इसलिए वे कहती हैं न! तब हम भी वैसा बोलते हैं। बोलना हितकारी होना चाहिए। बोला हुआ बोल यदि सामनेवाले को हितकारी नहीं हुआ तो हमारा बोला हुआ बोल काम का ही क्या है फिर?! ___ एक घंटा नौकर को, बेटे को या पत्नी को डाँटा हो तो फिर वह पति होकर या सास होकर आपको पूरी ज़िन्दगी कुचलते रहेंगे! न्याय तो चाहिए या नहीं चाहिए? यही भुगतना कहलाता है। आप किसीको दुःख दोगे तो आपके लिए पूरी ज़िन्दगी का दु:ख आएगा। एक ही घंटा दुःख दोगे तो उसका फल पूरी ज़िन्दगी मिलेगा। फिर चिल्लाओ कि 'पत्नी मुझे ऐसा क्यों करती है?' पत्नी को ऐसा होता है कि, 'इस पति के साथ मुझसे ऐसा क्यों हो जाता है?' उसे भी दु:ख होता है, पर क्या हो? फिर मैंने उन्हें पूछा कि, 'पत्नी आपको ढूंढकर लाई थी या आप पत्नी को ढूंढकर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ वाणी, व्यवहार में... ले आए थे!' तब वह कहता है, 'मैं ढूंढ लाया था। तब उसका क्या दोष बेचारी का? ले आने के बाद उल्टी निकले, उसमें वह क्या करे, कहाँ जाए फिर? जगत् में किसीको कुछ भी, एक अक्षर भी कहने जैसा नहीं है। कहना, वह रोग है एक प्रकार का! कहने का हो न तो वह रोग सबसे बड़ा है! सब अपना-अपना हिसाब लेकर आए हैं। यह दखल करने की ज़रूरत क्या है? एक अक्षर भी बोलना बंद कर देना। इसलिए तो हमने यह 'व्यवस्थित' का ज्ञान दिया है। इसलिए जगत् में एक ही चीज़ करने जैसी है। कुछ भी बोलना नहीं आप। आराम से जो हो वह खा लेना और ये चले सब अपने-अपने काम पर, काम करते रहना। बोलना-करना नहीं। तू बोलती नहीं है न बच्चों के साथ, पति के साथ? बोलना कम कर देना अच्छा। किसीको कुछ कहने जैसा नहीं है, कहने से अधिक बिगड़ता है। उसे कहें कि, 'गाड़ी पर जल्दी पहुँच', तो वह देर से जाएगा और कुछ नहीं कहें तो टाइम पर जाएगा। हम नहीं हों, तो सब चले वैसा है। यह तो खुद का गलत अहंकार है। जिस दिन से बच्चों के साथ कच-कच करना आप बंद कर दोगे, उस दिन से बच्चे सुधरेंगे। आपके बोल अच्छे नहीं निकलते, इसलिए सामनेवाला अकुलाता है। आपके बोल स्वीकार नहीं करता, उल्टे वे बोल वापिस आते हैं। हम तो बच्चों को खाना-पीना सब बनाकर दें और अपना फ़र्ज़ निभाएँ, दूसरा कुछ कहने जैसा नहीं है। कहने से फायदा नहीं है, ऐसा आपने सार निकाला है? प्रश्नकर्ता : बच्चे उनकी जिम्मेदारी समझकर नहीं रहते हैं। दादाश्री : जिम्मेदारी 'व्यवस्थित' की है। वह तो उसकी जिम्मेदारी समझा हुआ ही है। आपको उसे कहना नहीं आता है। इसलिए दखल होती है। सामनेवाला माने तब अपना कहा हुआ काम का है। यह तो माँ-बाप पागलों जैसा बोलते हैं फिर बच्चे भी पागलपन करते हैं। वाणी, व्यवहार में... प्रश्नकर्ता : बच्चे असभ्यता से बोलते हैं। दादाश्री : हाँ, पर वह आप किस तरह से बंद करोगे? यह तो आमने-सामने बंद हो तो सबका अच्छा हो। एक बार मन में विरोध भाव पैदा हो गया फिर उसकी लिंक शुरू हो जाती है, फिर मन में उसके लिए ग्रह बंध जाता है कि यह मनुष्य ऐसा है। तब हमें मौन लेकर सामनेवाले को विश्वास में लेना चाहिए। बोलते रहने से किसीका सुधरता नहीं है! सुधरना हो तो 'ज्ञानी पुरुष' की वाणी से सुधरता है। बच्चों के लिए तो माँ-बाप की जोखिमदारी है। हम नहीं बोलें तो नहीं चलेगा? चलेगा। इसलिए भगवान ने कहा है कि जीते जी मरे हुए की तरह रह। बिगड़ा हुआ सुधर सकता है। बिगड़े हुए को सुधारना वह 'हमसे' हो सकता है, आपको नहीं करना है। आपको हमारी आज्ञा के अनुसार चलना है। वह तो जो सुधरा हुआ है, वही दूसरे को सुधार सकता है। खुद ही सुधरे नहीं हों तो दूसरे को किस तरह सुधार सकेंगे? प्रश्नकर्ता : सुधरे हुए की परिभाषा क्या है? दादाश्री : सामनेवाले व्यक्ति को आप डाँटों तो भी उसे उसमें प्रेम दिखे। आप उलाहना दो तो भी उसे आपमें प्रेम दिखे कि 'ओहोहो! मेरे फादर को मुझ पर कितना अधिक प्रेम है!' उलाहना दो. पर प्रेम से दो तो सुधरेंगे। इन कॉलेजों में ये प्रोफेसर यदि उलाहना देने जाएँ तो प्रोफेसरों को सभी मारेंगे! सामनेवाला सुधरे उसके लिए अपने प्रयत्न रहने चाहिए। पर जो प्रयत्न रिएक्शनरी हों वैसे प्रयत्नों में नहीं पड़ना चाहिए। हम उसे डाँटें और उसे खराब लगे, वह प्रयत्न नहीं कहलाता। प्रयत्न अंदर करने चाहिए, सूक्ष्म प्रकार से! स्थूल प्रकार से यदि हमसे नहीं होता हो तो सुक्ष्म प्रकार से प्रयत्न करने चाहिए। अधिक उलाहना नहीं देना हो तो थोड़े में कह देना चाहिए कि, 'हमें यह शोभा नहीं देता।' बस इतना ही कहकर बंद रखना चाहिए। कहना तो पड़ेगा पर कहने का तरीका होता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... ५७ खुद सुधरे नहीं और लोगों को सुधारने गए। उससे लोग उल्टे बिगड़े। सुधारने जाएँ तो बिगड़ेंगे ही। खुद ही बिगड़ा हुआ हो तो क्या हो? खुद को सुधारना सबसे आसान है। हम नहीं सुधरे हों और दूसरे को सुधारने जाएँ, वह मीनिंगलेस है। डाँटने से मनुष्य स्पष्ट नहीं कहता है और कपट करता है। ये सारे कपट डाँटने से ही जगत् में खड़े हुए हैं। डाँटना, वह सबसे बड़ा अहंकार है, पागल अहंकार है। डाँटा हुआ कब काम का कहलाता है? पूर्वग्रह बिना डाँटै वह। किसी जगह पर अच्छी वाणी बोलते होंगे न? या नहीं बोलते