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________________ वाणी, व्यवहार में... प्रश्नकर्ता : पर जिसे झूठ बोलने की आदत हो गई है, वह क्या करे? दादाश्री : उसे तो फिर साथ-साथ प्रतिक्रमण करने की आदत डालनी पड़ेगी। और प्रतिक्रमण करे, तब फिर जोखिमदारी हमारी है। इसलिए अभिप्राय बदलो! झूठ बोलना वह जीवन के अंत समान है, जीवन का अंत लाना और झूठ बोलना दोनों समान हैं, ऐसा 'डिसाइड' (निश्चित) करना पड़ेगा। और फिर सच की पूंछ मत पकड़ना। प्रश्नकर्ता : बोलने में जन्म से ही तकलीफ़ है। दादाश्री : पिछले अवतार में जीभ लड़ाई थी न, हर जगह गालियाँ दी हों न, उसकी जीभ चली जाती है फिर। फिर क्या होगा? बोलने में कुछ भी बाकी रखते हैं? कर्म कम होंगे तो जीभ फिर से खुल जाएगी वापिस। पाँच-सात साल के बाद, वैसा कुछ भी नहीं रहेगा। वाणी, व्यवहार में... दादाश्री : एक तो, उसे गरज होती है, गरजवाला सहन करता है। दूसरा क्लेश नहीं हो इसलिए सहन करता है। तीसरा आबरू नहीं जाए, इसलिए सहन कर लेता है। कुत्ता भौंके परन्तु हमें नहीं भौंकना है, ऐसे किसी भी कारण से चला लेता है, निबाह लेते हैं लोग। ८. दुःखदायी वाणी के करने चाहिए प्रतिक्रमण भगवान के यहाँ सत्य और असत्य, दोनों होते ही नहीं हैं। यह तो यहाँ समाजव्यवस्था है। हिन्दुओं का सत्य, मुसलमानों का असत्य हो जाता है। और मुसलमानों का सत्य, वह हिन्दुओं का असत्य हो जाता है। यह सारी समाज-व्यवस्था है। भगवान के वहाँ सच्चा-झूठा कुछ होता ही नहीं। भगवान तो इतना कहते हैं कि, 'किसीको दु:ख हो तो हमें प्रतिक्रमण करना चाहिए।' दु:ख नहीं होना चाहिए अपने से। आप 'चंदूभाई' थे, वह इस दुनिया में सच है। बाक़ी, भगवान के वहाँ तो वह 'चंदूभाई' ही नहीं है। यह सत्य भगवान के वहाँ असत्य है। संसार चले, संसार छुए नहीं, बाधक नहीं हो और काम हो जाए, वैसा है। सिर्फ हमारी आज्ञा का आराधन करना है। 'चंदूभाई' झूठ बोलें, तो भी अपने यहाँ हर्ज नहीं है। झूठ बोलें तो सामनेवाले को नुकसान हुआ। तो हम 'चंदभाई' से कहें, 'प्रतिक्रमण कर लो।' झठ बोलने का प्रकृति गुण है, इसलिए बोले बगैर रहेगा नहीं। झूठ बोलने के लिए मैं आपत्ति नहीं उठाता। मैं झूठ बोलने के बाद प्रतिक्रमण नहीं करो तो आपत्ति उठाता हूँ। झूठ बोलें और प्रतिक्रमण के भाव हों, उस समय जो ध्यान बरतता है, वह धर्मध्यान होता है। लोग धर्मध्यान क्या है, उसे ढूंढते हैं। झूठ बोल लिया जाए, तब 'दादा' के पास माफ़ी माँग लेनी चाहिए और फिर झूठ नहीं बोला जाए, वैसी शक्तियाँ माँगनी चाहिए। प्रश्नकर्ता : मानों कि जीभ से कहा, तो उसे मेरी तरफ से तो दुःख हो गया कहलाएगा न? दादाश्री : हाँ, वह दुःख तो अपनी इच्छा के विरुद्ध हुआ है न, इसलिए हमें प्रतिक्रमण करना है। यही उसका हिसाब होगा, जो चुक गया। खोटी वाणी बोलने के कारण यह जीभ चली गई न! जीभ का जितना दुरुपयोग किया उतनी जीभ चली जाती है। प्रश्नकर्ता : मेरा स्वभाव, मेरे वचन कठोर हैं। किसीको भी ठेस पहुँचा देते हैं, दुःख हो जाता है। मुझे ऐसा नहीं है कि मैं उसे दुःख पहुँचाने के लिए बोल रहा हूँ। दादाश्री : दुःख हो वैसा नहीं बोलना चाहिए। किसी जीव को दुःख हो, वैसी वाणी बोलना, वह बहुत बड़ा गुनाह है। प्रश्नकर्ता : यह ऐसी वाणी होने का कारण क्या है? दादाश्री : रौब जमाने के लिए, दूसरों पर रौब जम जाए इसलिए। प्रश्नकर्ता : हम रौब जमाने के लिए कठोरता से बोले और सामनेवाला व्यक्ति सहन कर लेता है। वह सहन करता है, वह किस आधार पर सहन करता है?
SR No.009606
Book TitleVaani Vyvahaar Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size33 KB
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