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श्रतसागर | श्रुतसागर
SHRUTSAGAR (MONTHLY) May-2019, Volume :05, Issue : 12, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/
EDITOR : Hiren Kishorbhai Doshi
BOOK-POST / PRINTED MATTER
SONRA SSINAYAVAGINA
चार कषायों के प्रतिक चित्र
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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000000000000000000000000000 ' नागौर नगर की धन्यधरा पर सुमतिनाथ जिनालय व दादावाडी के प्रतिष्ठा महोत्सव प्रसंग की विशिष्ट झलकियाँ. 00.00000000000000000000000.00
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आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर મૃતસાગર SHRUTSAGAR (Monthly)
वर्ष-५, अंक-१२, कुल अंक-६०, मई-२०१९
Year-5, Issue-12, Total Issue-60, May-2019 वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Price per copy Rs. 15/
आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा राहुल आर. त्रिवेदी
एवं
ज्ञानमंदिर परिवार १५ मई, २०१९, वि. सं. २०७५, वैशाख शुक्ल-११
आराधक
तवीर जन
श्री महान
तकेन्द्र.
5
अमृत
पतु विद्या
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय)
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
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आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा राहुल आर. त्रिवेदी
एवं
ज्ञानमंदिर परिवार १५ मई, २०१९, वि. सं. २०७५, वैशाख शुक्ल-११
आराधन
श्रा कन्न.
महावीर
अमृतं तू
विद्या
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(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय)
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
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श्रुतसागर
१. संपादकीय
२. गुरुवाणी
३. Awakening
४. ज्ञानसागरना तीरे तीरे
५. चार कषाय सज्झाय
६. श्री नारंगा पार्श्वनाथ स्तवन
७. गुजराती बोलीमां विवृत अने संवृत ए-ओ
८. श्रुतसेवा के क्षेत्र में आचार्य
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९. पुस्तक समीक्षा
१०. समाचार सार
श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का
योगदान
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अनुक्रम
रामप्रकाश झा
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी
राहुल आर. त्रिवेदी डॉ. हेमन्तकुमार
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Acharya Padmasagarsuri
डॉ. कुमारपाल देसाई डिम्पलबेन शाह
गणि सुयशचंद्रविजयजी
चुनीलाल वर्धमान शाह
नाम कहै जगनाथ, हाथ पर दीधो खावे । पंडित नांम धराय, जोइ पूछीयै सो नावै ॥
मई - २०१९
* प्राप्तिस्थान*
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में
डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनिक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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६
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प्रत क्र. १२२०३३
भावार्थ- जगन्नाथ नाम से जाना जाता हो लेकिन भोजन भी परदत्त खाता हो, वैसे ही पंडित नाम धारण करने वाला हो किन्तु जब कुछ पूछा जाए , तब योग्य उत्तर न दे सके, तो ऐसे नाम को धारण करने का क्या मतलब?
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संपादकीय
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May-2019
रामप्रकाश झा
श्रुतसागर का यह नवीन अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हुए हमें अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है ।
प्रस्तुत अंक में “गुरुवाणी” शीर्षक के अन्तर्गत “सिद्धाचलजीनी आध्यात्मिक यात्रा” लेख प्रकाशित किया जा रहा है। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनों की पुस्तक ' Awakening' से क्रमबद्ध श्रेणी अंतर्गत संकलित किया गया है। “ज्ञानसागरना तीरे तीरे” नामक तृतीय लेख में डॉ. कुमारपाल देसाई के द्वारा आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय प्रस्तुत किया गया है।
अप्रकाशित कृति प्रकाशन के क्रम में सर्वप्रथम श्रीमती डिम्पलबेन शाह के द्वारा सम्पादित तत्त्वविजय गणि द्वारा रचित “चार कषाय सज्झाय” प्रस्तुत किया जा रहा है। इस कृति में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों की कटुता का वर्णन उपयुक्त दृष्टान्तों के साथ किया गया है। द्वितीय कृति के रूप में गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी के द्वारा सम्पादित “नारंगापार्श्वनाथ स्तवन" प्रकाशित किया जा रहा है।
पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में बुद्धिप्रकाश, ई.१९३४, पुस्तक-८१, अंक-३ में प्रकाशित “गुजराती बोलीमां विवृत अने संवृत ए-ओ” नामक लेख के आगे का अंश प्रकाशित किया जा रहा है।
पुस्तक समीक्षा के अन्तर्गत पूज्य आचार्य श्री यशोविजयसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्य पूज्य मुनि श्री भक्तियशविजयजी म. सा. के द्वारा सम्पादित “गूढार्थतत्त्वालोक” पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है।
इस अंक में "श्रुतसेवा के क्षेत्र में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर का योगदान” नामक शीर्षक के अंतर्गत इस संस्था के द्वारा श्रुतसेवा के क्षेत्र में किए जा रहे उल्लेखनीय कार्यों तथा विविध परियोजनाओं का वर्णन प्रकाशित किया गया है।
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हम यह आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत करायेंगे ।
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मई-२०१९
गुरुवाणी
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी सिद्धाचलजीनी आध्यात्मिक यात्रा सिद्धाचल बे प्रकारे छे एक द्रव्यसिद्धाचल, बीजो भावसिद्धाचल. द्रव्यसिद्धाचल श्री शनुजय तीर्थ जाणवू अने भावसिद्धाचल पोतानो आत्मा जाणवो. कारण के सिद्ध पण आत्मा छे ने अचल पण आत्मा छे. जेम सिद्धाचल पर्वत पुद्गलना स्कंधोथी बनेलो छे. तेम आत्मा असंख्यात प्रदेशोथी परिपूर्ण छे. द्रव्यसिद्धाचल जेम पवित्र करे छे तेम सिद्धाचल रूप जे आत्मा तेनुं स्मरण करतां ध्यान करतां अनंत जन्म मरणना फेरा टाळे छे का छे के
एकैकस्मिन् पदे दत्ते, शत्रुजयगिरि प्रति भवकोटि सहस्त्रेभ्यः पातकेभ्यो विमुच्यते ॥३॥
शुद्ध देवगुरू धर्मनी श्रद्धा सहित वीर्योल्लास वधते छते जे भव्यजीव सिद्धाचल सन्मुख एकेक डगलु भरे छे ते जीव क्रोड वर्ष सुधी करेलां पापोथी छूटी जाय छे. पापी अभविजीवोने तो ए गिरिराजनां दर्शन पण थवां दुर्लभ छे.
ए गिरिराजनो एवो महिमा छे के त्यां जनार जीवोनी परिणामनी धारा सारी, शुभ, शुद्ध थती जाय छे, अने कर्ममेल दूर थतो जाय छे. माटे साक्षात् ए गिरिराजनां दर्शन करतां चक्षु पाम्यानुं सार्थक जाणवू अने गिरिराजना स्पर्शन थकी पग पाम्यानुं सार्थक जाणवू. ___त्यां जइ द्रव्यथी गिरिराजनुं नमन करवू अने भावथी मननी निर्मळता करवी, शुद्ध वस्त्रो पहेरी पहेलां तलाटीए समता पूर्वक चैत्यवंदन करी उपर नीचीदृष्टि राखी समभावे करी कलंक नाश करता करता चढवु अने चालतां कारणविना बीजा माणस साथे वातचित पण करवी नहि, तेम हसवू पण नहि. आत्मस्वरूपनुं चिंतवन करवू.
अगर चालतां पगने थाक लागे तो मनमां विचारवू के चेतन खरो थाक आज सहन करजे के जेथी वारंवार जन्म मरणनो भय लागे नहि. वळी चालतां सारा माणसोनी साथे ए गिरिनु स्पर्शन करवू.
अनादिकाळथी खराब चाल आत्मानो पड्यो छे तेनो ते वखते त्याग करवो जोइए.
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May-2019
क्रोध, मान, माया, लोभ वगेरे रखे वचे ते ठेकाणे मनमां पेशीने आत्माने छेतरे नहि. चालतां पोतानी नानी अवस्था हती त्यारथी जेटलां पाप यादीमां आवे तेटलां संभारी संभारी शुद्धअंतःकरणपूर्वक मिच्छामि दुक्कडं देवो.
चोरी, जारी, छळ, कपट, जीवनी हिंसा, असत्यवचन, देवगुरूधर्मनी निंदा करी होय ते सर्वे दुष्कृत्य वैराग्यपूर्वक मनमां संभारी निंदवां के जेथी पापकर्म आत्मा साथे लागेलां छे ते नाश पामतां जाय. वळी मनमां विचारवुं के हे चेतन ! घणा सारा भावथी अहिं कर्मनो नाश करवा आव्यो छे, माटे कंइ पण बाकी मूकीश नहि. भव्यजीवोने ए गिरि स्वप्नमां सुवर्णनो देखाय छे ए वात सत्य छे. ए गिरिनां भावथी दर्शन करतो मनुष्य आत्माने उज्ज्वल करे छे अने पोतानो सिद्धाचल आत्मा तेनां दर्शन करे छे.
ए गिरि चढतां ज्यारे अप्रमत्त हिंगलाजनो हडो आवे छे त्यारे पापनो घडो फुटे छे. हिंगलाज सुधी आवतां खुब थाक लागे छे. त्यारे चेतन थाक लेवा विश्राम करे छे. ते वखते भावना भाववी के हे चेतन ! मनमां विचार के तें कोइ वखत भावे करी आत्मारूप सिद्धाचल गिरिनां दर्शन कर्या होत तो आ थाक लागे छे ते लागत नहि. आ थाक तने लागतो नथी, थाक पुद्गलने लागे छे पण ते ते सारो थाक लागे छे के जेथी तारां भवोभवनां पाप चाल्यां जतां, तुं थाकरहीत थाय छे माटे चढता परिणाम राख.
स्त्री पुत्र परिवारने माटे त्हें टाढ, तडका, भूख, तृषा इत्यादि घणां दुःख सहन कर्यां पण ते दुःखथी मुक्तिपद पाम्यो नहि, पण जो आ वखते तुं शरीरनुं दुःख सहन करीश तो मुक्तिपद सहेलुं छे. एम विचारी शुभभावे हे चेतन ! आगळ वध अने आदिनाथनां दर्शन करी आत्मस्वरूप प्राप्त कर. एम वधी आगळ चालतां पांडवो विगेरेनां दर्शन करी विचारो के अहो ! ते पुण्यवंता महाबळवान हता. तेओ पण एक वखत आ जगतमांथी चाल्या गया. तो हे चेतन ! विचार के तुं केम पारकी वस्तु पोतानी मानी पापनी प्रवृत्ति कर्या करे छे.
मरती वखते जीवनी साथे पुण्य ने पाप आवे छे. माटे आत्मध्यानीओ तो काळानुभावे पुण्य अने पापनो पण त्याग करी सिद्ध स्थानमां बीराजे छे. जे जीव भावथी शत्रुंजय पर चढे छे ते जीव पोताने उत्पन्न थयेला एवा जे सारा भाव तेथी गुणश्रेणिपर चढी केवलज्ञान पामी परमात्मपद प्राप्त करे छे.
धार्मिक गद्य संग्रह भा. १ पृ. ८९६
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Awakening
message:
Acharya Padmasagarsuri
(from past issue...)
But all such thoughts of renunciation disappear from their minds even while they are returning home from the cremation ground. The transitory objects of wordly life begin to attract their minds.
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While walking on the road if their eyes fall on some cinema-poster, they, at once, entertain the desire to see the movie. That desire will not be satisfied until they see the movie. How can they get concentration (which is essential for the peace of mind) until their desire is satisfied? The implication is that they should not entertain such desires.
Lord Mahavira has given a profoundly significant
जयं चरे जयं चिट्ठे जयं आसे जयं सए ।
जयं भुंजंतो भासंतो पावं कम्मं न बन्धइ ॥
मई -२०१९
Jayam chare Jayam chitthe Jayam ase jayam saye Jayam bhujanto bhasanto pavam Kammam na bandhayi
People who are careful in moving, in staying anywhere, in sitting anywhere, in sleeping, in eating and in speaking, will not commit sins.
Every action of ours should be done with great care, discretion and thoughtfulness. This is the ideal embodied in the Lord's message.
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He whose actions are noble is a true gentleman. He does not eat food for the taste of it. He accepts food only to keep his body fit and healthy. The meaning of this is he eats that he may
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May-2019 live; and does not live to eat. Eating food to satisfy hunger is necessary though harmful to the soul; but eating voraciously to enjoy the taste of food is not only meaningless but harmful to the soul. The latter causes greater sin.
We worry and trouble others; and others keep worrying and troubling us. In this manner, situations arise in life which compel us to commit sins. The fruit of merit or a noble action is happiness. The fruit of sin is sorrow. Though people know this, they do not refrain from committing sins. Thousands of years ago, the great sage and poet, Bhagavan Vyasa wrote;
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । पापस्य फलं नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥ Punyasya Phalamichchanti punyam nechanti manavah Papasya Phalam nechchanti Papam kurvanti yatnatah
People desire the fruit of merit but do not desire to acquire merit or to do any noble action. As opposed to this, people do not desire the fruit of sin but they deliberately and with effort commit sin. The words of the great sage are true even today. Until now, man's nature has not undergone any change.
If a piece of iron is covered with mud, it will not become gold even if it is touched by parasmani or the philosopher's stone. In the same manner as long as the soul is covered with ignorance and passions the noble precepts of the preceptor will not have any effect on it. If man attains self-realization or if man understands the true nature of his soul he can become a great man. Man requires a strong determination to realize the nature of his soul.
(continue...)