हो? कहाँ पर बोलते होंगे? जिसे बॉस माना है, उस बॉस के साथ अच्छी वाणी बोलते हैं और अन्डरहैन्ड को झिड़कते रहते हैं। पूरे दिन 'तूने ऐसा किया, तूने वैसा किया' कहते रहते हैं। तो उसमें पूरी वाणी सब बिगड़ जाती है। अहंकार है इसके पीछे। इस जगत् में कुछ कहा जाए ऐसा नहीं है। जो बोलते हैं, वह अहंकार है। जगत् पूरा नियंत्रणवाला है। १०. पालो - पोसो 'पौधे' इस तरह, बगीचे में... एक बैंक का मैनेजेर कहता है, 'दादाजी, मैं तो कभी भी वाइफ या बेटे या बेटी को एक अक्षर भी नहीं बोला हूँ। चाहे जैसी भूलें करें, चाहे जो करते हों, पर मैं नहीं बोलता हूँ।' वह ऐसा समझा कि दादाजी, मुझे अच्छी-सी पगड़ी पहनाएँगे! वह क्या आशा रख रहा था, समझ में आया न?! और मुझे उस पर बहुत गुस्सा आया कि आपको किसने बैंक का मैनेजर बनाया है? आपको बेटी-बेटे सँभालने भी नहीं आते और पत्नी को भी सँभालकर रखना नहीं आता ! तो वह तो घबरा गया बेचारा। पर मैंने उसे कहा, 'आप अंतिम प्रकार के बेकार मनुष्य हो। इस दुनिया में किसी काम के आप नहीं हो।' वह व्यक्ति तो मन में समझा कि मैं ऐसा कहूँगा तो ये 'दादा' मुझे बड़ा इनाम दे देंगे। अरे पागल, इसका इनाम होता होगा? बेटा उल्टा कर रहा हो, तब उसे हमें 'क्यों ऐसा किया? अब ऐसा मत करना।' ऐसा नाटकीय बोलना वाणी, व्यवहार में... चाहिए। नहीं तो बेटा ऐसा ही समझेगा कि मैं जो कुछ करता हूँ वह करेक्ट ही है। क्योंकि पिताजी ने एक्सेप्ट किया है। कई लोग बच्चों से कहते हैं, 'तू मेरा कहना नहीं मानता है।' मैंने कहा, 'आपकी वाणी पसंद नहीं है उसे। पसंद हो तो असर हो ही जाता है।' और वह पापा कहता है, 'तू मेरा कहना नहीं मानता है।' अरे मुए, पापा होना तुझे आया नहीं। इस कलियुग में दशा तो देखो लोगों की! नहीं तो सत्युग में कैसे फादर और मदर थे! एक व्यक्ति मुझे उन्नीस सौ बावन में कह रहा था कि 'यह गवर्नमेन्ट खराब है और जानी ही चाहिए।' ऐसा उन्नीस सौ बावन से उन्नीस सौ बासठ तक बोलता रहा। इसलिए फिर मैंने उसे कहा कि, 'रोज आप मुझे यह बात करते हो, पर वहाँ कुछ बदलाव होता है? यह आपका बोला हुआ वहाँ फला है क्या?' तब वह कहता है, 'नहीं। वह नहीं फला।' तब मैंने कहा, 'तो किसलिए गाते रहते हो? आपसे तो रेडियो अच्छा।' अपना बोला हुआ नहीं फलता हो तो हमें चुप हो जाना चाहिए। हम मूर्ख हैं, हमें बोलना नहीं आता है, इसलिए चुप हो जाना चाहिए। अपना बोला हुआ फलता नहीं और उल्टे अपना मन बिगड़ता है, अपना आत्मा बिगड़ता है। ऐसा कौन करेगा फिर? प्रश्नकर्ता : बेटा बाप का नहीं माने तो क्या करना चाहिए? दादाश्री : 'अपनी भूल है' ऐसा मानकर छोड़ देना चाहिए! अपनी भूल हो, तब ही नहीं मानेगा न! बाप होना आता हो, उसका बेटा नहीं माने, ऐसा होता होगा?! पर बाप होना आता ही नहीं न! प्रश्नकर्ता : एक बार फादर हो गए फिर क्या पिल्ले छोड़ेंगे? दादाश्री : छोड़ते होंगे? पिल्ले तो पूरी ज़िन्दगी डॉग और डॉगिन को, दोनों को देखते ही रहते हैं, कि ये भौंक रहा है और ये (डॉगिन) काटती रहती है। डॉग भौंके बिना रहता नहीं है। पर अंत में दोष उस डॉग का निकलता है। बच्चे अपनी माँ की तरफदारी करते हैं। इसलिए मैंने एक Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... जने से कहा था, 'बड़े होकर ये बच्चे तुझे मारेंगे। इसलिए पत्नी के साथ सीधा रहना!' वह तो बच्चे देखते रहते हैं उस घड़ी, उनका पैर नहीं पहुँचे न तब तक और पैर पहुँचे तब तो कमरे में डालकर मारेंगे। ऐसा हुआ भी है लोगों के साथ ! लड़के ने उस दिन से नियाणां (अपना सारा पुण्य लगाकर किसी एक वस्तु की कामना करना) ही किया होता है कि मैं बड़ा हो जाऊँगा तो बाप को मारूँगा ! मेरा सर्वस्व जाए पर यह कार्य होना चाहिए, वह नियाणां । यह भी समझने जैसा है न? ! प्रश्नकर्ता यानी कि सारा दोष बाप का ही है? : दादाश्री : बाप का ही। दोष ही बाप का है। बाप में बाप होने की बरकत नहीं हो तब पत्नी सामना करती है। बाप में बरकत नहीं हो तब ही ऐसा होता है न! मार-पीटकर गाड़ी खींचता है। कब तक समाज के डर के मारे रहेंगे। ये बच्चे दर्पण हैं। बच्चों पर से पता चलता है कि अपने में कितनी भूलें हैं ! प्रश्नकर्ता मौनव्रत ले लें तो कैसा? मौन धारण करें तो, बोलना ही नहीं। : दादाश्री : वह मौन अपने हाथ की बात नहीं है न । मौन हो जाएँ तो अच्छी बात है। प्रश्नकर्ता: व्यवहार में कोई गलत कर रहा हो तो उसे टोकना पड़ता है तो उससे उसे दुःख होता है। तो किस तरह से उसका निकाल करना चाहिए? दादाश्री : टोकने में हर्ज नहीं है, पर हमें टोकना आना चाहिए न । कहना आना चाहिए न, क्या? प्रश्नकर्ता: किस तरह? दादाश्री : बेटे से कहें, 'तुझमें अक्कल नहीं है, गधा है।' ऐसा बोलें ६० वाणी, व्यवहार में... तो फिर क्या होगा! उसे भी अहंकार होता है या नहीं? आपको ही यदि आपका बॉस कहे कि, 'आपमें अक्कल नहीं है, गधे हो।' ऐसा कहे तो क्या होगा? नहीं कहना चाहिए ऐसा। टोकना आना चाहिए। प्रश्नकर्ता: किस तरह टोकना चाहिए? दादाश्री : उसे बैठाओ। फिर कहो, हम हिन्दुस्तान के लोग हैं, आर्य प्रजा है अपनी, हम कोई अनाड़ी नहीं है, और अपने से ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसा-वैसा