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वाणी, व्यवहार में... किसीको गलत कहा, वह खुद के आत्मा पर धूल डालने के समान
वाणी, व्यवहार में...
कुछ लोग कहते हैं, 'ऐसा अक्रम ज्ञान तो कहीं होता होगा? घंटेभर में मोक्ष तो होता होगा?' ऐसा बोले कि उन्हें अंतराय पड़े। इस जगत् में क्या नहीं हो सकता, वह कहा नहीं जा सकता। इसलिए यह जगत् बुद्धि से नापने जैसा नहीं है। क्योंकि यह हुआ है, वह हक़ीक़त है। 'आत्मविज्ञान' के लिए तो खास अंतराय पड़े हुए होते हैं। यह सबसे अंतिम स्टेशन है।
प्रश्नकर्ता : संसार चीज़ ही ऐसी है कि जहाँ सिर्फ अंतराय ही हैं।
दादाश्री : आप खुद परमात्मा हो, पर उस पद का लाभ नहीं मिलता। क्योंकि निरे अंतराय हैं। 'मैं चंदूभाई हूँ' बोले कि अंतराय पड़े। क्योंकि भगवान कहते हैं कि, 'तू मुझे चंदू कहता है?' यह बिना समझे बोला तो भी अंतराय पड़ता है। अंगारों पर अनजाने में हाथ डालें तो वे छोड़ेंगे क्या?
प्रश्नकर्ता : दो लोग बात कर रहे हों और हम बीच में बोलें, तो वह क्या हमने दखलअंदाजी की कहलाएगा? या फिर हमारा डिस्चार्ज है वह?
दादाश्री : दखलअंदाजी करने से दखल हो जाती है। प्रश्नकर्ता : दख़ल करने से यानी किस तरह से होता है?
दादाश्री : वह कहे कि 'आप किसलिए बोले?' तब हम कहें, 'अब नहीं बोलूँगा।' तो वह दख़ल नहीं है। उसके बदले आप उस घड़ी यदि कहो कि 'मैं नहीं बोलें तो नहीं चलेगी यह गाड़ी, बिगड़ जाएगा सब।' वह दखल की। बीच में बोल लिया जाए, वह दखलअंदाजी कहलाती है। पर वह दखलअंदाजी भी डिस्चार्ज है। अब उस डिस्चार्ज दख़ल में भी नई दखलअंदाज़ी हो जाती है।
दखलअंदाजी करना ही अंतराय है। आप परमात्मा हो, और परमात्मा को अंतराय किसलिए? पर ये तो दखलअंदाजी करते हैं कि, 'यह ऐसा क्यों किया? यह इस तरह से कर।' अरे, यह किसलिए करते हो ऐसा?
हमें जैसा पसंद हो वैसा बोलना चाहिए। ऐसा प्रोजेक्ट करो कि आपको पसंद आए। यह सब आपका ही प्रोजेक्शन है। इसमें भगवान ने कोई दखल नहीं की है। किसीके ऊपर डालो तो सारी ही वाणी अंत में आपके ही ऊपर आती है। इसलिए ऐसी शुद्ध वाणी बोलो कि शुद्ध वाणी ही आपके ऊपर पड़े।
हम किसीको भी 'तू गलत है' ऐसा नहीं कहते। चोर को भी गलत नहीं कहते। क्योंकि उसके व्यू पोइन्ट से वह सच्चा है। हाँ, हम उसे चोरी करने का फल क्या आएगा, वह 'जैसा है वैसा', उसे समझाते हैं।
३. शब्दों से सर्जित अध्यवसन... ये जो तार बजते हैं न, वह एक ही तार हिलाएँ तो कितनी आवाज़ होती है अंदर?
प्रश्नकर्ता : बहुत बजते हैं।
दादाश्री : एक ही हिलाओ तो भी? वैसे ही यह एक ही शब्द बोलें, उससे भीतर कितने ही शब्द खड़े हो जाते हैं। उसे भगवान ने अध्यवसन कहा है। अध्यवसन मतलब नहीं बोलना हो, तो भी वे खड़े हो जाते हैं सारे। खुद का बोलने का भाव हो गया न, इसलिए वे शब्द अपने आप बोल लिए जाते हैं। जितनी शक्ति होती है न वह सारी जागृत हो जाती है। इच्छा नहीं हो तो भी ! अध्यवसन इतने सारे खड़े हो जाते हैं कि कभी भी मोक्ष में नहीं जाने दें। इसलिए ही तो हमने अक्रम विज्ञान दिया है, कितना सुंदर अक्रम विज्ञान है। कोई भी बुद्धिशाली मनुष्य इस पज़ल का अंत ला दे, ऐसा विज्ञान है।
__ 'आप नालायक हो' ऐसा बोलें न, वह शब्द सुनकर उसे तो दुःख हुआ ही? पर उसके जो पर्याय खड़े होते हैं, वे आपको बहुत दुःख देते हैं और आप कहो, 'बहुत अच्छे व्यक्ति, आप बहुत भले व्यक्ति हो', तो