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श्रुतसागर
मई-२०१९ ज्ञानसागरना तीरे तीर (योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज:२)
डॉ. कुमारपाल देसाई (गतांक से आगे)
आवा योगनिष्ठ आचार्य बुद्धिसागरसूरीश्वरजीना एक वर्षनी प्राप्त थती रोजनीशी पर दृष्टिपात करीए। केटलीक रोजनीशीमा भौतिक प्रवृत्तिओनी नोंध होय छे ज्यारे थोडीक एवी रोजनीशी (डायरी) होय छे के जेमां केवळ आध्यात्मिक अनुभवोनुं निरूपण ज होय छे, अने लखनार एमां पोताना वांचन, मनन, निदिध्यासन, आत्मचिंतन, आत्मानंद इत्यादि आंतरगुहामां चालती घटनाओनी नोंध आपे छ । जो तेनामां साहित्यिक शक्ति होय तो, तेने लगता गद्य-पद्यना उद्गारोमा साहित्यिक सुगंध आववा पामे छे। निःस्पृह अने निर्मम भावे, केवळ आध्यात्मिक प्रगति के पीछेहठनी नोंध के निजानंदनी अभिव्यक्ति माटे लखनारा विरल होय छे । योगसाधक आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजीनी रोजनीशी आ प्रकारनी छे। तेमना सुदीर्घ जीवनकाळना लांबा पटने आवरी लेती अनेक वर्षांनी रोजनीशीओ एमणे लखी होवा छतां, एमनी ज वर्षनी रोजनीशी अत्यारे प्राप्त थाय छे।
नानकडी डोकाबारीमाथी महेलमां नजर नाखीए अने जेम तेनी अंदर रहेली अमूल्य समृद्धिनुं दर्शन थाय, एवो अनुभव श्री बुद्धिसागरसूरिजीनी आ एक वर्षनी रोजनीशी परथी थाय छे । आमांथी तेमना भव्य-अद्भुत जीवनकार्यनो ख्याल आवी जाय छ। आमां तेओना योग, समाधि, अध्यात्मचिंतन, विशाळ अने वैविध्यपूर्ण वांचन, लोकहितकारी प्रवृत्तिओनुं आयोजन अने गझलमां मस्तीरूपे प्रगटता निजानंदनुं दर्शन थाय छे।
समग्र जीवनमा एक वर्षनुं महत्त्व केटलुं? पळनो पण प्रमाद नहि सेवनार जाग्रत आत्माने माटे तो अंतरयात्राना पथ पर प्रयाण करवा माटे प्रत्येक वर्ष नहि, बल्के प्रत्येक क्षण मूल्यवान होय छे अने भगवान महावीरनी पळमात्र जेटलोय प्रमाद नहि करवानी शीख, ए रीते चरितार्थ थई शके छे । आनो जीवंत आलेख आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजीनी वि. सं. १९७१नी, मात्र एक ज वर्षनी डायरीमांथी मळी जाय छ । एक बाजु विहार, व्याख्यान अने उपदेशनी धर्मप्रवृत्ति चाले, बीजी बाजु भिन्न भिन्न विषयोनां पुस्तकोनुं सतत वांचन थाय, साथोसाथ मननी प्रक्रिया तो चालु ज होय अने
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May-2019 आ बधामांथी चूंटाई धूंटाईने लेखन थतुं होय । हजी आटलंय ओछु होय तेम, अविरत ध्यानसाधना पण चालती ज होय अने कलाकोना कलाको सुधी ध्यान लगाव्या पछी थती आत्मानुभूतिनुं अमृतपान करवामां आवतुं होय!
आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजीनी आडायरीओमां एक बाजु सर्जनप्रक्रिया-निबंधो, काव्यो अने चिंतनो इत्यादिनो आलेख मळे छे, तो बीजी तरफ एमना विहार अने वांचनना उल्लेखो मळे छ । आ उल्लेखो प्रमाणमां ओछा छे, परंतु एक आत्मज्ञानीना उल्लेखो तरीके ते ध्यान खेंचे तेवा छे। ___ मध्यकालीन गुजराती साहित्यमां जैन साधुओने हाथे बहोळा प्रमाणमां साहित्यसर्जन थयु छ। अर्वाचीन युगमां ए परंपरानुं सातत्य आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजीनी साहित्योपासनामां जोवा मळे छ। एमणे मात्र चोवीस वर्षना साधु-जीवन दरमियान संस्कृत, हिंदी अने गुजराती एम त्रण भाषाओमां कुल ११५ जेटला ग्रंथो लख्या। ए समये साधुसमाजमां गमे ते रीते शिष्यो बनाववानी होड चालती हती; त्यारे ज्ञानोपासक बुद्धिसागरसूरिजीए ११५ अमर ग्रंथशिष्यो' बनाववानो निर्णय को हतो। एमना २५ ग्रंथो चिंतन अने तत्त्वज्ञानथी भरेला छे; २४ ग्रंथोमां एमनी काव्यरसवाणी वहे छे, ज्यारे संस्कृत भाषामां एमणे बावीसेक ग्रंथो लख्या हता। एमना काव्यसाहित्य विशे गुजरातना 'युगमूर्ति वार्ताकार' तरीके विख्यात नवलकथाकार श्री रमणलाल वसंतलाल देसाईए कह्यु हतुं :
“श्री बुद्धिसागरजी- साहित्य एटले? एने हिंदु पण वांची शके, जैन पण वांची शके, मुस्लिम पण वांची शके। सौने सरखं उपयोगी थई पडे तेवू ए काव्यसाहित्य, बुद्धिसागरसूरिजीने आपणा भक्त अने ज्ञानी कविओनी हारमा मूकी दे एवं छे।” __योगनिष्ठ आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजीना वांचन, मनन अने निदिध्यासननी त्रिवेणीनो अनुभव पण एमनी आ डायरीमाथी थाय छ। आगळ सूचव्यु तेम एमणे घणां वर्षोनी डायरीओ लखी हती, परंतु अत्यारे तो एमनी वि. सं. १९७१नी मात्र एक डायरी ज उपलब्ध थई छे । परंतु आ रोजनीशी ए कर्मयोगी, ध्यानयोगी अने ज्ञानयोगी आचार्यना व्यक्तित्वने नखशिख दर्शावी जाय छे।
१९७१नी आ रोजनीशीना आरंभे तेओ गुरुस्मरण करे छे। गुरुस्मरणना आ काव्यमा एमनी तन्मयता सतत तरवर्या करे छे । तेओ विचारे छे के, गुरु पासे मागवानुं शुं होय? ज्यां माग्या विना ज बधुं मळतुं होय छे।
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श्रुतसागर
मई-२०१९
श्री तत्त्वविजयजी कृत चार कषायसज्झाय
डिम्पलबेन शाह धर्मनी आराधना करवाथी विषयनो विराग, कषायनो त्याग, गुणनो अनुराग तथा क्रियामां अप्रमादभाव जन्मे छ । साची भक्ति द्वारा केळवायेलो धर्म शिवसुखनी प्राप्ति माटेनो सरळ मार्ग बने छे। धर्मनी साची आराधना त्यारे ज संभव छे के ज्यारे कषायो नबळा बने । कषायोनी उपस्थितिमां करेल धर्म बळीने खाक थई जाय छे । कषायो संसारमा पोतानी केवी पकड जमावीने बेठा छे तेनुं हूबहू वर्णन करती एक प्रायः अप्रगट कृति आपनी समक्ष प्रस्तुत करवानो एक नानकडो प्रयास कर्यो छे। आम कषायो उपर घणी सज्झायो प्राप्त थाय छे पण आ कृतिनी लाक्षणिकता कंईक अलग छे, जे वाचकने स्वाभाविक रीते तेना तरफ आकर्षे छ। कृति परिचय
आ कृतिमां कविनी खासियत रही छे के जे ते कषायनी कटुतानो उपदेश देवो, ते संदर्भे ते ते कषायनो भोग बनेलाना दृष्टांत आपवा अने अंते ते ते कषायने जीतनारनुं एक उदाहरण टांकवु । आम एक नवा ज अंदाजथी विषयनी प्रस्तुती करती आ कृति वाचकना दिमागमां विषयने आसानीथी उतारी दे छे। चार कषायोनी कटुता चार ढाळोमां वर्णवाई छ । चार कषायमां क्या-क्या दृष्टांतो लेवाया छे अने कषायोने केवीकेवी उपमाओथी दर्शावामां आव्या छे तेनो टुंक सार नीचे प्रमाणे छे। क्रोध__ कर्ताए क्रोधने कायामां रहेल सगडी जेवो अने दुर्गतिनो दाता कह्यो छे । क्रोध यशनो नाशक, समकित तथा तपना नाश साथे चारित्रने मलिन करनार कह्यो छे। क्रोधनी भयंकरता दर्शाववा केटलाक दृष्टांतो पण कर्ताए टांक्यां छे। जेमकेपरशुराम, सुभूम चक्रवर्ती, ब्रह्मदत्त चक्री, नमुची अने विष्णुमुनिनी वात, पालक अने खंधकमुनिनुं दृष्टांत, द्वीपायन, कुणाला नगरीनी खाळ पासे काउसग्ग रहेल अने क्रोधथी वर्षा करनार बे मुनिओनी वात करी अंते क्रोधने परास्त करनार समताना साधक कुरगडु मुनिनो महिमा पण गायो छे।
“म करो क्रोध अजाण रे, ए छइ जिनवर वाणि रे"
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SHRUTSAGAR
May-2019 जिनेश्वर प्रभुनी आज्ञा प्रमाणे अजाणताय क्रोध न करवानी शीख आपी छे । कर्ता समाजने दुर्गतिना खाडा समान नरकनी खीणमां जवाथी बचावे छे।
मान
मानथी महत्वनो नाश, नीच गोत्रनो बंध थाय छ। कीडा अने कंदमूल जेवा क्षुद्र भवोनी प्राप्ती थाय छ । ज्यां आपणु कोई नाम निशान नथी रहेतुं, एक अंशना अनंतमा भागे भराई रहेवू पडतुं होय छे, आवी-आवी गतिओमां भ्रमण करता एवा आपणने अहंकार शानो होय! वळी कर्ता कहे छे के आपणी उत्पत्ति गंदी जग्याए थई नव महिना सुधी अशुचिमां रही बहार आव्या त्यां आटलो अहंकार शानो होय! अहंकारथी पतन पामेला जीवोना दृष्टांतोमां मरीचि, रावण, जरासंघ, बाहबलीजी, हरिकेशी मुनि, नंदिषेण मुनि, स्थूलिभद्रजी जेवा दृष्टांतो दर्शाव्यां छे । अंते आ कषाय पर विजय मेळवी विनय गुण द्वारा केवळज्ञान प्राप्त करनार मृगावती साध्वीनू दृष्टांत पण जणाव्युं छे। माया___ माया माटे कर्ताए आपेली उपमाओ जोवा जेवी छे । माया मोहनी जाल छ । धर्मवृक्षने बाळनारी छे । माया कपटनी ओरडी छे । माया कुडी अने दुखनी खाण छे । अपजशनी केडी अने पापनी वेलडी छे । असत्य वचननी मावडी (मा) छ । सुकृतना करेल संचयन हरण करनारी डाकु राणी छे । माया विषधर सर्पिणी छे, जेणीए केटलाय नर-नारीने डंखी लीधा छ । सरळताना ताविज विना तेनो कोई उपाय नथी।
दृष्टांतोमां- मल्लिनाथजी, आषाढाभूति, उदायी राजानो हत्यारो अभवी, अभयकुमारने फसावनारी वेश्या, शेठ सदर्शनना शीलभंग माटे मथती कपिला, चुलणी माता, मणिरथ राजा, रावण वगेरे । कर्ताए आ साथे केटलांक लौकिक दृष्टांतो पण टांक्यां छे तेमां मायाथी ध्यान भंग थता शिवजी, उर्वशीथी तप हारेला ब्रह्माजी, अहल्याथी चूकेला इन्द्र वगेरे दृष्टांतोनो उल्लेख करी झलेबीथी पण वधु गुंच वाळी आ मायाने सीधी दोर करीने समझावी दीधी छे । आ ढाळना अंते कह्यु के
धन्य ते श्रावक श्राविका रे, धन ते साधु परिवार।
कपट रहीत करि धर्म नि रे, सफल तेहनो अवतार रे॥ लोभ
कविए लोभने सर्पनो अवतार, क्रोधनो सदा साथी अने स्वजनोना स्नेहनो नाशक
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श्रुतसागर
मई-२०१९ कह्यो छे। लोभ पापवृक्षनो बगीचो छ। उदाहरणोमां- मांस लोलुपी मत्स्य, संगीत लुब्ध मृग, कमलमां केद थयेल भ्रमर, दीपकमां आसक्त पतंग जेवा दृष्टांतो दर्शाव्या छ । विशेष उदाहरणोमां- लोभथी भरत चक्री भाई साथे लड्या, समुद्रमां पडेल सागर, लोभथी पोताना ज पिताने हणनार सुरप्रिय, मम्मण शेठ, नंद राजा, पुत्रासक्त सगर चक्री, तिलक शेठ, कंडरिक मुनि, सिंहकेसरिया मुनि जेवा दृष्टांतोनो उल्लेख कर्यो छे । देश छोडी लोभवश पैसा कमावा विदेश जता लोकोने पण कविए आ कृतिमां वणी लीधा अने कह्यु के
‘लोभि समुद्र उलंघी जावि, सेवि वन गिरवार रे'
अंते आ लोभने त्यजी संतोषथी भीना रहेवानी सलाह आपी अने कंचनकामिनीने छोडी संतोष सरोवरमां झीलता वज्रस्वामीने वंदना करी छ। कर्ता परिचय
तपागच्छीय आचार्य विजयसेनसूरिनी पाट परंपराए गच्छाधिपति आचार्य विजयप्रभसूरिनी कृपानिश्रामां संघविजयना शिष्य देवविजय अने तेमना शिष्य तत्त्वविजय द्वारा आ कृतिनी रचना थई छ । कविना गुरु अने दादा गुरु बन्नेय कवि हता। विद्वान् तत्त्वविजयजीनो समय तेमनी अन्य कृतिओ स्तवनचौवीसी'मां रचना वर्ष (संयमभेदचंद्रयुग) वि.सं.१७१४, नेमिजिन रास'मां (चंद्रोदधिनयणानंद) नयण अने नंद लेतां १७२९, नयण अने आनंद एटले के आंखोने आनंद आपनार चंद्र लेवाय तो १७२१ थाय, २४ जिन स्तवन'मां रचना वर्ष वि.सं.१७४९ जणाय छे। आथी एमना कार्यकाळनो समय १८मी पूर्वार्ध होवाना विशेष प्रमाणो प्राप्त थाय छ। समान्यतः कर्ता द्वारा रचना प्रशस्ति कृतिना अंते अपाती होय छे । आ कृतिमां प्रथम सज्झायना अंते कविए पोतानी परंपरा दर्शावी छ। प्रत परिचय