सब समझाकर कहें तब रास्ते पर आएगा। नहीं तो आप तो मारपीटकर लेफ्ट एन्ड राइट, लेफ्ट एन्ड राइट ले लेते हो, तो चलता होगा? - प्रश्नकर्ता: यहाँ के बच्चे बहस बहुत करते हैं, आर्ग्युमेन्ट बहुत करते हैं। यह आप क्या लेक्चर दे रहो हो, कहते हैं? दादाश्री बहस बहुत करते हैं। फिर भी प्रेम से सिखाओगे न तो बहस कम होती जाएगी। यह बहस आपका रिएक्शन है। आप अभी तक उन्हें दबाते रहे हैं न । वह उसके दिमाग़ में से जाता नहीं है, मिटता ही नहीं । इसलिए फिर वह बहस करता है। मेरे साथ एक भी बच्चा बहस नहीं करता। क्योंकि मैं सच्चे प्रेम से यह आप सबके साथ बातें कर रहा हूँ। हमारी आवाज़ सत्तावाली नहीं होती। यानी कि सत्ता नहीं होनी चाहिए। बेटे से आप कहो न तो सत्तावाली आवाज़ नहीं होनी चाहिए। इसलिए आप थोड़ा प्रयोग मेरे कहे अनुसार करो न । प्रश्नकर्ता क्या करें? : दादाश्री : प्रेम से बुलाओ न। प्रश्नकर्ता: वह जानता है कि मेरा उस पर प्रेम है। दादाश्री : वैसा प्रेम काम का नहीं है। क्योंकि आप बोलते हो उस घड़ी फिर कलेक्टर की तरह बोलते हो। 'आप ऐसा करो, आपमें अक्कल Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में.... नहीं है, ऐसा-वैसा।' ऐसा भी कहते हो न ? हमेशा प्रेम से ही दुनिया सुधरती है। इसके सिवाय दूसरा कोई उपाय ही नहीं है उसके लिए । यदि धाक से सुधरता हो न तो यह गवर्नमेन्ट डेमोक्रेसी .... सरकार लोकतंत्र हटा दे और जो कोई गुनाह करे, उसे जेल में डालकर उसे फाँसी दे दे। ६१ : प्रश्नकर्ता फिर भी यदि बच्चे टेढ़े चलें तो क्या करना चाहिए? दादाश्री : बच्चे टेढ़े रास्ते जाएँ, तो भी हमें उन्हें देखते रहना और जानते रहना चाहिए। और मन में भाव निश्चित करना चाहिए, और प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि इस पर कृपा करो। 'रिलेटिव' समझकर औपचारिक रहना चाहिए! बच्चे को तो नौ महीने पेट में रखना होता है। फिर चलाना, घुमाना, छोटा हो तब तक । फिर छोड़ देना चाहिए। ये गायें भैंसें भी छोड़ देती हैं न? बेटे को पाँच वर्ष तक टोकना पड़ता है, फिर टोक भी नहीं सकते और बीस वर्ष बाद तो उसकी पत्नी ही उसे सुधारेगी। हमें नहीं सुधारना होता है। प्रश्नकर्ता: बच्चों को कहने जैसा लगे तो डाँटते हैं, तो उसे दुःख भी होता है तो क्या करना चाहिए? दादाश्री : फिर हमें अंदर माफ़ी माँग लेनी चाहिए। इस बच्चे को कुछ अधिक कह दिया हो और दुःख हो गया हो तो आपको बच्चे से कहना चाहिए कि, 'माफ़ी माँगता हूँ।' ऐसा कहने जैसा नहीं हो तो अतिक्रमण किया इसीलिए अंदर से प्रतिक्रमण करो । प्रश्नकर्ता: बच्चों के साथ बच्चा हो जाएँ और उस प्रकार से व्यवहार करें, तो वह किस तरह? दादाश्री : बच्चों के साथ अभी बच्चे की तरह व्यवहार रखते हो? हम बड़े हों तो उसका भय लगा करता है। वैसा भय नहीं लगे उस प्रकार से व्यवहार करना चाहिए। उसे समझाकर उसका दोष निकालना चाहिए, डराकर नहीं निकालना चाहिए। नहीं तो डराकर काम नहीं लगता। आप ६२ वाणी, व्यवहार में... बड़ी उम्र के, वे छोटी उम्र के डर जाएँगे बेचारे! पर उससे कोई दोष जाएगा नहीं, दोष तो बढ़ता रहेगा अंदर पर यदि समझाकर निकालो तो जाएगा, नहीं तो जाएगा नहीं । प्रश्नकर्ता: ऐसा होता है, यह तो मेरा खुद का अनुभव है वही कह रहा हूँ, मेरा जो प्रश्न है यही बात है। यह मेरा खुद का ही प्रश्न है और बार-बार मेरे साथ ऐसा हो ही जाता है। दादाश्री : हाँ, इसीलिए मैं यह उदाहरण दे रहा हूँ कि बेटा आपका बारह साल का हो, अब आप उससे सारी बातें करो, तो उन सभी बातों में कितनी ही बातें वह समझ सकेगा और कितनी ही बातें नहीं समझ सकेगा। आप क्या कहना चाहते हो वह उसकी समझ में नहीं आता है। आपका व्यू पोइन्ट क्या है वह उसकी समझ में नहीं आता, इसलिए आपको धीरे से कहना चाहिए कि, 'मेरा हेतु ऐसा है, मेरा व्यू पोइन्ट ऐसा है, मैं ऐसा कहना चाहता हूँ ।' तुझे समझ में आया या नहीं आया मुझे कहना । और तेरी बात मुझे समझ में नहीं आए तो मैं समझाने का प्रयत्न करूँगा, ऐसा कहना । इसलिए अपने लोगों ने कहा है न कि भाई, सोलह वर्ष के बाद, कुछ वर्षों के बाद फ्रेन्ड की तरह स्वीकरना ऐसा कहा है, नहीं कहा? फ्रेन्डली टोन में हो तो अपना टोन अच्छा निकलता है। नहीं तो रोज़ बाप होने जाएँ न तो कुछ अच्छा नहीं होता है। चालीस वर्ष का हो गया हो और हम बाप होने फिरें, तो क्या होगा? ! प्रश्नकर्ता: बेटा खराब शब्द बोला, विरोध करता हो, उसे नोंध कर रखें, तो उस अभिप्राय के कारण लौकिक वर्तन में गाँठ पड़ जाएगी। उससे सामान्य व्यवहार उलझ नहीं जाएगा? दादाश्री : नोंध ही इस दुनिया में बेकार है। नोंध ही इस दुनिया में नुकसान करती है। कोई बहुत मान दे तो नोंध नहीं रखें और कोई बहुत गालियाँ दे, 'आप नालायक हो, अनफिट हो।' वह सुनकर नोंध नहीं रखनी चाहिए। उसे नोंध रखनी हो तो रखे। हम इस पीड़ा को कहाँ लें वापिस ? ! Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ वाणी, व्यवहार में... बहीखाते लाकर फिर नोंध रखने लगें!!! बह समझती है कि ससुर दूसरे रुम में बैठे हैं। इसलिए बहू दूसरों के साथ बात करती है कि 'ससुर में ज़रा अक्कल कम है।' अब हम उस घड़ी वहाँ पर खड़े हों और वह हमारे सुनने में आए, तो अपने अंदर वह रोग घसा। तो वहाँ हमें क्या हिसाब निकालना चाहिए कि हम दूसरे रुम में बैठे होते तो क्या होता? तो कोई रोग खड़ा नहीं होता। इसलिए यहाँ आए उस भूल का रोग है! हम उस भूल को मिटा दें। आप ऐसा मानों न कि हम कहीं और बैठे थे और यह नहीं सुना, यानी कि उस भूल को मिटा दें। अपना बेटा बड़ा हो गया हो और सामना करे तो समझना कि यह अपना 'थर्मामीटर' है। यह आपमें धर्म कितना परिणमित हुआ है, उसके लिए 'थर्मामीटर' कहाँ से लाएँ? घर में 'थर्मामीटर' मिल जाए तो फिर बाहर से नहीं खरीदना पड़े! बेटा धौल मारे, तो भी कषाय उत्पन्न नहीं हों, तब जानना कि अब मोक्ष में जानेवाले हैं हम। दो-तीन धौल मारे तो भी कषाय उत्पन्न नहीं हो, यानी समझना कि यह बेटा ही अपना थर्मामीटर है। वैसा थर्मामीटर दूसरा लाएँ कहाँ से। दूसरा कोई मारेगा नहीं। इसलिए यह थर्मामीटर है अपना। यह तो नाटक है! नाटक में पत्नी-बच्चों को हमेशा के लिए खुद के बना दे तो क्या चलेगा? नाटक में बोलते हैं वैसे बोलने में हर्ज नहीं है कि, 'यह मेरा बड़ा बेटा शतायु हो।' पर सबकुछ सतही, सुपरफ्लुअस, नाटकीय। इन सबको सच्चा माना उसके ही प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं। यदि सच्चा नहीं माना होता तो प्रतिक्रमण करने ही नहीं पड़ते। जहाँ सत्य माना गया वहाँ राग और द्वेष शुरू हो जाते हैं, और प्रतिक्रमण से ही मोक्ष है। ये 'दादा' दिखाते हैं, उस 'आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान' से मोक्ष है। एक बार एक व्यक्ति के साथ मेरा दिमाग़ जरा गरम हो गया था, रास्ते में मैं उसे डाँट रहा था। तो लोग तो मुझे टोकेंगे न कि यह बाज़ार वाणी, व्यवहार में... में आपको झगड़ा करना चाहिए? इसलिए मैं तो ठंडा हो गया कि क्या भूल हो गई? वह व्यक्ति टेढ़ा बोल रहा है और हम डाँट रहे हैं, उसमें तो क्या बड़ी भूल हो गई? फिर मैंने उसे कहा कि यह टेढा बोल रहा था इसलिए मुझे जरा डाँटना पड़ा। तब वे लोग बोले कि यह टेढ़ा बोले तो भी आपको डाँटना नहीं चाहिए। यह संडास बदबू मारे तो दरवाज़े को लातें मारते रहें तो वह संडास कब सुगंधीवाला होगा? उसमें किसका नुकसान हुआ? उसका स्वभाव ही बदबू देने का है। उस दिन मुझे ज्ञान नहीं हुआ था। उस भाई ने मुझे ऐसा कहा, तो मैंने तो कान पकड़े। मुझे बहुत अच्छा उदाहरण दिया कि संडास कब सुधरता है? ११. मज़ाक के जोखिम... प्रश्नकर्ता : वचनबल किस तरह से उत्पन्न होता है? दादाश्री : एक भी शब्द मज़ाक के लिए उपयोग नहीं किया हो, एक भी शब्द झूठे स्वार्थ या छीन लेने के लिए उपयोग नहीं किया हो, शब्द का दुरुपयोग नहीं किया हो, खुद का मान बढ़े उसके लिए वाणी नहीं बोले हों, तब वचनबल उत्पन्न होता है। प्रश्नकर्ता : खुद के मान के लिए और स्वार्थ के लिए ठीक है, पर मज़ाक करें, उसमें क्या हर्ज है? दादाश्री : मज़ाक करना तो बहुत गलत है। इसके बदले तो मान दो वह अच्छा ! मजाक तो भगवान का हुआ कहलाता है! आपको ऐसा लगता है कि यह गधे जैसा मनुष्य है, 'आफ्टर ऑल' वह क्या है, वह पता लगा लो!! आफ्टर ऑल वह तो भगवान ही है न! मुझे मज़ाक की बहुत आदत थी। मजाक यानी कैसा कि बहुत नुकसानदायक नहीं, पर सामनेवाले को मन में असर तो होता है न! अपनी बुद्धि अधिक बढ़ी हुई होती है, उसका दुरुपयोग किसमें होता है? कम बुद्धिवाले की मजाक करे उसमें ! यह जोखिम जब से मुझे समझ में आया, तब से मजाक करना बंद हो गया। मज़ाक तो किया जाता होगा? मजाक Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... तो भयंकर जोखिम है, गुनाह है! मज़ाक तो किसीका भी नहीं करना चाहिए। फिर भी ऐसा मजाक करने में हर्ज नहीं है कि जिससे किसीको दु:ख नहीं हो और सभी को आनंद हो। उसे निर्दोष मजाक कहा है। वह तो हम अभी भी करते हैं। क्योंकि मूल स्वभाव जाता नहीं है न! पर उसमें निर्दोषता ही होती है! हम जोक (मज़ाक) करते हैं, पर निर्दोष जोक करते हैं। हम तो उसका रोग निकालते हैं और उसे शक्तिवाला बनाने के लिए जोक करते हैं। जरा मज़ा आए, आनंद आए और फिर वह आगे बढ़ता जाए। बाक़ी वह जोक किसीको दुःख नहीं देता। ऐसा मज़ाक चाहिए या नहीं चाहिए? सामनेवाला भी समझता है कि ये विनोद कर रहे हैं, मज़ाक नहीं उड़ा रहे हैं। अब हम किसीका मजाक करें, तो उसके भी हमें प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं। हमें ऐसे ही चल जाए वैसा नहीं है। बाक़ी, मैंने सब तरह की मज़ाक उड़ाई हुई हैं। हमेशा सब प्रकार की मजाक कौन करता है? बहुत टाइट ब्रेन हो वह करता है। मैं तो आराम से मजाक उड़ाता था सबका, अच्छे-अच्छे लोगों का, बड़े-बड़े वकीलों का, डॉक्टरों का मज़ाक करता था। अब वह सारा अहंकार तो गलत ही है न! वह अपनी बुद्धि का दुरुपयोग किया न! मजाक करना वह बुद्धि की निशानी है। ६६ वाणी, व्यवहार में... प्रकार के जोखिम आते हैं? दादाश्री : ऐसा है, कि किसीको धौल मारी हो न और जो जोखिम आए, उससे तो यह मजाक करने में अनंत गुना जोखिम है। उसकी बुद्धि ज्यादा नहीं है, इसलिए आपने अपनी लाइट से (अधिक बुद्धि से) उसे कब्जे में लिया। इसलिए फिर वहाँ पर भगवान कहेंगे, 'इसे बुद्धि नहीं है उसका यह लाभ उठा रहा है?' वहाँ पर