________________
५६
वाणी, व्यवहार में... ले आए थे!' तब वह कहता है, 'मैं ढूंढ लाया था। तब उसका क्या दोष बेचारी का? ले आने के बाद उल्टी निकले, उसमें वह क्या करे, कहाँ जाए फिर?
जगत् में किसीको कुछ भी, एक अक्षर भी कहने जैसा नहीं है। कहना, वह रोग है एक प्रकार का! कहने का हो न तो वह रोग सबसे बड़ा है! सब अपना-अपना हिसाब लेकर आए हैं। यह दखल करने की ज़रूरत क्या है? एक अक्षर भी बोलना बंद कर देना। इसलिए तो हमने यह 'व्यवस्थित' का ज्ञान दिया है।
इसलिए जगत् में एक ही चीज़ करने जैसी है। कुछ भी बोलना नहीं आप। आराम से जो हो वह खा लेना और ये चले सब अपने-अपने काम पर, काम करते रहना। बोलना-करना नहीं। तू बोलती नहीं है न बच्चों के साथ, पति के साथ?
बोलना कम कर देना अच्छा। किसीको कुछ कहने जैसा नहीं है, कहने से अधिक बिगड़ता है। उसे कहें कि, 'गाड़ी पर जल्दी पहुँच', तो वह देर से जाएगा और कुछ नहीं कहें तो टाइम पर जाएगा। हम नहीं हों, तो सब चले वैसा है। यह तो खुद का गलत अहंकार है। जिस दिन से बच्चों के साथ कच-कच करना आप बंद कर दोगे, उस दिन से बच्चे सुधरेंगे। आपके बोल अच्छे नहीं निकलते, इसलिए सामनेवाला अकुलाता है। आपके बोल स्वीकार नहीं करता, उल्टे वे बोल वापिस आते हैं। हम तो बच्चों को खाना-पीना सब बनाकर दें और अपना फ़र्ज़ निभाएँ, दूसरा कुछ कहने जैसा नहीं है। कहने से फायदा नहीं है, ऐसा आपने सार निकाला है?
प्रश्नकर्ता : बच्चे उनकी जिम्मेदारी समझकर नहीं रहते हैं।
दादाश्री : जिम्मेदारी 'व्यवस्थित' की है। वह तो उसकी जिम्मेदारी समझा हुआ ही है। आपको उसे कहना नहीं आता है। इसलिए दखल होती है। सामनेवाला माने तब अपना कहा हुआ काम का है। यह तो माँ-बाप पागलों जैसा बोलते हैं फिर बच्चे भी पागलपन करते हैं।
वाणी, व्यवहार में... प्रश्नकर्ता : बच्चे असभ्यता से बोलते हैं।
दादाश्री : हाँ, पर वह आप किस तरह से बंद करोगे? यह तो आमने-सामने बंद हो तो सबका अच्छा हो।
एक बार मन में विरोध भाव पैदा हो गया फिर उसकी लिंक शुरू हो जाती है, फिर मन में उसके लिए ग्रह बंध जाता है कि यह मनुष्य ऐसा है। तब हमें मौन लेकर सामनेवाले को विश्वास में लेना चाहिए। बोलते रहने से किसीका सुधरता नहीं है! सुधरना हो तो 'ज्ञानी पुरुष' की वाणी से सुधरता है। बच्चों के लिए तो माँ-बाप की जोखिमदारी है। हम नहीं बोलें तो नहीं चलेगा? चलेगा। इसलिए भगवान ने कहा है कि जीते जी मरे हुए की तरह रह। बिगड़ा हुआ सुधर सकता है। बिगड़े हुए को सुधारना वह 'हमसे' हो सकता है, आपको नहीं करना है। आपको हमारी आज्ञा के अनुसार चलना है। वह तो जो सुधरा हुआ है, वही दूसरे को सुधार सकता है। खुद ही सुधरे नहीं हों तो दूसरे को किस तरह सुधार सकेंगे?
प्रश्नकर्ता : सुधरे हुए की परिभाषा क्या है?
दादाश्री : सामनेवाले व्यक्ति को आप डाँटों तो भी उसे उसमें प्रेम दिखे। आप उलाहना दो तो भी उसे आपमें प्रेम दिखे कि 'ओहोहो! मेरे फादर को मुझ पर कितना अधिक प्रेम है!' उलाहना दो. पर प्रेम से दो तो सुधरेंगे। इन कॉलेजों में ये प्रोफेसर यदि उलाहना देने जाएँ तो प्रोफेसरों को सभी मारेंगे!
सामनेवाला सुधरे उसके लिए अपने प्रयत्न रहने चाहिए। पर जो प्रयत्न रिएक्शनरी हों वैसे प्रयत्नों में नहीं पड़ना चाहिए। हम उसे डाँटें और उसे खराब लगे, वह प्रयत्न नहीं कहलाता। प्रयत्न अंदर करने चाहिए, सूक्ष्म प्रकार से! स्थूल प्रकार से यदि हमसे नहीं होता हो तो सुक्ष्म प्रकार से प्रयत्न करने चाहिए। अधिक उलाहना नहीं देना हो तो थोड़े में कह देना चाहिए कि, 'हमें यह शोभा नहीं देता।' बस इतना ही कहकर बंद रखना चाहिए। कहना तो पड़ेगा पर कहने का तरीका होता है।