आ हस्तप्रत आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबाना ज्ञानभंडारमां संग्रहित हस्तप्रत क्रमांक-४५१२७ पर उपलब्ध छ । आ प्रतिनुं लेखन वर्ष अनुमानित १८मी सदी छ। प्रतिलेखके पोतानो कोई परिचय आप्यो नथी। आ प्रत सुंदर अने स्वच्छ अक्षरमां लखायेली छ। प्रतिलेखके २आ पर द्वितीय कषायन वर्णन करता गाथा क्रम आपवामां ८ अने ९ न आपतां सीधो १० क्रमांक आपेल छे, जे क्षतिने अमे सुधारी योग्य क्रमांक आपेल छ।
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May-2019
॥ राम भणइ हरि उठीइ ॥ क्रोध तजो रे क्रोधी जना, क्रोधि नरगि जाय रे । सदगति को नवि पाइरे, क्रोधि क्रोधी कि कइवाइ रे।
पापि पिंड भराइ रे, काया दुर्बल थाइ रे क्रो०...॥१॥ अनजान बंधीउ रे क्रोधडु, नाखि दुरगति कुपरे। धोत्रो तणि रे वशि करी, नर गया बहु भुप रे। पड्या नरगनि कुपरे, पाम्या काया करंपरे।
ए छि क्रोध सरंप रे क्रो०...॥२॥ कायामांहि अंगीठडु, बालि कोमल काय रे। निरमल जस जाइ तेहनु, जेहनि क्रोध कषाय रे। समकित मल छेदाइ रे, तप कीधो सवि जाय रे।
चारित्र मेलु ते थाइ रे क्रो०...॥३॥ फरस्युंरामे धो करी, कीधो कर्म कठोर रे। न क्षत्री कीधी रे भुमिका, पडिउ नरगनि ठोर रे। कीधां पाप अघोर रे, पाडि बंब बकोर रे।
तिहां नही केहनु जोर रे क्रो०...॥४॥ आठमु चक्रीय जांणीइ, जिणि कीयु विप्र संहार रे। सभूम समुद्रि पडी, अवतर्यु नरग मझार रे। जिहां छि घोर अंधा(र) रे, भूमीका सस्त्रनी धार रे।
पामि दुख अपार रे क्रो०...॥५॥ दुब्रह्मदत्त ब्राह्मण तणी, काढी क्रोधि ते आंखि रे।
समता तरु फल चाखि रे क्रो०...॥६।। क्रोधि मुनीवर काढता, नमुची नबल प्रधान रे। विष्णु कउमारि चांपीउ, लीधउ दुरगति तांण रे। म करो क्रोध अजाण रे, ए छइ जिनवर वाणि रे।
पडस्यो नरगनी खांणि रे क्रो०...॥७।। १. ?, २. सगडी, ३. (क्रोधो)?,
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पालक हुउ रे पातकी, जो (जा) ग्यो द्वेष अपार रे । पांचसइं मुनिवर पीलीया, घाली घांणी मझारि रे । खंधकसुरि तेणी वारि रे, जाग्यो क्रोध अपार रे ।
ध्वी (द्वी) पायन नामि रे तापसो, क्रोधि मलीउ खोहार रे । अमरापुरी सम द्वारिका, बाली कीधो ते छा* रे । ज्यादव कीधो संहार रे, भरीउ पाप भंडार रे ।
कीधो देश साह (संहार?) रे क्रो० ... ॥ ८ ॥
तप तपि रे बहु परि, क्रोधि ते सवि छार रे। चारित्र चोखुं रे तेहनु, नवि धरि क्रोध विकार रे ।
नाणी महिर लगा (र) रे क्रो० ...|| ९ ||
काउस्सग दोय मुनीवर रह्या, कुणालानि खाल रे । क्रोधि मेह वरसावीउ, तप थयु आल पंपाल रे । पडिया दुइ पाताल रे, लहि दुख्ख असराल रे । न करि साल संभाल रे क्रो० ...
To...113011
४. राख,
नीर्मल त(ते) होइ रे आतमा, जिम लहो केवलनाण रे । हिसि ते सु(स) वि नाण रे, कुरगडु मुनि ना महिमा घणो, उपसम ल ( लि) उं सीवराज रे । एहवुं जाणी भो भवि जना, धोध(क्रोध) तजो सुखकाज रे । पामो भवोदधि पाज रे, पामु मुगतिनुं राज रे ।
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आणइ उपसम वारि रेक्रो० ... ॥ ११ ॥
मई -२०१९
तपगच्छ नायक्ख(क) रे जाणीइ, श्री विजयप्रभुसुरिंदि रे । क्रोध न तस दस देहमां, मोटो एह मुणंद रे । प्रणमइ नरवर वृंद रे, संघविजय कविरायनो, देवविजय कविराय रे । तत्वविजय कहि भविजना, म करो कोय कषाय रे । मनवंछित फल थाय रे,
जे छि सुखनी खाण रे क्रिो० ...॥१२॥
सीद्धां वंछित काज रे क्रो० ...॥ १३ ॥
सेवि मुनिवर वृंद रे क्रो० ...||१४||
दुरति ( दुरीत) दुरि पलाय रे क्रो०...॥ १५ ॥
। इति श्री च्यार कषाए प्रथम क्रोध स्वाध्याय संपूर्ण ।
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मान०...॥१॥
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May-2019 ॥ ढाल । जवरी साचोरी अकबर साहजी रे ॥ मान म करयो कोय मानवी रे, मानि महुत ज जाय रे। बंध प(पडे) निचै गोत्रनो रे, मानी ते अधम कहिवाय रे उतपति जोउ नि जीव आपणी रे, तुं भम्यो नीगोद अगाद रे। कुतो विचाणो कंद मुलमांह रे, नीसाणी अनंतमि भाग रे मान०...॥२॥ नीच तणी गति ति लही रे, कुतथा कीटक जीव रे। नरग तणारे दुख ति सहा रे, पाडंति बहु रीवरे
मान०...॥३॥ बंदु थकी रे उतपति ताहरी रे, तु रहुं उदर मझार रे। कलमलकुडि ते नीसरउं रे, एवडो स्यु अहंकार रे
मान०...॥४॥ अहो अहो उत्तम कुल माहरु रे, मरिच भवि धरि मांन रे। व्रा(ब्रा)म्हण कुल जाई अवतर्या रे, चुवीसमा श्री व्रधमांन रे मान०...॥५॥ मानी ते रावण राजीउ रे, त्रंण खंड जेहनू नाम रे। लंका गढ लुटावीउ रे, दस सिर छेदां राम रे
मान०...॥६॥ जरासंध जग जाणीइं रे, त्रण खंड जेहनी आंण रे। मानि ते वा(बां)धवि मारीउ रे, दरगति लीधो तांणि रे
मान०...॥७॥ बलवंत साधु बाहुबली रे, वरसी काउसग्ग कीधरे। चंडाल कुल जई अवतर्या रे, हरिकेसी मुनीय प्रसिद्ध रे नंदषेण मुनिवर मोटिको रे, आव्यु कोस्सा घरि बार रे। तप मदि तरणं ताणीउ रे, वृष्टि सोवन कोडि बार रे
मान०...॥९॥ सिंहरुप बीहावी बिनडी रे, थूलिभद्र गभाह मझार रे। धन देखाड्युं निज मीत्रनि रे, श्रुत तणि अहंकार रे स्वान गर्भ नर तेहविंरे, जे करि अतिहि गुमान रे । माद्दवपणउ मन आणता रे, ते लहि सुख नीधांन रे
मान०...॥११॥ जाति नि कुल मद जे करि रे, जे करि रुपनुं मांन रे। माद्दवपणउं मन आण सहि रे, श्रुत तणु म करो गुमान रे मान०...॥१२॥ धन धन साधवी मृगावती रे, गुरुणीनि नामती सीस रे। केवलनाण जोउ उपनुं रे, गुरुणीनइं करतां रीसरे
मान०...॥१३॥ ।इति च्यार कषाए ध्व(द्वितीय मान कषाय स्वाध्याय संपूर्ण ।
मान०...॥८॥
मान०...॥१०॥
५. गंदा ?.
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मई-२०१९ । ढाल । कपूर होइ अति उजलो रे। माया निवारु मुलथी रे, माया मोहनुं जाल। धर्मतरुनि बालवा रे, माया मोहर्नु जाल
॥१॥ प्राणी छंडो माया जाल, जिम पामउ मंगल माल रे प्राणी०॥ (आंकणी) माया ते कपटनी ओरडी रे, कोरडी दुखनी खाणि । अपजस केरी उडणी रे, पुण्यतणी करि हाण रे
प्राणी०...॥२॥ नरगपंथनी उरडी रे, पापतणी छइ वेलि। असत्य वचनी मावडी रे, माया दूरि मेल रे
प्राणी०...॥३॥ षट् मित्रस्युं तप तप्यो रे, कपटि कर्यो तपभेद। मली जिणेसर ते दुहुयार रै, पाम्यो स्त्रीयनो वेदनो रे प्राणी०...॥४॥ आषाडभूतिं मउ(मु)नीसरु रे, मायामां मोदक दीधु। पंच माहाव्रत परिहरी, नटुइस्युं भोग ज कीधरे
प्राणी०...॥५॥ माया चारीत्र पालीउ रे, बार वरसी जेह। राय उदाइंनि मारीउ रे, अभव्य साधु तेहरे
प्राणी०...॥६॥ माया अभयकुमारनि रे, वेश्याइ नाखूपास। चंडप्रद्योतन नृप आगलि रे, आणी मुंक्यो उल्लास रे प्राणी०...॥७॥ कपिलां कपट बहु केवली रे, सुदर्सन तेडी गेह। उगं(अंग) उपांग देखाडी आइ रे, सीलि न चलो तेहरे प्राणी०...॥८॥ माया पुत्र मारवा रे, लाखनां घर करी दीध। काम लंपट ए लोभणी रे, चूलणीइं अगनीय दीधरे प्राणी०...॥९॥ युगबाहु मारो बंधवि रे, कपटि नाखी करवाल। नरगपंथ जई अवतरु रे, मणिरथ नामि भूपाल
प्राणी०...॥१०॥ माया विश्व धुतारणी रे, धुतिराय निरंक। रावण सीता अपहरी रे, आणी मुकी लंकरे
प्राणी०...॥११॥ माया ईश्वर नाचीउ रे, चंडीइ चूकाव्यु धान। व्र(ब्रम्हानो तप अपहरि रे, उरवसी करी तान रे प्राणी०...॥१२॥
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May-2019 इद्र अहिल्लासु रमउ रे, कपटि थयु मांजार। गोलणी गोविंदनो रे, कपटि कीयो अपार रे
प्राणी०...॥१३॥ माया दुखनी भूमिका रे, स्वर्ग शइवनी(?) वात। सुक्रत संचय जे कर्यो रे, माया तेहनी धाडि रे
प्राणी०...॥१४॥ माया विषधर सर्पणी रे, खाधां नर नि नारि । अजव तावज आणतां, टलि विष टलि विषनो विकार रे प्राणी०...॥१५॥ धन्य ते श्रावक श्राविका रे, धन ते साधु परिवार । कपटरहीत करि धर्मनि रे, सफल तेहनो अवतार रे प्राणी....॥१६॥
।इति श्री च्यार कषाए व्रतीय माया सज्झाय ।
।नमो रे नमो रे श्री शेत्रिज0 ए देशी। परिहर प्राणी परिहर प्राणी, परिहरि लोभनो व्याप रे। लोभ तणि रस जे नर तारा, ते नर मरी थाइ साप रे
परिहरि...॥१॥ लोभ क्रोध सदा रहिवाशि, नाशि सजने नेहा रे। प्रतातणी छादनकालि, लोभ घनाघन मोहा रे
परिहरि...॥२॥ आमीष लोपि(भि) मछ जे जालि, मृग पडीउ ते पास रे। कमलि भीड्यो मधुकर हवि, जोउ ला(लो)भ त पसांइ रे परिहरि...॥३॥ लोभि विर वरो धन ज वाधइ, लोभ छि क्रोधनु ठाम रे । दीवि पड्यो पतंग ज रोवि, पाप तरु आराम रे
परिहरि...॥४॥ लोभि नीज बंधवनि साथि, भरथचक्री ते नडीउ रे। अहो अहो लोभ तणा फल विरुयां, सागर समुद्रि पडीउरे परिहरि...॥५॥ सुरप्रीइ नीज तात ज हणीउ, लोभ तणी गति दीठी रे। राजग्रही नगरीमां जांण्यो, लोभीउ मम्मण दीठो रे
परिहरि...॥६॥ नवि नंद गया ते नरगि, मेहली सोवननी कोडि रे। मुव्वा(?)ण सेठ हुउ ते लोभी, नगइ गयु सवि छोडि रे परिहरि...॥७॥ पुत्री त्रीपत न पाम्यु सागर, बीजो चक्री कहीइ रे। कुचीकणि(?) गोसहस्त्र मेली, नरग तणां दुख लहीइ रे परिहरि...॥८॥
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मई-२०१९ तिलके सेठ हुउ ते लोभी, धानना कोठार ज भरीया रे। पापिं तरी नीज पोतुं, नगर ते अवतरीया रे
परिहरि...॥९॥ कंडरीक मुनि लोभि पडीउ, व्रत छंडी हूउ भूपाल रे। सिहकेशरी मुनि लाडु लोभि, भीक्षा भम्यो अकाल रे परिहरि...॥१०॥ लोभि चोर करइ ते चोरी, सहि मर्म प्रहार रे। लोभी कुष्टीनि ने वेश्या, वली भम्यु भरतार रे
परिहरि...॥११॥ लोभि समुद्र उलंघी जावि, सेवि वन गिरवार रे। लोभि लोभ होइ अधिकेरो, नीच तणी करि आस रे परिहरि...॥१२॥ लोभ तणां फल विरुयां दीसि, छंडी भवीजन प्राणी रे। संतोष सु सदा रहु भीना, जिम लहु केवलनाण रे परिहरि...॥१३॥ नीर्लोभी मुनीसर मोटो, वयर नमु करजोडि रे। संतोष सरोवर मांहि झील्यो, कंचण कामणि छोडिरे परिहरि...॥१४॥ एहवु जाणी रुडा प्राणी, संतोषसु चित राखि रे। भवोदधीनो पार ज पामी, मुगति तणां फल चाखो रे परिहरि...॥१५॥ श्रीविजयप्रभूसीरीसर चंदो, तपगछ केरु दीवो रे। नीर्लोभी मुनीसर मोटो, ए ग(गु)रु घणु चिरंजीवो रे परिहरि...॥१६॥
॥ इति श्री च्यार कषाए चतुर्थ लोभ कषाय स्वाध्याय संपूर्ण ||श्रुः || श्रीः॥
क्या आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं ? आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में आगम, प्रकीर्णक, औपदेशिक, आध्यात्मिक, प्रवचन, कथा, स्तवन-स्तुति संग्रह आदि विविध प्रकार के साहित्य प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी, पुरानी हिन्दी, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं में लिखित विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित अतिविशाल बहुमूल्य पुस्तकों का संग्रह है, जो हमें किसी भी ज्ञानभंडार को भेंट में देना है. यदि आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं तो यथाशीघ्र संपर्क करें. पहले आने वाले आवेदन को प्राथमिकता दी जाएगी.