खुद भगवान को हमने प्रतिपक्षी बनाया। उसे धौल मारी होती तो वह समझ जाता, यानी खुद मालिक बन जाता। पर यह तो बुद्धि पहुँचती ही नहीं, इसलिए हम उसकी मजाक करें तो वह खुद मालिक नहीं बनता। इसलिए भगवान जानते हैं कि 'ओहोहो, इसकी बुद्धि कम है, इसे तू फँसा रहा है?! आ जा।' उसके बदले में भगवान प्रतिपक्षी बन बैठते हैं, वह तो फिर आपको परेशानी में डाल देगा। १२. मधुरी वाणी के, कारणों का ऐसे करें सेवन प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करने के बाद हमारी वाणी बहुत ही अच्छी हो जाएगी, इसी जन्म में ही? दादाश्री : उसके बाद तो और ही प्रकार का होगा। हमारी वाणी सर्वतोत्कृष्ट कक्षा की निकलती है, उसका कारण ही प्रतिक्रमण है। व्यवहारशुद्धि के बिना स्यादवाद वाणी नहीं निकलती है। पहले व्यवहारशुद्धि होनी चाहिए। प्रश्नकर्ता : वाणी बोलते समय किस प्रकार की जागृति रखनी चाहिए? दादाश्री : जागृति ऐसी रखनी चाहिए कि यह बोल बोलने में किसकिसका प्रमाण किस-किस प्रकार से खंडित होता है, वह देखना है। प्रश्नकर्ता : सामनेवाले के साथ बातचीत करते समय क्या ध्यान में रखना चाहिए? दादाश्री : एक तो उनके साथ बात करनी हो तो आपको उनके 'शुद्धात्मा' की अनुमति लेनी होगी कि इन्हें अनुकूल आए ऐसी वाणी मुझे प्रश्नकर्ता : मुझे तो अभी भी मजाक करने का मन होता रहता दादाश्री : मज़ाक उड़ाने में बहुत जोखिम है। बुद्धि से मजाक उड़ाने की शक्ति होती ही है और उसका जोखिम भी उतना ही है फिर। यानी हमने पूरी ज़िन्दगी जोखिम उठाया है। जोखिम ही उठाते रहे हैं। प्रश्नकर्ता : मजाक करने के क्या-क्या जोखिम होते हैं? किस Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ ६८ वाणी, व्यवहार में... बोलने की परम शक्ति दीजिए। फिर आपको दादा की अनुमति लेनी होगी। ऐसी अनुमति लेकर बोलो तो सीधी-सरल वाणी निकलेगी। ऐसे ही मुँहफट बोलते रहो तो सीधी वाणी किस तरह निकलेगी? प्रश्नकर्ता : इस तरह बार-बार कहाँ उनकी आज्ञा लेने जाएँ? दादाश्री : बार-बार ज़रूरत भी नहीं पड़ती न! जब वैसी टेढ़ी फाइलें आएँ तभी ज़रूरत पड़ेगी। चिकनी फाइल के साथ कुछ बोलना हो तो, पहले उनके शुद्धात्मा देख लेने चाहिए, फिर मन में विधि बोलनी चाहिए कि (१) हे दादा भगवान, (फाइल का नाम) के साथ उसके मन का समाधान हो उस तरह से बोलने की शक्ति दीजिए। फिर (२) दसरा अपने मन में बोलना पड़ेगा कि हे चंदूभाई, (फाइल का नाम) के मन का समाधान हो वैसी वाणी बोलना। और फिर (३) तीसरा बोलना चाहिए कि, हे पद्मावती देवी, (फाइल का नाम) के मन का समाधान हो, उसके सर्व विघ्न दूर कीजिए। वाणी, व्यवहार में... पर उस गाँव में सभी को चूड़ियाँ बेचकर, फिर जो बचे वे रात को वह वापिस लेकर आ जाता। वह बार-बार उस गधी से कहता था 'धत् गधी, चल जल्दी' ऐसे करते-करते चलाकर ले जाता न तो एक व्यक्ति ने उसे समझाया कि, 'भाई तू ये वहाँ पर गाँव में क्षत्राणियों को चूड़ियाँ चढ़ाता है। तो यहाँ तुझे यह आदत पड़ जाएगी और वहाँ कभी गधी बोल देगा तो मार-मारकर तेरा तेल निकाल देंगे वे लोग।' तब उसने कहा, 'बात तो सच है। एक बार मैं ऐसा बोल गया था, मुझे पछताना पडा था।' तब दूसरे व्यक्ति ने कहा, 'तो तू यह आदत ही बदल दे।''किस तरह बदल?' तब उस व्यक्ति ने कहा, 'गधी से तुझे कहना चाहिए कि चल बहन, चल बहन, चलो बहन।' अब वैसी आदत डाली इसलिए वहाँ पर 'आओ बहन, आओ बहन' ऐसे-वैसे उसने बदल दिया लेकिन 'आओ बहन, आओ बहन' कहने से गधी को उस पर आनंद हो जानेवाला है? पर वह भी समझ जाती है कि यह अच्छे भाव में है। गधी भी वह सब समझती है। ये जानवर सब समझते हैं, पर बोलते नहीं हैं बेचारे। अर्थात् ऐसे परिवर्तन होता है! कुछ प्रयोग करें तो वाणी बदले। हम समझ जाएँ कि इसमें फायदा है और यह नुकसान हो जाएगा, तो बदल जाता है फिर। हम निश्चित करें कि 'किसीको दु:ख नहीं हो वैसी वाणी बोलनी है। किसी धर्म को अड़चन नहीं आए, किसी धर्म का प्रमाण नहीं दुभे वैसी वाणी बोलनी चाहिए', तब वह वाणी अच्छी निकलेगी। 'स्यादवाद वाणी बोलनी है' ऐसा भाव करें तो स्यादवाद वाणी उत्पन्न हो जाएगी। प्रश्नकर्ता : पर इस भव में बार-बार रटने से कि, 'स्यादवाद वाणी ही चाहिए' तो वह हो जाएगी क्या? दादाश्री : पर वह 'स्यादवाद' समझकर बोले तब। वह खुद समझता ही नहीं हो और बोलता रहे या गाता फिरे तो कुछ होता नहीं। किसकी वाणी अच्छी निकलेगी? कि जो उपयोगपूर्वक बोलता हो। अब उपयोगवाला कौन होता है? ज्ञानी होते हैं। उनके अलावा उपयोगवाला प्रश्नकर्ता : कई बार ऐसा नहीं होता कि हमें सामनेवाले का व्यू पोइन्ट ही गलत दिख रहा हो, इसलिए फिर अपनी वाणी कर्कशतावाली निकलती है? दादाश्री : वैसा दिखता है, इसीलिए ही उल्टा होता है न ! वह पूर्वग्रह और वही सब बाधा करता है न! 