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वाणी, व्यवहार में... 'फलानी जगह पर रखो।' तो हमें वहाँ पर रख देने चाहिए। उसके बदले वह कहे कि, 'तुझे अक्कल नहीं, यहाँ वापिस कहाँ रखने को तू कहती है?' तब फिर पत्नी कहेगी कि, 'अक्कल नहीं तभी तो मैंने आपको ऐसा कहा, अब आपकी अक्कल से रखो।' इसका कब अंत आए? ये संयोगों के टकराव हैं सिर्फ!
प्रश्नकर्ता : पर सबकी बुद्धि थोडे ही समान होती है दादा! विचार समान नहीं होते। हम अच्छा करें तब भी कोई समझता नहीं, उसका क्या करें?
दादाश्री : ऐसा कुछ भी नहीं है। सारे ही विचार समझ में आते हैं। पर सब खुद अपने आप को ऐसा मानते हैं कि मेरे विचार सच्चे हैं ऐसा। उसी प्रकार बाक़ी सभी के विचार गलत हैं। सोचना नहीं आता है। भान ही नहीं है वहाँ पर। मनुष्य की तरह भी भान नहीं है। ये तो मन में मान बैठे हैं कि मैं बी.ए. और ग्रेज्युएट हो गया। पर मनुष्य की तरह भान हो तो क्लेश ही नहीं हो। सब जगह खुद एडजेस्टेबल हो जाए। ये दरवाज़े खड़कें, तो भी अच्छा नहीं लगता हमें, दरवाजा हवा से टकराए तो आपको अच्छा लगता है?
वाणी, व्यवहार में... उसके ऊपर रौब मारना है। इस तरह पतिपन बताना है। फिर बुढ़ापे में आपको बहुत अच्छा (!) देगी। पति कछ माँगे तो, 'ऐसे क्या कच-कच करते रहते हो, सोए पड़े रहो न', कहेगी। इसलिए जान-बूझकर पड़े रहना पड़ता है। यानी आबरू ही जाती है न। इसके इच्छा तो मर्यादा में रहो। घर पर झगड़ा-वगड़ा क्यों करते हो? लोगों से कहो, समझाओ कि घर में झगड़े मत करना। बाहर जाकर करना और बहनों, तुम भी मत करना हाँ!
प्रश्नकर्ता : वाणी से कुछ भी क्लेश नहीं होता। पर मन में क्लेश उत्पन्न हुआ हो, वाणी से नहीं कहा हो, पर मन में बहुत होता है, तो उसे क्लेश रहित घर कहना चाहिए?
दादाश्री : वह और अधिक क्लेश कहलाता है। मन बेचैनी का अनुभव करे उस समय क्लेश होता ही है और बाद में हमें कहेगा. 'मझे चैन नहीं पड़ता।' वह क्लेश की निशानी। हल्के प्रकार का हो या भारी प्रकार का। भारी प्रकार के क्लेश तो ऐसे होते हैं कि हार्ट भी फेल हो जाता है। कितने तो ऐसा बोल बोलते हैं कि हार्ट तरन्त खाली हो जाता है। सामनेवाले को घर खाली ही करना पड़ता है, घर का मालिक आ जाए, फिर!!
प्रश्नकर्ता : किसीने जान-बूझकर कोई वस्तु फेंक दी तो वहाँ पर कौन-सा एडजस्टमेन्ट लेना चाहिए?
दादाश्री : वह तो फेंक दिया, पर बेटा फेंक दे तो भी हमें 'देखते' रहना है। बाप बेटे को फेंक दे तो हमें देखते रहना है। तब क्या हमें पति को फेंक देना चाहिए? एक को तो अस्पताल भेजना पड़ा। अब वापिस दो को अस्पताल में भेजना है?! और फिर जब उसे मौका मिलेगा तब वह हमें पछाड़ेगा। फिर तीसरे को अस्पताल जाना पड़ेगा।
प्रश्नकर्ता : तो फिर कुछ कहना ही नहीं चाहिए?
दादाश्री : कहो, पर सम्यक् कहना, यदि बोलना आए तो। नहीं तो कुत्ते की तरह भौंकते रहने का अर्थ क्या है? इसलिए सम्यक् कहना।
प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : तो फिर मनुष्य झगड़ें तो कैसे अच्छा लगेगा? कुत्ते झगड़ते हों तो भी अच्छा नहीं लगता हमें।
यह तो कर्म के उदय से झगड़े चलते रहते हैं, पर जीभ से उल्टा बोलना बंद करो। बात को पेट में ही रखो, घर में या बाहर बोलना बंद करो। कई स्त्रियाँ कहती हैं, 'दो धौल लगाओ तो अच्छा, पर ये आप जो बोलते हो न तो मेरी छाती में घाव लगते हैं!' अब लो, छूता नहीं और कैसे घाव लगते हैं!
खुद टेढ़ा है मुआ। अब रास्ते में ज़रा छप्पर पर से एक इतना पत्थर का टुकड़ा गिरे, खून निकले, वहाँ क्यों नहीं बोलता? यह तो जान-बूझकर