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May-2019
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श्री दीप्तिविजयजी कृत श्री नारंगापार्श्वनाथ स्तवन
गणि सुयशचंद्रविजयजी १०८ पार्श्वनाथ प्रभुना तीर्थोनी यात्रा करनारा भाविकोए खंभाततीर्थना स्थंभन पार्श्वनाथ, सोमचिंतामणि पार्श्वनाथ, भुवन पार्श्वनाथ, कंसारी (भीडभंजन) पार्श्वनाथादि विशिष्ठ जिनमंदिरो (बिंबो) ने जुहार्या ज हशे । हमणां थोडा समय पूर्वे केटलीक प्राचीन हस्तप्रतोनो अभ्यास करता खंभातमां पूर्वे विराजमान के जे हालमां क्यां छे? तेनी खबर नथी ते नारिंगा (नारंग) पार्श्वनाथ संबंधि एक स्तवन जडी आव्यु त्यारे १०८ पार्श्वनाथ प्रभुनी यात्राए जता भाविकोने माटे आ कृति प्रकाशित करवानी भावना थई। खास तो खंभातादि तीर्थयात्राए आवता भाविको पण आ रीते कशु नवु जाणवा-समजवा के शोधवा निकळे एवी आशा साथे आ कृतिनुं अहिं संपादन कर्यु छे । __ प्रस्तुत कृति कवि दीप्तिविजयजी द्वारा रचायेली संक्षिप्त रचना छ । कविए अहिं नारंगा पार्श्वनाथ प्रभुनी स्तवना तो करी ज छे साथे साथे ते प्रभुनी स्थापना (प्रतिष्ठा) कोणे करी? कई सालमां करी? कया गुरुभगवंतना हस्ते करी? तेनी पण ऐतिहासिक विगतो आलेखी छे। जो के आ प्रतिमा क्यां बिराजमान हती? तेमनुं नाम नारंगा पार्श्वनाथ केम पड्यं? तेनी कशी नोंध काव्यमां नथी। एक एवी पण शंका जाय के शा. नेमीदासना पत्निनुं नाम नारंगदे हतुं तो शुं तेना नाम परथी भगवाननुं नाम “नारंगा पार्श्वनाथ” पड्युं हशे? आमेय ग्रामादिकना नाम परथी विविध गच्छोना, चैत्योना नाम पडेला जोई शकाय छे। जो अहिं पण एवं कशुं बन्यु होय अथवा कशुं जुदु होय तेनी जो कोई जिज्ञासु व्यक्ति तपास करे तो ज खबर पडे। खास तो आ संदर्भे चैत्यपरिपाटी, तीर्थमाळादि ऐतिहासिक साहित्यमां पण तपास करवी घटे।
आ कृतिना कर्ता तपागच्छीय मानविजयजीना शिष्य मुनि श्रीदीप्तिविजयजी छे । तेमणे स्तवन सज्झायादि लघु कृतिओ साथे रासजेवी मोटी कृतिओ पण रची छे । देशी साथे संस्कृत रचना पण करी छ । हालमां मळती तेमनी रचनाओमां नारंगा पार्श्वनाथ स्तवन सिवाय अन्य ६ रचनाओ छे। तेमां आदिजिन गीत, चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र (संस्कृत), कयवन्ना रास, मंगलकलश रास, दान सज्झाय, माया परिहार सज्झायनो समावेश थाय छे । कयवन्ना रास अने मंगलकलश रासमां तेमनी विस्तृत परंपरा जोवा मळे छे। चतुर्विंशतिजिन स्तोत्रमा पोताना नाम साथे गुरुनाम तथा गच्छाधिपतीनो
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मई-२०१९ संकेत होवानुं जणाय छ । अन्य कृतिओमां मात्र गुरु सुधी ज नाम प्राप्त थाय छे । बे रासमां मळती विस्तृत परंपरा आ प्रमाणे छे- गच्छाधिपति आचार्य विजयराजसूरि, तेमना शिष्य विजयदानसूरि, तेमना शिष्य राजविमल, तेमना शिष्य मुनिविजय, तेमना शिष्य देवविजय, तेमना शिष्य मानविजय अने तेमना शिष्य दीप्तिविजय छ । तेमनुं अन्य नाम दीपविजय पण छे । गच्छाधिपति आचार्य विजयराजसूरिनी जग्याए मंगलकलश रासमां विजयमानसूरि नाम मळे छे। कयवन्ना रास अने माया परिहार सज्झाय अद्यावधि प्रायः अप्रकाशित कृतिओ छ।
प्रान्ते संपादनार्थे प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत नकल आपवा बदल श्रीनेमि-विज्ञानकस्तूरसूरि ज्ञानभंडारना आगेवानोनो खूब खूब आभार।
श्री नारि(रं)गापार्श्वनाथस्तवन
॥१॥
अहँ नमः। ऐं नमः॥
॥ देशी-वींछूआनी॥ समरी सारद सामिनी, मागुं वचनविलास रे लाल। श्रीनारिंगो पासजी, प्रभु गाउं मनि उल्लासि रे लाल श्रीनारिंगो भेटीइ, जिम मनवंछित होय रे लाल। देव सवेमांहिं दीपतो, एह समो नहीं कोय रे लाल । श्रीनारिंगो...॥२॥ त्रंबावतीनयरी-धणी, नीलवरण तनु सार रे लाल। मुझ मन तुझ चाहइ घणुं, जियु चातक जलधार रे लाल। श्रीनारिंगो...॥३॥ संवत सत्तर सत्तोत्तरइ(१७०७), प्रतिष्ठा कीधी सुविवेक रे लाल। श्रीविजयराजसूरीश्वरइ, ओच्छव हूआ अनेक रे लाल। श्रीनारिंगो...॥४॥ सा. नेमीदास जगि जाणीइ, भाग्यवंत गुणगेह रे लाल। तस ललनां नारिंगदे, सयल सतीमांहिं लीह रे लाल। श्रीनारिंगो...॥५॥ सकल संघनई पोषइ सदा, आगम उपरि नेह रे लाल । एह समी जगि को नहीं, प्रतिमा भरावी एह रे लाल श्रीनारिंगो... ॥६॥ तुझ महिमा अति वाधीउ, विस्तरो देस विदेस रे लाल। परदेसना घणा संघवी, प्रभु आवइ तव उपेस रे लाल श्रीनारिंगो...॥७॥
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May-2019 नर नारी भाविं करी, गाइ तुझ गुण सार रे लाल। ते तुझनइ इम वीनवइ, प्रभु ऊतारो भवपार रे लाल श्रीनारिंगो...॥८॥ चंदवदनी मृगलोचना, गोरडी गोरइ वानि रे लाल । तुझ गुण गांन करइ सदा, झालि झबूक्कइ कांनि रे लाल श्रीनारिंगो...॥९॥
अश्वसेन-कुलि-चंदलो, वामादेवीनो नंद रे लाल। जलतो नाग निजामीउ, ते हूउ धरणिंद रे लाल श्रीनारिंगो...॥१०॥ तुं हि सज्जन तुं हि साहिबो, तुं मुझ प्राण आधार रे लाल।। भवि भवि मांगु हुं सही, तुं मुझ भवभय वारि रे लाल श्रीनारिंगो...॥११॥ नागराज पद्मावती, करइ प्रभुपदपंकज सेव रे लाल। खंभायतना संघनइ, प्रभु सुख देयो नितमेव रे लाल। श्रीनारिंगो...॥१२॥ मुझ सरिखा जन सेवका, प्रभु ताहरइ छइ अनेक रे लाल। हुं किंकर प्रभु ताहरो, तुं ठाकुर मुझ एक रे लाल श्रीनारिंगो...॥१३॥ सकल-पंडित-मुकुटामणी, मुनिवरमांहिं परधान रे लाल। श्रीमानविजय कविराजनो, प्रीति दीप्ति करइ गुण गान रे लाल। श्रीनारिंगो...॥१४॥
॥ इति श्रीनारिंगापार्श्वना(थ) स्तवनम् ॥ सं. १७१२ वर्षे ॥
श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं अथवा किसी महत्त्वपूर्ण कृति का नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, जिसे हम अपने अंक के माध्यम से अन्य विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादनकार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? इस तरह अन्य विद्वानों के श्रम व समय की बचत होगी और उसका उपयोग वे अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों के सम्पादन में कर सकेंगे.
निवेदक सम्पादक (श्रुतसागर)
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मई-२०१९ गुजराती बोलीमा विवृत अने संवृत ए-ओ
चुनीलाल वर्धमान शाह (गतांक से आगे)
लेखनमा स्वरोने व्यंजनोथी जूदा पाडवानी जे पद्धति १५-१६ मा शतकमा हती, ते माटे उच्चारण-भेद- तत्त्व पण केटलेक अंशे जवाबदार हशे, एम आ उपरथी मानवू पडे छे । हणइया शब्द हणिया माटे लखायेलो हशे अने आजे पण कवितामां लखाय छे; परंतु ते पछीना काळमां हणइया नुं रूप हणेआ थयु जे १९ मी सदीना अंत सुधी चालु हतुं । आ बे प्रकारनां रूप उपरथी तेना उच्चारणमां जे प्रयत्नभेद होवानो संभव छे, ते आ प्रमाणेः
हण-इया हणिया
हण-इया=हणेआ आ ज रीते वास्तविक बोलीमां अइ-अउ जेवां स्वयुग्मोनां उच्चारणोमां पण प्रयत्नोना विकल्पो प्रचलित थया होय ए अस्वाभाविक जणातुं नथी। गौरी शब्दनां बे रूपो छेः गोरी अने गॉर्य । आ बेउ रूप प्रयत्नोना विकल्पनां परिणामो छः
गौरी-गउरी-गोरी (गौरवर्णी सुंदरी)
गौरी-गउरी-गॉर्य (पार्वती) जूनी गुजरातीना लेखनमा व्यंजनो साथेना स्वरोना आश्लेष-विश्लेषना नियमोमां जेवी शिथिलता हती, तेवी उच्चारणमा हती तथा प्रयत्नमां पण हती। कःपुनः उपरथी साधित थएलुं कवण रूप अत्यारे कवितामां प्रचलित छे, ज्यारे गद्यमां कॉण प्रचलित छे; पण कउण अने कुण ए जूनी गुजरातीना काळमां प्रचलित हतां । कउण मां क उपर प्रयत्न मूकनारा कोण-कॉण बोलता थया, अने कउण ए उ उपर प्रयत्न मूकनारा कुण बोलता थया। ए ज रीते केटलाक शब्दोमां स्वरोना विश्लेष थवाथी (वस्तुतः बोलीमां प्रसरवाथी) प्रयत्नो बदलायानां अने संवृत ए-ओ प्रचलित थयानां उदाहरणो मळे छ ।
सुराष्ट्र-सउरट्ठ-सोरठ कुमार-कुंवर-कुंयर-कुअर-कुर-कउर-कोर (देवकुर-देवकोर)
थुवर-थुअर-थउअर-थोर* *कोइ थॉर पण बोले छे; तेमने थउर जेवा प्रयत्ननो वारसो मलेलो होय छे.