'खराब है, खराब है' ऐसा पूर्वग्रह हुआ है, उसके बाद वाणी निकले, तो वैसी खराब ही निकलेगी न! जिसे मोक्ष में जाना है, उसे 'ऐसा करना चाहिए और वैसा नहीं करना चाहिए' ऐसा नहीं होता। जैसे-तैसे करके काम पूरा करके चलना चाहिए। उसे पकड़कर नहीं रखता! जैसे-तैसे करके हल ले आता है। एक व्यक्ति को वाणी सुधारनी थी। वैसे क्षत्रिय था और चूड़ियों का व्यापार करता था। अब वह चूड़ियाँ यहाँ से दूसरे गाँव ले जाता। तो किसमें? टोकरी में ले जाता। टोकरी सिर पर उठाकर नहीं ले जाता था। एक गधी थी न, उस पर वह टोकरी बाँधकर दूसरे गाँव ले जाता। वहाँ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी, व्यवहार में... ६९ कोई होता नहीं। यह मैंने 'ज्ञान' दिया है, जिन्हें 'ज्ञान' हो, उनकी वाणी उपयोगपूर्वक निकल सकती है। वह पुरुषार्थ करे तो उपयोगपूर्वक हो सकता है, क्योंकि 'पुरुष' होने के बाद का पुरुषार्थ है। 'पुरुष' होने से पहले पुरुषार्थ है नहीं। प्रश्नकर्ता : इस भव की समझ किस प्रकार से वाणी सुधारने में हेल्प करती है। वह उदाहरण देकर जरा समझाइए । दादाश्री : अभी तुझे एक गाली दे तो भीतर असर हो जाता है। थोड़ा-बहुत मन ही मन में बोलता भी है कि 'तुम नालायक हो।' पर उसमें तू नहीं है, जुदा हो गया इसलिए तू इसमें नहीं है। आत्मा जुदा हो गया है, इसलिए वह एकाकार नहीं होता। यानी कोई मनुष्य बीमार हो और बोले, वैसा कर देता है। प्रश्नकर्ता : अब जिसका अहंकार नहीं गया, आत्मा जुदा नहीं हुआ, उसे उसकी समझ हेल्प करती है? दादाश्री : हाँ, पर वह जैसा है वैसा बोल दे और बाद में पछतावा करे तब । वाणी सुधारनी हो तो लोगों को पसंद नहीं हो वैसी वाणी बंद कर दो। और फिर किसीकी भूल नहीं निकाले, टकराव नहीं करे, तो भी वाणी सुधर जाती है। प्रश्नकर्ता : अब वाणी में सुधार लाना हो तो किस तरह करना चाहिए? दादाश्री : वाणी अपने आपसे सुधारी नहीं जा सकती, वह टेपरिकॉर्ड हो चुकी है। प्रश्नकर्ता : हाँ, इसलिए ही न! अर्थात् व्यस्थित हो चुका है। दादाश्री : व्यवस्थित हो चुका है, वह अब यहाँ पर 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा उतरे तो परिवर्तन हो जाता है। कृपा उतरनी मुश्किल है। वाणी, व्यवहार में... ज्ञानी की आज्ञा से सब सुधर सकता है। क्योंकि भव में दाखिल होने के लिए वह बाड़ के समान है। भव के अंदर दाख़िल होने नहीं देगी। प्रश्नकर्ता भव के अंदर मतलब क्या? ७० दादाश्री : भव में घुसने नहीं दे। भव में मतलब संसार में हमें घुसने नहीं देगी। बिना मालिकी की वाणी जगत् में हो नहीं सकती। ऐसी वाणी सारे (आवरण) तोड़ देती है, पर उसे ज्ञानी को खुश करना आना चाहिए, राजी करना आना चाहिए। वे सबकुछ (पाप) भस्मीभूत कर देते हैं। यदि एक घंटे में इतना सारा, भस्मीभूत हो जाता है, लाखों जन्म जितना, तो फिर और क्या नहीं कर सकता? कर्त्ताभाव नहीं है। यह बिना मालिकी की वाणी हो ही नहीं सकती और बिना मालिकी की वाणी में किसीको हाथ नहीं डालना चाहिए कि 'ऐसा नहीं हो सकता', ऐसे । वास्तव में इतना यह अपवाद नहीं है, पर यह वस्तुस्थिति है। फिर हिसाब निकालना हो तो वह भी व्यवस्थित, वह भी व्यवस्थित, वह भी व्यवस्थित, वह भी व्यवस्थित, निकालकर फिर निकलेगा। पर तब उसका लाभ नहीं मिलेगा, जितना चाहते हैं उतना । प्रश्नकर्ता: अगले भव में यह सब स्मृति में लाइएगा। दादाश्री : हाँ, आप निश्चित करो कि मुझे दादा भगवान जैसी ही वाणी चाहिए। अभी मेरी ऐसी वाणी पसंद नहीं है। इसलिए उस अनुसार होगा। आपके निश्चित करने पर आधारित है। टेन्डर भरते समय निश्चित करो, जैसे वाणी, आचार चाहिए हों वैसे, और टेन्डर में से सब आपका डिसीजन आएगा। प्रश्नकर्ता: कितनों की वाणी इतनी मीठी होती है। लोग उनकी वाणी पर मुग्ध हो जाते हैं। तो वह क्या कहलाता है? दादाश्री : वे चोखे व्यक्ति होते हैं और बहुत पुण्य किया होता है तब ऐसा होता है, और खुद के लिए पैसे नहीं लेते। औरों के लिए Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ वाणी, व्यवहार में... जीवन व्यतीत करते हैं। वे चोखे व्यक्ति कहलाते हैं। इसलिए वह अच्छा मनुष्य तो कैसा होना चाहिए कि उसकी वाणी मनोहर हो, अपने मन का हरण करे वैसी वाणी हो, उसका वर्तन मनोहर हो और विनय भी मनोहर हो। यह तो बोलता ऐसा है कि उस घड़ी कान हमें बंद कर देने पड़ते हैं ! वाणी बोले तो उल्टा वह चाय दे रहा हो तो भी नहीं दे। 'आपको नहीं दूंगा', कहेगा। वाणी में मधुरता आई कि गाड़ी चली। वह मधुर होते-होते अंतिम अवतार में इतनी मधुर हो जाएगी कि उसके साथ किसी 'फ्रूट' (फल) की तुलना नहीं की जा सकती, उतनी मीठासवाली होगी! और कितने तो बोलें तब ऐसा लगता है कि भैंस रंभा रही हो। यह भी वाणी है और तीर्थकर साहिबों की भी वाणी है!!! जिसकी वाणी से किसीको किंचित् मात्र भी दुःख नहीं होता, जिसके वर्तन से किसीको किंचित् मात्र भी दु:ख नहीं होता, जिसके मन में खराब भाव नहीं होते, वह शीलवान है। शीलवान के बिना वचनबल उत्पन्न नहीं वाणी, व्यवहार में... यह तो विज्ञान है। विज्ञान में कोई परिवर्तन नहीं होता और है फिर सैद्धांतिक। जो हर प्रकार से थोड़ा भी विरोधाभास किसी भी जगह पर कुछ भी नहीं होता और व्यवहार में फिट हो जाता है, निश्चय में फिट हो जाता है। सबमें फिट हो जाता है, सिर्फ लोगों को फिट नहीं होता। क्योंकि लोग लोकभाषा में है। लोकभाषा में और ज्ञानी की भाषा में बहुत फर्क होता है। ज्ञानी की भाषा कितनी अच्छी है, कुछ अड़चन ही नहीं न! ज्ञानी विस्तारपूर्वक सभी स्पष्टीकरण दें, तब हल आता है। अपना यह 'अक्रम विज्ञान' जगत में पता चले. तो