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वाणी, व्यवहार में...
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न्याय क्या कहता है? नौ का बारह से भाग दो। वहाँ फिर उलझ जाता है। न्याय में तो क्या कहेंगे कि, 'वे ऐसा ऐसा बोले, इसलिए आपको ऐसा बोलना चाहिए।' आप एक बार बोलो तब फिर सामनेवाला दो बार बोलेगा। आप दो बार बोलो तो फिर सामनेवाला दस बार बोलेगा ।
जिस तरह के व्यवहार से लिपट गया है, उस तरह के व्यवहार से खुलता है। यह आप मुझे पूछते हो कि आप मुझे क्यों नहीं डाँटते ? तो मैं कहूँ कि, आप वैसा व्यवहार नहीं लाए हो। जितना व्यवहार आप लाए थे, उतना आपको टोक दिया। उससे अधिक व्यवहार नहीं लाए थे। हमें, ज्ञानी पुरुष को कठोर वाणी होती ही नहीं है और सामनेवाले के लिए कठोर वाणी निकले तो वह हमें पसंद नहीं आता। और फिर भी निकली, तो हम तुरन्त ही समझ जाते हैं कि इसके साथ हम ऐसा ही व्यवहार लाए हैं। वाणी सामनेवाले के व्यवहार के अनुसार निकलती है। वीतराग पुरुषों की वाणी निमित्त के अधीन निकलती है।
कोई कहेगा, 'इस भाई को दादा क्यों कठोर शब्द कहते हैं?' उसमें दादा क्या करें? वह व्यवहार ही ऐसा लाया है। कितने तो बिलकुल नालायक होते हैं, फिर भी दादा ऊँची आवाज़ से बोले ही नहीं होते। तब से ही नहीं समझ में आ जाए कि वह अपना व्यवहार कितना सुंदर लाया है! जो कठोर व्यवहार लाया हो, वह हमारे पास से कठोर वाणी पाता है।
अब हमारी वाणी उल्टी निकले, तो वह सामनेवाले के व्यवहार के अधीन है, पर हमें तो मोक्ष में जाना है, इसलिए उसका प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए।
प्रश्नकर्ता पर तीर निकल गया, उसका क्या?
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दादाश्री : वह व्यवहाराधीन है।
प्रश्नकर्ता: ऐसी परंपरा रहे तो बैर बढ़ेगा न?
दादाश्री : नहीं, इसलिए ही तो हम प्रतिक्रमण करते हैं। प्रतिक्रमण मात्र मोक्ष ले जाने के लिए नहीं है। पर वह तो बैर रोकने के लिए भगवान
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वाणी, व्यवहार में....
के वहाँ का फोन है। प्रतिक्रमण में कच्चे पड़े तो बैर बँधता है। भूल जब समझ में आए तब तुरन्त ही प्रतिक्रमण कर लो। उससे बैर बँधेगा ही नहीं। सामनेवाले को बैर बाँधना हो तो भी नहीं बँधेगा। क्योंकि हम सामनेवाले के आत्मा को सीधा ही फोन पहुँचाते हैं। व्यवहार निरूपाय है। सिर्फ यदि हमें मोक्ष में जाना हो तो प्रतिक्रमण करो, जिसे स्वरूपज्ञान नहीं हो, उसे व्यवहार को व्यवहार स्वरूप ही रखना हो तो, सामनेवाला उल्टा बोला, वही करेक्ट है ऐसा रखो। परन्तु मोक्ष में जाना हो तो उसके प्रतिक्रमण करो, नहीं तो बैर बँधेगा।
आपको अभी रास्ते में जाते हुए कोई कहे कि, 'आप नालायक हो, चोर हो, बदमाश हो।' ऐसी-वैसी गालियाँ दे दे और आपको वीतरागता रहे तो समझना कि इस बारे में आप उतने भगवान हो गए। जिस-जिस बारे में आप जीत गए उतनी बातों में आप भगवान हो गए। और आप जगत् से जीत गए तो फिर पूरे ही, पूर्ण भगवान हो गए। फिर किसीके साथ मतभेद नहीं पड़ेगा।
टकराव हुआ इसलिए हमें समझना चाहिए कि, 'मैं ऐसा कैसा बोल गया कि यह टकराव हुआ!' अर्थात् हो गया हल। फिर पजल सॉल्व हो गया। नहीं तो जब तक हम 'सामनेवाले की भूल है' ऐसा ढूंढने जाएँगे, तो कभी भी यह पज़ल सॉल्व नहीं होगा। 'अपनी भूल है' ऐसा मानेंगे तब ही इस जगत् का अंत आएगा। दूसरा कोई उपाय नहीं है। दूसरे सारे उपाय उलझानेवाले हैं। और उपाय करने, वह अपना अंदर का छुपा हुआ अहंकार है । उपाय किसलिए ढूंढते हो? सामनेवाला अपनी भूल निकाले तो हमें ऐसा कहना चाहिए कि 'मैं तो पहले से ही टेढ़ा हूँ । '
प्रश्नकर्ता: 'आप्तवाणी' मैं ऐसा लिखा है कि 'दादा चोर हैं' ऐसा कोई कहे तो महान उपकार मानना ।
दादाश्री : ऐसा किसके बदले में उपकार मानना चाहिए? क्योंकि कोई कहेगा नहीं ऐसा । यह प्रतिघोष है किसी चीज का तो यह मेरे खुद का ही प्रतिघोष है। इसलिए उपकार मानूँगा ।