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May-2019 गुरू-गउरु-गॉर गुड-गुलु-गउलु-गॉळ मृत्यु-मुत्तु-मउत-मौत (हिंदी)-मॉत मुख-मुह-म्हउ-म्हाँ उषर-अउषर-ऑखर + उषा-अउषा-आँखा उत्तर-अउत्तर-ऑतर बुन (व्हेन शब्दनुं ग्राम्य रूप) –बउन-बान
प्रयत्न केवळ बोलीनो ज विषय होवाथी अने प्रांतभेदे तेमां फेरफार रह्या करतो होवाथी अमुक संस्कृत के प्राकृत शब्दोमां अमुक ज स्वरो पर प्रयत्न होवो जोइए, एवो एक सामान्य नियम स्थापवो मुश्केल छ । मूळ शब्दो अने तेमनां वर्तमान रूपो तथा उच्चारणो उपरथी बोलीमां थती विकृति अने प्रयत्नोनी असरनु पगेरूं ज मात्र काढी शकाय छे।
(४) श्री. नरसिंहरावे आ विषय पोताना Gujarati Language and Literature Vo.I मां खूब विस्तारथी चयॊ छ । अइ अने अउ मांना अ उपरना प्रयत्नने तेओश्री विवृत ऍ-ऑ नो साधक तथा इ उपरना प्रयत्नने संवृत ए-ओ नो साधक जणावे छे । तेमने मते अइ अने अउ प्रतिसंप्रसारण पामी अय्-अव् थाय छे अने पछी विवृत ऍ-ऑ थाय छ। ____ अय्-अव् ना आ माध्यमिक उच्चारणनो आधार तेओश्री वैर-वइर, बैठा-बइठा, गौरी-गउरी इत्यादिने माटे जूना गुजराती साहित्यमां कोइ कोइ वार वयर, बयठा तथा गवरी जेवां य-व कारवाळां रूपो उपलब्ध थाय छे ते उपर राखे छे । तेवी ज रीते हैरान अने कौल जेवा फारसी शब्दोनी मूळ जोडणी हय् रान अने कव् ल मांना य् कार व् कार ने तेओश्री गुजराती हरान-कॉलमांना विवृत उच्चार माटे आधाररूप माने छ। अय्, अइ अने ऐ मां तथा अव्, अउ अने औमां उच्चारणनो भेद सूक्ष्म छे। श्रुतिनी मात्राने हिसाबे तेमांथी सूक्ष्म भेद शोधी शकाय छे, परन्तु लोकप्रचलित बोलीमा ए भेद एटली सूक्ष्मताथी जळवाइ रह्यो होय के लहियाओए ते पारखीने तेने अनुरूप +आवा विशुद्ध स्वरमां पण व्यंजनमिश्रित स्वरना जेवा उच्चारणनी लोकसमजने कारणे (अ) अ-उ जेवो उच्चार प्रचलित थयो होवो जोईए.
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मई-२०१९ जोडणी करी होय एम बनवू मुश्केल छे। कोइ लेखमां वयर, वयरागी जेवी जोडणी मळवा संभव छे, तेज रीते १५-१६ मी सदीमां शुद्ध वैर-वैरागी जोडणी पण मळे छ।
लेखकोए जोडणी लखवामां एवी अनियमितता चलाव्या करी छे के ते उपरथी तत्समयनो वास्तविक उच्चार पकडीने तेने अनुरूप कोइ नियम शब्दोनां माध्यमिक स्वरूपो माटे स्वीकारी लेवो ए युक्त लागतुं नथी। इ नो य, य नो इ, ऐ नो अइ तथा अइ नो ऐ लखवामां चालेली अनियमिततानां थोडां उदाहरण बस छ। गाईस्यूं तुम्ह पसाइ, कर्मण लागइ पाइ
(कर्मणमंत्री- सीताहरण) बीजू मुझ कह्नि मागयो, कीजि एह पसाय
(हरिदासकृत आदि पूर्व-क0 ४०, १७ मी सदी) स्तुति करी नीचा नम्या, प्रणम्या जैनि पाय.
(गुणमेरूनुं पंचोपाख्यान, १७ मी सदी) येणि वैर की— व्यालरों, जागि विमाशी वात
(हरिदासकृत आदि पर्व, क0 १८) शीघ्र थै तयो सभा व्यषि, आंहि पांचालीनि ल्यावं.
(कृष्णदास- सभा पर्व, क0 २७, १७ मी सदी) गतप्राण थैयनि सभामांहि, बिठाछि सर्व कोइ
(सदर) श्री आतश बिहिराम नुसारीमां पधारेआ.
(१७१८ नुं एक पुस्तक) चंदा दीपति जीपति सरसति, मइं वीनवी वीनती
(धनदेवगणिकृत नेमीफाग-सं. १५०२) अह्यो उभयमांहि अधिक कवण
_ (कृष्णदासकृत सभा पर्व क0 ३१) भाइ तेहनी कुण प्रभवी सकि
(सदर क0 ३०)
(क्रमशः)
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May-2019
श्रुतसेवा के क्षेत्र में आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का योगदान
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राहुल आर.
त्रिवेदी
(गतांक से आगे) पुस्तक संरक्षण
ज्ञानमंदिर के भूतल कक्ष में विद्वानों तथा पाठकों के लिए अध्ययन की सुंदर व्यवस्था की गई है। यहाँ कुल मिलाकर लगभग १५,००० मुद्रित प्रतों एवं २,५०,००० से अधिक प्रकाशित ग्रन्थों का संग्रह है। ग्रंथालय में भारतीय संस्कृति, सभ्यता, धर्म एवं दर्शन के अतिरिक्त विशेष रूप से जैनधर्म से संबंधित सूचनाओं को इतना अधिक समृद्ध किया जा रहा है कि कोई भी जिज्ञासु वाचक यहाँ आकर अपनी जिज्ञासा पूर्ण कर सके ।
जैनधर्म के विविध गच्छों, समुदायों के साधु-साध्वी, गृहस्थ एवं अपने-अपने क्षेत्र के विद्वान विविध प्रश्न लेकर यहाँ आते हैं और पूर्ण संतुष्टि का अनुभव करते हैं । कुछ वाचकों का कहना है कि “जो पुस्तकें या हस्तप्रत हमें कहीं नहीं मिलती वह यहाँ आसानी से और तुरन्त मिल जाती हैं।“ ये पुस्तकें विविध प्रकाशकों व विक्रेताओं से खरीदी जाती हैं तथा विविध दाताओं व ज्ञानभंडारों की ओर से भेंटस्वरूप भी प्राप्त की जाती हैं। इन पुस्तकों का संरक्षण व उनमें निहित सूक्ष्मतम सूचनाओं का संग्रह किया जाता है ।
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शहरशाखा, अहमदाबाद
अहमदाबाद शहर के वाचकों तथा शहर के विविध स्थानों में चातुर्मासार्थ विराजमान प.पू. साधु-साध्वीजी भगवन्तों के अध्ययन-संशोधन के कार्य में उपयोगी हो सके, इस हेतु से पालडी विस्तार में शहरशाखा की स्थापना की गई है, जहाँ से उन्हें पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती हैं। इसके अतिरिक्त कोबा में संरक्षित पुस्तकें भी उन्हें उनके स्थान पर उपलब्ध कराई जाती हैं।
विशिष्ट वाचकसेवा
ज्ञानमंदिर में वाचकों के हित को ध्यान में रखकर कार्य किया जाता है । जिज्ञासुओं को कम से कम समय में अधिक से अधिक जानकारी दी जा सके, उसका निरंतर प्रयास किया जाता है। श्रुतोद्धार हेतु साधु-साध्वी एवं विद्वानों को अप्रकाशित कृति
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मई - २०१९
श्रुतसागर
उपलब्ध कराई जाती है तथा विविध विषयों के अभ्यास, स्वाध्यायादि हेतु पुस्तकें उपलब्ध करायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त पाटण, खंभात आदि अनेक प्राचीन ज्ञानभंडारों में संरक्षित हस्तप्रतों तथा ताड़पत्रों की सूचनाएँ भी उन्हें उपलब्ध कराई जाती हैं।
इस ज्ञानमन्दिर का लाभ लेनेवाले विद्वानों में अनेक अग्रणी आचार्य भगवन्त, पू. साधु-साध्वीजी भगवन्त, देश-विदेश के विशिष्ट विद्वानों के साथ यहाँ नियमित वाचकों की संख्या १८५७ है. इन वाचकों को उनकी अपेक्षित हस्तप्रतों, मुद्रित पुस्तकों, मासिक अंकों तथा उनमें से उनकी वांछित कृतियों, लेखों, स्तुति, स्तवनों एवं सज्झायों की पीडीएफ तथा प्रिन्ट भी दिए जाते हैं । कुछ विशिष्ट विद्वान निम्नलिखित है
१. जैन समाज के प्रमुख आचार्य भगवंत
पूज्य गच्छाधिपति आचार्य श्री जयघोषसूरिजी म.सा., पूज्य गच्छाधिपति आचार्य श्री पुण्यपालसूरिजी म.सा., पूज्य आचार्य श्री गुणरत्नसूरिजी म.सा., पूज्य आचार्य श्री शीलचंद्रसूरिजी म.सा., पूज्य आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरिजी म.सा., पूज्य आचार्य श्री तीर्थभद्रसूरिजी म.सा., पूज्य आचार्य श्री योगतिलकसूरिजी म.सा., पूज्य मुनि श्री वैराग्यरतिविजयजी म.सा. (श्रुतभवन), पूज्य आचार्य श्री यशोविजयसूरिजी म.सा., पूज्य गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म.सा., पूज्य मुनि श्री मेहुलप्रभसागरजी म.सा., पूज्य साध्वीश्री चंदनबालाश्रीजी आदि साधु-साध्वीजी भगवंतों को अपेक्षित पुस्तकें, जेरोक्स, प्रिन्ट एवं पीडीएफ सामग्री ई-मेल आदि से उपलब्ध कराई गई हैं। २. जैन समाज के अग्रणी विद्वान श्रावक-श्राविका
डॉ. कुमारपाल देसाई (अहमदाबाद), श्री गुणवंतभाई बरवालिया (मुंबई), डॉ. जितुभाई शाह (एल.डी. इन्डोलोजी, अहमदाबाद), श्री बाबुभाई सरेमलजी (साबरमती), श्रीमती भानुबेन सत्त्रा (मुंबई), श्रीमती रेणुकाबेन पोरवाल (मुंबई), छायाबेन शेठ बेंगलौर आदि विद्वानों को उनकी आवश्यकतानुसार पुस्तकें, जेरोक्स, प्रिन्ट एवं पीडीएफ उपलब्ध कराये गये हैं।
३. स्थानीय व विदेशी विद्वान
डॉ. विजयपाल शास्त्री (आयुर्वेद), डॉ. सागरमल जैन, स्व. डॉ. मधुसूदन ढाकी, डॉ, वसंत भट्ट, डॉ. कविन शाह, प्रो. कमलेश चोक्सी, डॉ. धवलभाई
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May-2019 पटेल (कलक्टर सुरत), प्रो. अशोककुमार सिंह-दिल्ली, सुश्री साक्षी साबो-निरमा युनिवर्सिटी अहमदाबाद, प्रो. नलिनी बलवीर-पेरिस विश्वविद्यालय, डॉ. पीटर फ्लुगल-एसओएएस युनिवर्सिटी ऑफ लंदन, लीना धनानी-यु.एस.ए., डॉ. मार्टिन गेन्स्टन-स्वीडन आदि विद्वानों को अपेक्षित पुस्तकें, जेरोक्स, पीडीएफ आदि उपलब्ध कराये गये हैं। ४. विविध संस्थान
जिनशासन आराधना ट्रस्ट आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार-अहमदाबाद, श्रुतलेखनम्-अहमदाबाद, श्रुतभवन-पुणे, एल. डी. इन्डोलोजी-अहमदाबाद, जैन विश्व भारती संस्थान-लाडनूं, वीरशासनम्, पतंजलि योगपीठ-हरिद्वार, पार्श्वनाथ शोध संस्थान-बनारस, प्राकृत भारती एकेडमी-जयपुर इत्यादि विभिन्न संस्थाओं को अपेक्षित पुस्तकें, जेरोक्स, प्रिन्ट एवं पीडीएफ साहित्य उपलब्ध कराये गये हैं। ५. जैना ई लायब्रेरी
जैना ई लायब्रेरी यु. एस. ए. को पुस्तकें तथा मैगजीन आदि साहित्य स्केनिंग के लिए भेजा जाता है, ताकि देश विदेश के विद्वानों को ऑनलाईन पुस्तकें, पत्रपत्रिकाएँ, विशिष्ट निबन्ध आदि तत्काल उपलब्ध हो सके। ६. अनेक ग्रंथालयों को समृद्ध करने हेतु भेंटस्वरूप पुस्तकों की आपूर्ति
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में भेंटस्वरूप प्राप्त पुस्तकों में जिनकी आवश्यकता से अधिक नकलें होती हैं, वे पुस्तकें अन्य संस्थाओं की समृद्धि हेतु उन्हें भेंटस्वरूप प्रदान की जाती हैं। ऐसी ८३,२१९ पुस्तकों में से आज तक निम्नलिखित विशेष संस्थाओं एवं संघों को भेंट में पुस्तकें दी गई हैं। १) वर्धमान एज्युकेशन एन्ड रिसर्च इन्स्टीट्युट-पूणे, २) श्री वेपेरी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ-चेन्नई, ३) श्री सुधर्मास्वामी जैन ज्ञानभंडार-साबरमती, ४) आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघमुंबई, ५) स्थानकवासी जैन संघ-शाहीबाग अहमदावाद, ६) श्री नेमिनाथ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ-कडपा हरिभद्रसूरि ज्ञानभंडार सूरत तथा भारतवर्ष के अन्य कई ज्ञानभंडारों को अबतक लगभग ४९,४१३ पुस्तकें भेंटस्वरूप प्रदान की गई हैं।
इसके अतिरिक्त १५० से २०० बॉक्स में रखी ३३,८०६ पुस्तकें जिनके नाम सूची में नहीं है, जो किसी भी संस्था या ज्ञानभंडार को भेंटस्वरूप देने हेतु हैं, ये पुस्तकें किसी भी ज्ञानभंडार को समृद्ध बना सकती है।
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मई-२०१९ ज्ञानमंदिर के सहयोग से प्रकाशित पुस्तकें
साहित्य जगत् में विद्वद्वर्ग को पुस्तक संशोधन-संपादन कार्य में ज्ञानमंदिर का अमूल्य सहयोग रहा है । ज्ञानमंदिर के सहयोग से अबतक विविध विद्वानों व प्रकाशकों के द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं
१) बृहत्कल्पसूत्र/ संपादक- आचार्य शीलचंद्रसूरि म.सा., मुनि त्रैलोक्यमंडनविजय म.सा., २) द्वालिंशिद् द्वात्रिंशिका तथा ३) द्रव्यगुणपर्यायनो रास-आचार्य यशोविजयसूरि, ४) श्रीमद् देवचंद्रजी कृत चोवीसी तथा ५) श्रीपाल रास/संपादकप्रेमलभाई कापडिया, ६) योगशतक/संशोधक बालकृष्ण आचार्य वैद्यराज, ७) अचलगच्छीय ऐतिहासिक रास/ संग्रहकर्ता श्रीपार्श्व, ८) क्षमाकल्याणजी कृति संग्रह/ संपादक-मेहुलप्रभसागर म.सा., ९) महावीर चरियं/प्रकाशक-दिव्यदर्शन ट्रस्ट, इस पुस्तक का प्राथमिक अक्षरांकन, पृष्ठ सेटिंग आदि कार्य में सहयोग कर चार भागों में प्रकाशित किया गया है, १०) महावीर चरियं/संपादक-न्यायरत्नविजय म.सा., प्रकाशक- ॐकारसूरि ज्ञानमंदिर। इस प्रकार श्रुतसेवा व श्रुतोद्धार में संलग्न विद्वानों एवं संस्थाओं को ज्ञानमंदिर का सहयोग हमेशा से प्राप्त होता रहा है और होता रहेगा।
(क्रमशः) (अनुसंधान पेज नं. ३४ का)
इस प्रतिष्ठा के लिए तथा प्रतिष्ठाचार्य के लिए तपगच्छ श्रीसंघ, श्रीखरतरगच्छ श्रीसंघ व श्रीपार्श्वचंद्रसूरि गच्छ, इन तीनों गच्छोंने मिलकर निर्णय लिया व मुंबई में पूज्य आचार्यश्री के जन्मदिन पर विनंति हेतु पधारे व गुरुदेवनें इस कार्य हेतु अपनी स्वीकृति दी. तीनों गच्छों के त्रिवेणी संगमरूप संघ की उपस्थिति में सर्वसम्मति से उल्लास व उमंग के साथ प्रसंग संपन्न हुआ.