लोगों का बहत काम निकाल देगा। क्योंकि ऐसा विज्ञान कभी निकला नहीं है। यह व्यवहार में, व्यवहार की गहराई में किसीने किसी प्रकार का ज्ञान रखा ही नहीं है। व्यवहार में कोई पडा ही नहीं। निश्चय की ही सब बातें की हैं। व्यवहार में निश्चय नहीं आया है। निश्चय निश्चय में रहा है और व्यवहार व्यवहार में रहा हुआ है। पर यह तो व्यवहार में निश्चय लाकर रखा है, अक्रम विज्ञान ने। और पूरा नया ही शास्त्र निर्मित किया है और वह साइन्टिफिक है वापिस । इसमें किसी जगह पर विरोधाभास नहीं हो सकता। पर अब यह 'अक्रम विज्ञान' प्रकाश में कैसे आए? प्रकाश में आए तो जगत् का कल्याण हो जाएगा! प्रश्नकर्ता : उसका संयोग भी आएगा न? दादाश्री : हाँ, आएगा न! जय सच्चिदानंद होता। जब खुद की वाणी खुद सुना करेगा तब मोक्ष होगा। हाँ, वाणी बंद होने से दिन नहीं बदलेंगे। वाणी बंद होने से मोक्ष नहीं होगा। क्योंकि ऐसे बंद करने गए, इसलिए फिर दूसरी शक्ति वापिस खड़ी हो गई। सभी शक्तियों को ऐसे ही चलने देना। प्राकृत शक्तियाँ हैं ये सारी । प्राकृत शक्तियों में हाथ डालने जैसा नहीं है। इसलिए कहते हैं न हमारी वाणी को कि यह टेपरिकॉर्डर बजता रहता है, जिसे हम देखा करते हैं। बस, यही मोक्ष ! इस टेपरिकॉर्ड को देखे, वह सब मोक्ष!! इसलिए हमें हर एक कार्य गलन होते समय शुद्धिकरण करके निकालने हैं और उसका निकाल करना। हाँ, समताभाव से निकाल करना है। समझे तो बात बहुत मुश्किल नहीं है और नहीं समझे तो उसका अंत नहीं आए ऐसा है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपरी कल्प गोठवणी ध नियाणां धौल सिलक तायफ़ा उपलक कढ़ापा अजंपा राजीपा सिलक पोतापणुं लागणी उपाधि च्यवन वैक्रियिक मूल गुजराती शब्दों के समानार्थी शब्द : बॉस, वरिष्ठ मालिक : कालचक्र : सेटिंग, प्रबंध, व्यवस्था : अत्यंत राग अथवा द्वेष सहित लम्बे समय तक याद रखना, नोट करना : अपना सारा पुण्य लगाकर किसी एक वस्तु की कामना करना : हथेली से मारना : राहखर्च, पूँजी : फज़ीता : सतही, ऊपर ऊपर से, सुपरफ्लुअस : कुढ़न, क्लेश : बेचैनी, अशांति, घबराहट गुरजनों की कृपा और प्रसन्नता : जमापूंजी : मैं हूँ और मेरा है, ऐसा आरोपण, मेरापन : भावुकतावाला प्रेम, लगाव : बाहर से आनेवाला दुःख : आत्मा की दैवीय शरीर छोड़ने की क्रिया : देवताओं का अतिशय हल्के परमाणुओं से बना हुआ शरीर जो कोई भी रूप धारण कर सकता है नमस्कार विधि प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में विचरते तीर्थंकर भगवान श्री सीमंधर स्वामी को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। (४०) प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों में विचरते ॐ परमेष्टी भगवंतों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ । (५) प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों में विचरते पंच परमेष्टी भगवंतों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। (4) : प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों में विहरमान तीर्थंकर साहिबों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। (५) : वीतराग शासन देवी-देवताओं को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। (५) निष्पक्षपाती शासन देवी-देवताओं को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। (५) चौबीस तीर्थंकर भगवंतों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। (4) श्री कृष्ण भगवान को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ । (५) ܀ ܀ ܀ ܀ भरत क्षेत्र में हाल विचरते सर्वज्ञ श्री दादा भगवान को निश्चय से अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ । दादा भगवान के सर्व समकितधारी महात्माओं को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। (५) * सारे ब्रह्मांड के समस्त जीवों के रिअल स्वरूप को अत्यंत ܀ ܀ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। • रीयल स्वरूप ही भगवत् स्वरूप है, इसलिए सारे विश्व को भगवत् स्वरूप से दर्शन करता हूँ। रीयल स्वरूप ही शुद्धात्म स्वरूप है, इसलिए सारे विश्व को शुद्धात्म स्वरूप से दर्शन करता हूँ। * रीयल स्वरूप ही तत्त्व स्वरूप है, इसलिए सारे विश्व को तत्त्वज्ञान रूप से दर्शन करता हूँ। नौ कलमें १. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे (दु:खे), न दुभाया (दुःखाया) जाये या दुभाने (दु:खाने) के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे किसी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे, ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम शक्ति दो। २. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभे, न दुभाया जाये या दुभाने के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभाया जाये ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्यावाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम शक्ति दो। ३. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी उपदेशक साधु, साध्वी या आचार्य का अवर्णवाद, अपराध, अविनय न करने की परम शक्ति दो। ४. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति किंचित्मात्र भी अभाव, तिरस्कार कभी भी न किया जाये, न करवाया जाये या कर्ता के प्रति न अनुमोदित किया जाये, ऐसी परम शक्ति दो। ५. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के साथ कभी भी कठोर भाषा, तंतीली भाषा न बोली जाये, न बुलवाई जाये या बोलने के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। कोई कठोर भाषा, तंतीली भाषा बोलें तो मुझे मृदु-ऋजु भाषा बोलने की शक्ति दो। ६. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति स्त्री, पुरुष या नपुंसक, कोई भी लिंगधारी हो, तो उसके संबंध में किचिंत्मात्र भी विषय-विकार संबंधी दोष, इच्छाएँ, चेष्टाएँ या विचार संबंधी दोष न किये जायें, न करवाये जायें या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे निरंतर निर्विकार रहने की परम शक्ति दो। ७. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी रस में लुब्धता न हो ऐसी शक्ति दो। समरसी आहार लेने की परम शक्ति दो। ८. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष, जीवित अथवा मृत, किसी का किंचित्मात्र भी अवर्णवाद, अपराध, अविनय न किया जाये, न करवाया जाये या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जायें, ऐसी परम शक्ति दो। ९. हे दादा भगवान ! मुझे जगत कल्याण करने में निमित्त बनने की परम शक्ति दो, शक्ति दो, शक्ति दो। (इतना आप दादा भगवान से माँगा करें। यह प्रतिदिन यंत्रवत पढ़ने की चीज नहीं है, हृदय में रखने की चीज़ है। यह प्रतिदिन उपयोगपूर्वक भावना करने की चीज़ है। इतने पाठ में समस्त शास्त्रों का सार आ जाता है।) प्रतिक्रमण विधि प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, देहधारी (जिसके प्रति दोष हुआ हो, उस व्यक्ति का नाम) के मन-वचन-काया के योग, भावकर्म-द्रव्यकर्मनोकर्म से भिन्न ऐसे हे शुद्धात्मा भगवान, आपकी साक्षी में, आज दिन तक मुझसे जो जो ** दोष हुए हैं, उसके लिए क्षमा माँगता हूँ। हदयपूर्वक बहुत पश्चाताप करता हूँ। मुझे क्षमा करें। और फिर से ऐसे दोष कभी भी नहीं करूँ, ऐसा दृढ़ निश्चय करता है। उसके लिए मुझे परम शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए। ** क्रोध-मान-माया-लोभ, विषय-विकार, कषाय आदि से किसी को भी दुःख पहुँचाया हो, उस दोषो को मन में याद करें। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें हिन्दी 1. ज्ञानी पुरूष की पहचान 19. भावना से सुधरे जन्मोजन्म 2. सर्व दुःखों से मुक्ति 20. पति-पत्नी का दिव्य 3. कर्म का विज्ञान व्यवहार 4. आत्मबोध 21. माता-पिता और बच्चों का 5. मैं कौन हूँ? व्यवहार 6. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर 22. समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य स्वामी 23. दान 7. भूगते उसी की भूल 24. मानव धर्म 8. एडजस्ट एवरीव्हेयर 25. सेवा-परोपकार 9. टकराव टालिए 26. मृत्यु समय, पहले और पश्चात 10. हुआ सो न्याय 27. निजदोष दर्शन से... निर्दोष 11. चिंता 28. प्रेम 12. क्रोध 29. क्लेष रहित जीवन 13. प्रतिक्रमण 30. अहिंसा 14. दादा भगवान कौन? 31. सत्य-असत्य के रहस्य 15. पैसों का व्यवहार 32. चमत्कार 16. अंत:करण का स्वरूप 33. पाप-पुण्य 17. जगत कर्ता कौन? 34. वाणी, व्यवहार में... 18. त्रिमंत्र 35. आप्तवाणी-१ प्राप्तिस्थान दादा भगवान परिवार अडालज : त्रिमंदिर संकुल, सीमंधर सिटी, अहमदाबाद-कलोल हाईवे, पोस्ट : अडालज, जिला : गांधीनगर, गुजरात - 382421. फोन : (079) 39830100, email : info@dadabhagwan.org अहमदाबाद : दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसाइटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४.. फोन : (079)27540408, 27543979 राजकोट : त्रिमंदिर, अहमदाबाद-राजकोट हाईवे, तरघडिया चोकड़ी, पोस्ट : मालियासण, जिला : राजकोट. फोन : 9924343478 भुज : त्रिमंदिर, हिल गार्डन के पीछे, सहयोगनगर के पास, एयरपोर्ट रोड, भुज (कच्छ), गुजरात. संपर्क : 02832 236666 मुंबई : 9323528901 पुणे : 9822037740 वड़ोदरा : (0265)2414142 बेंगलूर : 9341948509 कोलकता : 033-32933885 U.S.A. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 100, SW Redbud Lane, Topeka, Kansas 66606. Tel: 785-271-0869, E-mail : bamin@cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA92882,Tel. : 951-734-4715, E-mail: shirishpatel@sbcglobal.net U.K. : Dada Centre,236, Kingsbury Road, (Above Kingsbury Printers), Kingsbury, London, NW9 OBH, Tel. :07956476253, E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada : Dinesh Patel, 4, Halesia Drive, Etobicock, Toronto, M9W6B7. Tel. : 416675 3543 E-mail: ashadinsha@yahoo.ca Canada : +1416-675-3543 Australia : +61421127947 Dubai : +971506754832 Singapore: +6581129229 Website : www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में भी 55 पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में "दादावाणी" मैगेज़ीन प्रकाशित होता है।