महोत्सव के प्रथम दिन श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजन, द्वितीय दिन क्षेत्रपाल स्थापना, माणक स्थापना, तोरण स्थापना, दस दिक्पाल पूजन, नवग्रह पूजन, अष्टमंगल पूजन, लघु नंद्यावर्त पूजन, भैरव पूजन, देव-देवी पूजन किये गये. तीसरे दिन परमात्मा का भव्यातिभव्य वरघोड़ा, चतुर्थ दिन प्रतिष्ठा व पंचम दिन भव्य द्वारोद्घाटन व सत्तरभेदी पूजा का आयोजन किया गया. साथ में अनेक धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यक्रम पूर्ण धार्मिक वातावरण में सम्पन्न हुए.
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May-2019
पुस्तक समीक्षा
डॉ. हेमन्त कुमार पुस्तक नाम - गूढार्थतत्त्वालोक कृतियाँ - तत्त्वचिंतामणि, दीधीति टीका, जागदीशी टीका,
गूढार्थतत्त्वालोक टीका, यशोलता टीका एवं विनम्रा
टीका. कर्ता - मुनि श्री भक्तियशविजयजी प्रकाशक - दिव्य दर्शन ट्रस्ट, अहमदाबाद प्रकाशन वर्ष - ईस्वी सन्- २०१८, आवृत्ति- प्रथम कुल भाग - १४ कुल पृष्ठ- लगभग-४५०० मूल्य - १०,०००/- संपूर्ण सेट की कीमत भाषा - संस्कृत एवं गुजराती
भारतीय दर्शनों में नव्यन्याय का अपना एक विशिष्ट स्थान है। नव्यन्याय के आद्यपुरुष के रूप में श्री गंगेशोपाध्याय का नाम समादृत है। श्री गंगेशोपाध्याय बिहार राज्य के मधुबनी जिला के निवासी थे। उनका समय ईस्वी सन् की १३वीं शताब्दी निर्धारित है। उनके द्वारा रचित तत्त्वचिंतामणि नव्यन्याय के आद्य ग्रंथ के रूप में स्थापित है। न्याय एवं मीमांसा दर्शन के प्रतिस्पर्धा काल में नव्यन्याय का उद्गम हुआ। न्याय एवं मीमांसा दर्शन के प्रकांड विद्वान श्री प्रभाकर मिश्र के शिष्य थे। इनके द्वारा रचित ग्रंथ इतना गूढ़ था कि इसे समझने के लिए अनेक विद्वानों ने टीकाओं की रचना की है। जिसमें श्री रघुनाथ शिरोमणि भट्टाचार्य, श्री मथुरानाथ तर्कवागीश, श्री जगदीश तर्कालंकार, श्री हरिमोहन झा आदि मूर्धन्य विद्वानों ने टीकाएँ लिखी हैं। तत्त्वचिंतामणि पर रघुनाथ शिरोमणि की टीका इतनी परिष्कृत रूप में है कि उसके अनेक प्रकरण स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में विख्यात हो गए और उन प्रकरणों पर भी कई विद्वानों ने अलग-अलग टीकाओं की रचना की है। इसी शृंखला में दीधीति टीका पर जगदीश तर्कालंकार द्वारा लिखित जागदीशी टीका के व्याप्तिपंचक पर सर्वतंत्र स्वतंत्र श्री धर्मदत्त झाजी ने गूढार्थतत्त्वालोक नामक वृत्ति की रचना की है.
श्री धर्मदत्त झाजी बिहार के मधुबनी जिला के निवासी थे। इनका अपरनाम श्री बच्चा झा है। इनका समय ईस्वी सन् की १९वीं उत्तरार्ध से २०वीं पूर्वार्द्ध है। इनके द्वारा रचित टीका ग्रंथ यथानाम तथागुण वाला है। यह कृति दुनिया के कठिनतम ग्रंथों
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मई-२०१९
में स्थान रखती है। टीकाकार ने इस कृति में बहुत ही गूढ़ एवं सूक्ष्म अनुप्रेक्षा की है। अनेक उहापोह और चिन्तन-मनन द्वारा तत्त्वों को बहुत ही संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है। इस टीका का विषय इतना गूढ़ है कि सामान्य विद्वान की तो बात ही क्या बड़े-बड़े नैयायिक भी ऊपर-ऊपर ही विचरण करते नजर आते हैं। इसे समझने के लिए कई बार नैयायिकों के सेमिनार का आयोजन भी किया जाता है, फिर भी विद्वान संतुष्ट नहीं हो पाते हैं।
प्रस्तुत ग्रंथ में गूढ़ार्थतत्त्वालोक पर संस्कृत भाषामय यशोलता टीका तथा गुजराती भाषामय विनम्रा विस्तृत विवरण की रचना पूज्य मुनि श्री भक्तियशविजयजी द्वारा की गई है. पूज्य मुनिश्रीजी ने दुनिया के इस कठिनतम ग्रंथ पर बृहद् टीका की रचना करके सामान्य जनों के लिए भी सरल बना दिया है। इस कठिनतम ग्रंथ में प्रवेश पाना विद्यार्थियों के लिए अब कठिन नहीं रहा है। गूढ़ार्थतत्त्वालोक और यशोलता टीका के अध्ययन के पश्चात यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि श्री धर्मदत्त झाजी ने अपनी अद्वितीय बुद्धिप्रतिभा के बल पर यदि गागर में सागर को समाहित किया है, तो पूज्य मुनिश्रीजी ने अपनी विचक्षण प्रज्ञा के बल पर प्रस्तुत रचना में गागर से सागर को बाहर निकाल दिया है।
पूज्य मुनिश्रीजी ने गूढ़ार्थतत्त्वालोक के लगभग ९०० श्लोक प्रमाण पर लगभग ९०,००० श्लोक प्रमाण वाली टीका की रचना करके नव्यन्याय के क्षेत्र में एक क्रान्ति ला दी है। जैसा कि ज्ञातव्य है पूज्य मुनिश्रीजी की आयु अभी मात्र २० वर्ष की है, दीक्षा पर्याय भी मात्र ७ वर्ष की है, फिर भी वे यशोलता जैसी विशाल टीका की रचना करके विद्वज्जगत् में देदीप्यमान नक्षत्र की भाँति स्थान ग्रहण कर चुके हैं। पूज्य मुनिश्रीजी ने अपने निवेदन में यह स्पष्ट लिखा है कि उनके गुरु पूज्य आचार्य श्री यशोविजयसूरीश्वरजी म. सा. की यह प्रबल भावना है कि उनका शिष्य उनसे भी बढ़कर विद्वान बने। और, मुनिश्रीजी ने इस कृति के माध्यम से यह सिद्ध कर दिया है । पूज्य आचार्य श्री यशोविजयसूरीश्वरजी म. सा. भी द्वात्रिंशत् - द्वात्रिंशिका, द्रव्य गुण पर्यायनो रास आदि कई ऐसे गूढ़ ग्रंथों पर विस्तृत टीकाओं आदि की रचना कर अपने वैदुष्य का परिचय करा चुके हैं।
संस्कृत भाषा में लिखित एवं नव्यन्याय की परिभाषायुक्त तर्क, व्याप्ति, नियम आदि से संबंधित इस ग्रंथ की गुत्थी को खोलने का प्रयास वर्षों तक अनेक विद्वानों द्वारा किया जाता रहा है, जिस ग्रंथ की एक-एक पंक्ति की व्याख्या करने में यदि असावधानीवश एकाध शब्द आगे-पीछे हो जाए तो अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती
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SHRUTSAGAR
May-2019 वैसे ग्रंथ के गूढार्थों को खोलने के लिए पूज्य मुनिश्रीजी ने मात्र दो वर्षों के अन्तराल में ही संस्कृत एवं गुजराती भाषा में विशाल टीका एवं विवरण की रचना करके न केवल विद्यार्थियों का मार्ग सरल किया है, बल्कि संपूर्ण विद्वज्जगत् को नव्यन्याय के दुरूहतम क्षेत्र में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त किया है। पूज्य मुनिश्रीजी ने अपने भगीरथ पुरुषार्थ के द्वारा नव्यन्याय के गूढ़ तर्कों की सरल-सलिलरूपी ज्ञान भागीरथी को इस धरातल पर लाने का कार्य किया है जिसमें विद्वज्जन डुबकी लगाकर अवश्य ही पावन-पवित्र बनेंगे। इस ग्रंथ की विशेषता एवं उपयोगिता के कारण संपूर्ण विद्वज्जगत् में मुक्तकंठ से प्रशंसा हो रही है। ग्रंथ के प्रारम्भ में महामहिम राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि के साथ-साथ अनेक मूर्धन्य विद्वानों के भी प्रशंसापत्रों को प्रकाशित किया गया
है।
पूज्य आचार्य श्री यशोविजयसूरीश्वरजी म. सा. की छत्रछाया में रचित इस ग्रंथ का संशोधन पूज्य पंन्यास श्री रत्नबोधिविजयजी म. सा. ने किया है। इसका प्रकाशन श्री दिव्यदर्शन ट्रस्ट, अहमदाबाद द्वारा किया गया है। ग्रंथ विशालकाय होने से लगभग ४५०० पृष्ठों को कुल १४ भागों में प्रकाशित किया गया है. पुस्तक की छपाई बहुत सुंदर ढंग से की गई है। आवरण भी कृति के अनुरूप बहुत ही आकर्षक बनाया गया है। ग्रंथ में विषयानुक्रमणिका के साथ-साथ अनेक प्रकार के परिशिष्टों में अन्य कई महत्त्वपूर्ण सूचनाओं का संकलन करने से प्रकाशन बहूपयोगी हो गया है।
पूज्यश्रीजी की यह रचना एक सीमाचिह्नरूप प्रस्तुति है। संघ, विद्वद्वर्ग, तथा जिज्ञासु वर्ग इसी प्रकार के और भी उत्तम प्रकाशनों की प्रतीक्षा में है। मुनिश्री की साहित्यसर्जन यात्रा जारी रहे, ऐसी शुभेच्छा है।
। अन्ततः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि प्रस्तुत प्रकाशन जैन साहित्य गगन में देदीप्यमान नक्षत्र की भाँति जिज्ञासुओं को प्रतिबोधित करता रहेगा। पूज्य मुनिश्रीजी के इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन। ___अन्त में एक निवेदन है कि जिस प्रकार संस्कृत एवं गुजराती भाषा में टीकाएँ लिखी गई हैं, उसी प्रकार संस्कृत या गुजराती टीका का हिन्दी अनुवाद करवाकर प्रकाशित करवाने की कृपा करें, ताकि वैसे विद्यार्थी जिन्हें गुजराती भाषा का ज्ञान नहीं है तथा संस्कृत भाषा में भी अच्छी पैठ नहीं है, उन सबके लिए भी यह ग्रंथ बहुत सहायक एवं उपयोगी सिद्ध होगा। आशा है मेरे निवेदन पर पूज्यश्रीजी अवश्य ही ध्यान देंगे।
पूज्यश्रीजी को कोटिशः वन्दना.
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मई-२०१९
34 समाचारसार
पूज्य राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा के द्वारा नगीणा नगरी नागौर में श्री सुमतिनाथ भगवान का भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव
सोल्लास सम्पन्न प. पू. राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा के पवित्र आशीर्वाद व पावन निश्रा में ऐतिहासिक नगीणा नगरी नागौर जहाँ पर सैकड़ों की संख्या में विविध गच्छीय महात्माओं का विचरण रहा, कई (१०० से अधिक) कृतियों की रचनाओं की साक्षी, कई (३०० से अधिक) हस्तप्रतों का जो लेखन स्थल रहा, ऐतिहासिक महापुरुषों के पदार्पण व घटनाओं की साक्षी इस पावन धरा पर पीछले १४४ वर्षों से स्थित प्राचीन श्री सुमतिनाथ जिनालय एवं श्रीजिनदत्तसूरि दादावाड़ी का आमूल-चूल जीर्णोद्धार करवाकर नयनरम्य कलात्मक निर्माण के पश्चात् श्री सुमतिनाथ भगवान आदि जिनबिंबों एवं श्री जिनदत्तसूरि आदि गुरु पादुकाओं का दि. ०८-०५-२०१९, (वैशाख सुद ४) से दि. १२-०५-२०१९ (वैशाख सुद ८) तक उल्लास पूर्वक भव्यातिभव्य पंचाह्निका प्रतिष्ठा महोत्सव मनाया गया.
मंदिर के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि यति परंपरा के यति श्री रूपचंदजी गुरांसा जो जैन तत्त्वज्ञानी व मशहूर नाडी वैद्य थे, उनकी कीर्ति फैलते-फैलते राजदरबार तक पहुँची. अकस्मात राजा की रानी बिमार हुई. तब यतिजी को बुलाया गया. राजपूती परंपरानुसार राजघराने की रानीयाँ अन्य मर्दाना के आगे नहीं आती थी. तब यतिजी ने उनकी कलाई पर एक डोरी बांधकर दूसरे सिरे को अपने हाथ में लेकर उनका उपचार किया था. इससे प्रसन्न होकर उस समय के राजा ने यतिजी को आराधना-साधना व जड़ीबुट्टीयों उगाने हेतु जगह भेंट दी थी. उस जगह को यतिजी ने साधना द्वारा जागृत किया व उसमें जिनालय व दादावाडी का निर्माण करवाया. जीवन के अंत में यतिजी ने यह परिसर नागौर के खजांची परिवार को दे दिया. उन्होंने श्री मंदिरमार्गी ट्रस्ट नागौर को सुपुर्द किया. तब से यह ट्रस्ट इस धरोहर को अच्छी तरह से संभालते हुए और भी भूमि खरीद कर इसका विकास किया. जिर्णोद्धार की आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रसंत प. पू. आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा के पावन सान्निध्य में इसका जीर्णोद्धार करवाकर बड़े ही धूमधाम से प्रतिष्ठा महोत्सव मनाया.
(अनुसंधान पेज नं. ३० उपर)
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20000000000000000000000000004 नागौर नगर की धन्यधरा पर सुमतिनाथ जिनालय
व न दादावाडी के प्रतिष्ठा महोत्सव प्रसंग की विशिष्ट झलकियाँ. 00.0.0.0.0000000000000000000000
विस 2076, वशाख शुक्ल
दिनांक 11 मई 2019, शनिवार
Oकतमागाव
DO
निश्चय कॉलेज
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सुमतिनाथ जिनालय व दादावाडी के प्रतिष्ठा महोत्सव के पावन प्रसंग पर राष्ट्रसन्त प. पू. आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. का नागौर में भव्य नगर प्रवेश.
BOOK-POST/PRINTED MATTER
प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा
जि. गांधीनगर ३८२००७ फोन नं. (०७९)२३२७६२०४, २०५, २५२
फेक्स (०७९) २३२७६२४९ Website : www.kobatirth.org email: gyanmandir@kobatirth.org
Printed and Published by: HIREN KISHORBHAI DOSHI, on behalf of SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. And Printed at : NAVPRABHAT PRINTING PRESS, 9, Punaji Industrial Estate,
Dhobighat, Dudheshwar, Ahmedabad-380004 and og Published at : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&
Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. Editor : HIREN KISHORBHAI DOSHI
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मई-२०१९ अनुक्रम १. संपादकीय
रामप्रकाश झा २. गुरुवाणी
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी ३. Awakening
Acharya Padmasagarsuri ४. ज्ञानसागरना तीरे तीरे डॉ. कुमारपाल देसाई ५. चार कषाय सज्झाय
डिम्पलबेन शाह ६. श्री नारंगा पार्श्वनाथ स्तवन गणि सुयशचंद्रविजयजी ७. गुजराती बोलीमा विवृत अने संवृत ए-ओ
चुनीलाल वर्धमान शाह ८. श्रुतसेवा के क्षेत्र में आचार्य
श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का योगदान
राहुल आर. त्रिवेदी ९. पुस्तक समीक्षा
डॉ. हेमन्तकुमार १०. समाचार सार
नाम कहै जगनाथ, हाथ पर दीधो खावे । पंडित नांम धराय, जोइ पूछीयै सो नावै॥
प्रत क्र. १२२०३३ भावार्थ- जगन्नाथ नाम से जाना जाता हो लेकिन भोजन भी परदत्त खाता हो, वैसे ही पंडित नाम धारण करने वाला हो किन्तु जब कुछ पूछा जाए तब योग्य उत्तर न दे सके, तो ऐसे नाम को धारण करने का क्या मतलब?
* प्राप्तिस्थान * आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में
डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनिक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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संपादकीय
May-2019
रामप्रकाश झा
श्रुतसागर का यह नवीन अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हुए हमें अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है ।
प्रस्तुत अंक में “गुरुवाणी” शीर्षक के अन्तर्गत “सिद्धाचलजीनी आध्यात्मिक यात्रा” लेख प्रकाशित किया जा रहा है। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनों की पुस्तक ' Awakening' से क्रमबद्ध श्रेणी अंतर्गत संकलित किया गया है। “ज्ञानसागरना तीरे तीरे” नामक तृतीय लेख में डॉ. कुमारपाल देसाई के द्वारा आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय प्रस्तुत किया गया है।
अप्रकाशित कृति प्रकाशन के क्रम में सर्वप्रथम श्रीमती डिम्पलबेन शाह के द्वारा सम्पादित तत्त्वविजय गणि द्वारा रचित “चार कषाय सज्झाय” प्रस्तुत किया जा रहा है। इस कृति में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों की कटुता का वर्णन उपयुक्त दृष्टान्तों के साथ किया गया है। द्वितीय कृति के रूप में गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी के द्वारा सम्पादित “नारंगापार्श्वनाथ स्तवन" प्रकाशित किया जा रहा है।
पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में बुद्धिप्रकाश, ई.१९३४, पुस्तक-८१, अंक-३ में प्रकाशित “गुजराती बोलीमां विवृत अने संवृत ए-ओ” नामक लेख के आगे का अंश प्रकाशित किया जा रहा है।
पुस्तक समीक्षा के अन्तर्गत पूज्य आचार्य श्री यशोविजयसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्य पूज्य मुनि श्री भक्तियशविजयजी म. सा. के द्वारा सम्पादित “गूढार्थतत्त्वालोक” पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है।
इस अंक में “श्रुतसेवा के क्षेत्र में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर का योगदान” नामक शीर्षक के अंतर्गत इस संस्था के द्वारा श्रुतसेवा के क्षेत्र में किए जा रहे उल्लेखनीय कार्यों तथा विविध परियोजनाओं का वर्णन प्रकाशित किया गया है।
हम यह आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत करायेंगे ।
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गुरुवाणी
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी सिद्धाचलजीनी आध्यात्मिक यात्रा सिद्धाचल बे प्रकारे छे एक द्रव्यसिद्धाचल, बीजो भावसिद्धाचल. द्रव्यसिद्धाचल श्री शनुंजय तीर्थ जाणवू अने भावसिद्धाचल पोतानो आत्मा जाणवो. कारण के सिद्ध पण आत्मा छे ने अचल पण आत्मा छे. जेम सिद्धाचल पर्वत पुद्गलना स्कंधोथी बनेलो छे. तेम आत्मा असंख्यात प्रदेशोथी परिपूर्ण छे. द्रव्यसिद्धाचल जेम पवित्र करे छे तेम सिद्धाचल रूप जे आत्मा तेनुं स्मरण करतां ध्यान करतां अनंत जन्म मरणना फेरा टाळे छे का छे के
एकैकस्मिन् पदे दत्ते, शत्रुजयगिरि प्रति भवकोटि सहस्त्रेभ्यः पातकेभ्यो विमुच्यते ॥३॥
शुद्ध देवगुरू धर्मनी श्रद्धा सहित वीर्योल्लास वधते छते जे भव्यजीव सिद्धाचल सन्मुख एकेक डगलु भरे छे ते जीव क्रोड वर्ष सुधी करेलां पापोथी छूटी जाय छे. पापी अभविजीवोने तो ए गिरिराजनां दर्शन पण थवां दुर्लभ छे.
ए गिरिराजनो एवो महिमा छे के त्यां जनार जीवोनी परिणामनी धारा सारी, शुभ, शुद्ध थती जाय छे, अने कर्ममेल दूर थतो जाय छे. माटे साक्षात् ए गिरिराजनां दर्शन करतां चक्षु पाम्यानुं सार्थक जाणवू अने गिरिराजना स्पर्शन थकी पग पाम्यानुं सार्थक जाणवू. ____ त्यां जइ द्रव्यथी गिरिराजनुं नमन करवू अने भावथी मननी निर्मळता करवी, शुद्ध वस्त्रो पहेरी पहेलां तलाटीए समता पूर्वक चैत्यवंदन करी उपर नीचीदृष्टि राखी समभावे करी कलंक नाश करता करता चढवू अने चालतां कारणविना बीजा माणस साथे वातचित पण करवी नहि, तेम हसवू पण नहि. आत्मस्वरूपनुं चिंतवन करवू.
अगर चालतां पगने थाक लागे तो मनमां विचार के चेतन खरो थाक आज सहन करजे के जेथी वारंवार जन्म मरणनो भय लागे नहि. वळी चालतां सारा माणसोनी साथे ए गिरिनुं स्पर्शन करवू.
अनादिकाळथी खराब चाल आत्मानो पड्यो छे तेनो ते वखते त्याग करवो जोइए.
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May-2019 क्रोध, मान, माया, लोभ वगेरे रखे वचे ते ठेकाणे मनमां पेशीने आत्माने छेतरे नहि. चालतां पोतानी नानी अवस्था हती त्यारथी जेटलां पाप यादीमां आवे तेटलां संभारी संभारी शुद्धअंतःकरणपूर्वक मिच्छामि दुक्कडं देवो. ____ चोरी, जारी, छळ, कपट, जीवनी हिंसा, असत्यवचन, देवगुरूधर्मनी निंदा करी होय ते सर्वे दुष्कृत्य वैराग्यपूर्वक मनमां संभारी निंदवां के जेथी पापकर्म आत्मा साथे लागेला छे ते नाश पामतां जाय. वळी मनमां विचारवं के हे चेतन ! घणा सारा भावथी अहिं कर्मनो नाश करवा आव्यो छे, माटे कंइ पण बाकी मूकीश नहि. भव्यजीवोने ए गिरि स्वप्नमां सुवर्णनो देखाय छे ए वात सत्य छे. ए गिरिनां भावथी दर्शन करतो मनुष्य
आत्माने उज्ज्वल करे छे अने पोतानो सिद्धाचल आत्मा तेनां दर्शन करे छे. ___ए गिरि चढतां ज्यारे अप्रमत्त हिंगलाजनो हडो आवे छे त्यारे पापनो घडो फुटे छे. हिंगलाज सुधी आवतां खुब थाक लागे छे. त्यारे चेतन थाक लेवा विश्राम करे छे. ते वखते भावना भाववी के हे चेतन ! मनमा विचार के तें कोइ वखत भावे करी आत्मारूप सिद्धाचल गिरिनां दर्शन कर्या होत तो आ थाक लागे छे ते लागत नहि. आ थाक तने लागतो नथी, थाक पुद्गलने लागे छे पण ते ते सारो थाक लागे छे के जेथी तारां भवोभवनां पाप चाल्यां जतां, तुं थाकरहीत थाय छे माटे चढता परिणाम राख.
स्त्री पुत्र परिवारने माटे त्हें टाढ, तडका, भूख, तृषा इत्यादि घणां दुःख सहन कर्यां पण ते दुःखथी मुक्तिपद पाम्यो नहि, पण जो आ वखते तुं शरीर- दुःख सहन करीश तो मुक्तिपद सहेलुं छे. एम विचारी शुभभावे हे चेतन ! आगळ वध अने आदिनाथनां दर्शन करी आत्मस्वरूप प्राप्त कर. एम वधी आगळ चालतां पांडवो विगेरेनां दर्शन करी विचारो के अहो ! ते पुण्यवंता महाबळवान हता. तेओ पण एक वखत आ जगतमांथी चाल्या गया. तो हे चेतन ! विचार के तुं केम पारकी वस्तु पोतानी मानी पापनी प्रवृत्ति कर्या करे छे. ___ मरती वखते जीवनी साथे पुण्य ने पाप आवे छे. माटे आत्मध्यानीओ तो काळानुभावे पुण्य अने पापनो पण त्याग करी सिद्ध स्थानमां बीराजे छे. जे जीव भावथी शखंजय पर चढे छे ते जीव पोताने उत्पन्न थयेला एवा जे सारा भाव तेथी गुणश्रेणिपर चढी केवलज्ञान पामी परमात्मपद प्राप्त करे छे.
धार्मिक गद्य संग्रह भा.१ पृ. ८९६
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मई-२०१९ Awakening
Acharya Padmasagarsuri (from past issue...)
But all such thoughts of renunciation disappear from their minds even while they are returning home from the cremation ground. The transitory objects of wordly life begin to attract their minds.
While walking on the road if their eyes fall on some cinema-poster, they, at once, entertain the desire to see the movie. That desire will not be satisfied until they see the movie. How can they get concentration (which is essential for the peace of mind) until their desire is satisfied? The implication is that they should not entertain such desires.
Lord Mahavira has given a profoundly significant message:
जयं चरे जयं चिट्ठे जयं आसे जयं सए। जयं भुंजंतो भासंतो पावं कम्मं न बन्धइ॥ Jayam chare Jayam chitthe Jayam ase jayam saye Jayam bhujanto bhasanto pavam Kammam na bandhayi
People who are careful in moving, in staying anywhere, in sitting anywhere, in sleeping, in eating and in speaking, will not commit sins.
Every action of ours should be done with great care, discretion and thoughtfulness. This is the ideal embodied in the Lord's message.
He whose actions are noble is a true gentleman. He does not eat food for the taste of it. He accepts food only to keep his body fit and healthy. The meaning of this is he eats that he may
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May-2019 live; and does not live to eat. Eating food to satisfy hunger is necessary though harmful to the soul; but eating voraciously to enjoy the taste of food is not only meaningless but harmful to the soul. The latter causes greater sin.
We worry and trouble others; and others keep worrying and troubling us. In this manner, situations arise in life which compel us to commit sins. The fruit of merit or a noble action is happiness. The fruit of sin is sorrow. Though people know this, they do not refrain from committing sins. Thousands of years ago, the great sage and poet, Bhagavan Vyasa wrote;
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । पापस्य फलं नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥ Punyasya Phalamichchanti punyam nechanti manavah Papasya Phalam nechchanti Papam kurvanti yatnatah
People desire the fruit of merit but do not desire to acquire merit or to do any noble action. As opposed to this, people do not desire the fruit of sin but they deliberately and with effort commit sin. The words of the great sage are true even today. Until now, man's nature has not undergone any change.
If a piece of iron is covered with mud, it will not become gold even if it is touched by parasmani or the philosopher's stone. In the same manner as long as the soul is covered with ignorance and passions the noble precepts of the preceptor will not have any effect on it. If man attains self-realization or if man understands the true nature of his soul he can become a great man. Man requires a strong determination to realize the nature of his soul.
(continue...)
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मई-२०१९ ज्ञानसागरना तीरे तीर (योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज:२)
डॉ. कुमारपाल देसाई (गतांक से आगे)
आवा योगनिष्ठ आचार्य बुद्धिसागरसूरीश्वरजीना एक वर्षनी प्राप्त थती रोजनीशी पर दृष्टिपात करीए। केटलीक रोजनीशीमा भौतिक प्रवृत्तिओनी नोंध होय छे ज्यारे थोडीक एवी रोजनीशी (डायरी) होय छे के जेमां केवळ आध्यात्मिक अनुभवोनुं निरूपण ज होय छे, अने लखनार एमां पोताना वांचन, मनन, निदिध्यासन, आत्मचिंतन, आत्मानंद इत्यादि आंतरगुहामां चालती घटनाओनी नोंध आपे छ । जो तेनामां साहित्यिक शक्ति होय तो, तेने लगता गद्य-पद्यना उद्गारोमा साहित्यिक सुगंध आववा पामे छे। निःस्पृह अने निर्मम भावे, केवळ आध्यात्मिक प्रगति के पीछेहठनी नोंध के निजानंदनी अभिव्यक्ति माटे लखनारा विरल होय छे । योगसाधक आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजीनी रोजनीशी आ प्रकारनी छे । तेमना सुदीर्घ जीवनकाळना लांबा पटने आवरी लेती अनेक वर्षांनी रोजनीशीओ एमणे लखी होवा छतां, एमनी ज वर्षनी रोजनीशी अत्यारे प्राप्त थाय छे।
नानकडी डोकाबारीमाथी महेलमां नजर नाखीए अने जेम तेनी अंदर रहेली अमूल्य समृद्धिनुं दर्शन थाय, एवो अनुभव श्री बुद्धिसागरसूरिजीनी आ एक वर्षनी रोजनीशी परथी थाय छे। आमांथी तेमना भव्य-अद्भुत जीवनकार्यनो ख्याल आवी जाय छ। आमां तेओना योग, समाधि, अध्यात्मचिंतन, विशाळ अने वैविध्यपूर्ण वांचन, लोकहितकारी प्रवृत्तिओनुं आयोजन अने गझलमा मस्तीरूपे प्रगटता निजानंदनुं दर्शन थाय छे।
समग्र जीवनमा एक वर्षतुं महत्त्व केटलं? पळनो पण प्रमाद नहि सेवनार जाग्रत आत्माने माटे तो अंतरयात्राना पथ पर प्रयाण करवा माटे प्रत्येक वर्ष नहि, बल्के प्रत्येक क्षण मूल्यवान होय छे अने भगवान महावीरनी पळमात्र जेटलोय प्रमाद नहि करवानी शीख, ए रीते चरितार्थ थई शके छे। आनो जीवंत आलेख आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजीनी वि. सं. १९७१नी, मात्र एक ज वर्षनी डायरीमाथी मळी जाय छे। एक बाजु विहार, व्याख्यान अने उपदेशनी धर्मप्रवृत्ति चाले, बीजी बाजु भिन्न भिन्न विषयोनां पुस्तकोनुं सतत वांचन थाय, साथोसाथ मननी प्रक्रिया तो चालु ज होय अने
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SHRUTSAGAR
May-2019 आ बधामांथी चूंटाई धूंटाईने लेखन थतुं होय । हजी आटलंय ओछु होय तेम, अविरत ध्यानसाधना पण चालती ज होय अने कलाकोना कलाको सुधी ध्यान लगाव्या पछी थती आत्मानुभूतिनुं अमृतपान करवामां आवतुं होय!
आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजीनी आडायरीओमां एक बाजु सर्जनप्रक्रिया-निबंधो, काव्यो अने चिंतनो इत्यादिनो आलेख मळे छे, तो बीजी तरफ एमना विहार अने वांचनना उल्लेखो मळे छ । आ उल्लेखो प्रमाणमां ओछा छे, परंतु एक आत्मज्ञानीना उल्लेखो तरीके ते ध्यान खेंचे तेवा छे। __मध्यकालीन गुजराती साहित्यमां जैन साधुओने हाथे बहोळा प्रमाणमां साहित्यसर्जन थयु छ। अर्वाचीन युगमां ए परंपरानुं सातत्य आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजीनी साहित्योपासनामां जोवा मळे छ। एमणे मात्र चोवीस वर्षना साधु-जीवन दरमियान संस्कृत, हिंदी अने गुजराती एम त्रण भाषाओमां कुल ११५ जेटला ग्रंथो लख्या। ए समये साधुसमाजमां गमे ते रीते शिष्यो बनाववानी होड चालती हती; त्यारे ज्ञानोपासक बुद्धिसागरसूरिजीए ११५ ‘अमर ग्रंथशिष्यो' बनाववानो निर्णय को हतो। एमना २५ ग्रंथो चिंतन अने तत्त्वज्ञानथी भरेला छे; २४ ग्रंथोमां एमनी काव्यरसवाणी वहे छे, ज्यारे संस्कृत भाषामां एमणे बावीसेक ग्रंथो लख्या हता। एमना काव्यसाहित्य विशे गुजरातना 'युगमूर्ति वार्ताकार' तरीके विख्यात नवलकथाकार श्री रमणलाल वसंतलाल देसाईए कह्यु हतुं :
“श्री बुद्धिसागरजी- साहित्य एटले? एने हिंदु पण वांची शके, जैन पण वांची शके, मुस्लिम पण वांची शके। सौने सरखं उपयोगी थई पडे तेवु ए काव्यसाहित्य, बुद्धिसागरसूरिजीने आपणा भक्त अने ज्ञानी कविओनी हारमा मूकी दे एवं छे।” __योगनिष्ठ आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजीना वांचन, मनन अने निदिध्यासननी त्रिवेणीनो अनुभव पण एमनी आ डायरीमाथी थाय छे । आगळ सूचव्यु तेम एमणे घणां वर्षोनी डायरीओ लखी हती, परंतु अत्यारे तो एमनी वि. सं. १९७१नी मात्र एक डायरी ज उपलब्ध थई छे । परंतु आ रोजनीशी ए कर्मयोगी, ध्यानयोगी अने ज्ञानयोगी आचार्यना व्यक्तित्वने नखशिख दर्शावी जाय छे।
१९७१नी आ रोजनीशीना आरंभे तेओ गुरुस्मरण करे छे। गुरुस्मरणना आ काव्यमा एमनी तन्मयता सतत तरवर्या करे छे । तेओ विचारे छे के, गुरु पासे मागवानुं शुं होय? ज्यां माग्या विना ज बधुं मळतुं होय छे ।
(क्रमशः)
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श्रुतसागर
मई-२०१९
श्री तत्त्वविजयजी कृत चार कषायसज्झाय
डिम्पलबेन शाह धर्मनी आराधना करवाथी विषयनो विराग, कषायनो त्याग, गुणनो अनुराग तथा क्रियामां अप्रमादभाव जन्मे छ । साची भक्ति द्वारा केळवायेलो धर्म शिवसुखनी प्राप्ति माटेनो सरळ मार्ग बने छे। धर्मनी साची आराधना त्यारे ज संभव छे के ज्यारे कषायो नबळा बने । कषायोनी उपस्थितिमां करेल धर्म बळीने खाक थई जाय छ । कषायो संसारमा पोतानी केवी पकड जमावीने बेठा छे तेनुं हूबहू वर्णन करती एक प्रायः अप्रगट कृति आपनी समक्ष प्रस्तुत करवानो एक नानकडो प्रयास कर्यो छे। आम कषायो उपर घणी सज्झायो प्राप्त थाय छे पण आ कृतिनी लाक्षणिकता कंईक अलग छे, जे वाचकने स्वाभाविक रीते तेना तरफ आकर्षे छे। कृति परिचय
आ कृतिमां कविनी खासियत रही छे के जे ते कषायनी कटुतानो उपदेश देवो, ते संदर्भे ते ते कषायनो भोग बनेलाना दृष्टांत आपवा अने अंते ते ते कषायने जीतनारनुं एक उदाहरण टांकवु। आम एक नवा ज अंदाजथी विषयनी प्रस्तुती करती आ कृति वाचकना दिमागमां विषयने आसानीथी उतारी दे छे। चार कषायोनी कटुता चार ढाळोमां वर्णवाई छ । चार कषायमां क्या-क्या दृष्टांतो लेवाया छे अने कषायोने केवीकेवी उपमाओथी दर्शावामां आव्या छे तेनो टुंक सार नीचे प्रमाणे छे। क्रोध___ कर्ताए क्रोधने कायामां रहेल सगडी जेवो अने दुर्गतिनो दाता कह्यो छे । क्रोध यशनो नाशक, समकित तथा तपना नाश साथे चारित्रने मलिन करनार कह्यो छ। क्रोधनी भयंकरता दर्शाववा केटलाक दृष्टांतो पण कर्ताए टांक्यां छे। जेमकेपरशुराम, सुभूम चक्रवर्ती, ब्रह्मदत्त चक्री, नमुची अने विष्णुमुनिनी वात, पालक अने खंधकमुनिनुं दृष्टांत, द्वीपायन, कुणाला नगरीनी खाळ पासे काउसग्ग रहेल अने क्रोधथी वर्षा करनार बे मुनिओनी वात करी अंते क्रोधने परास्त करनार समताना साधक कुरगडु मुनिनो महिमा पण गायो छ।
“म करो क्रोध अजाण रे, ए छइ जिनवर वाणि रे"
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May-2019 जिनेश्वर प्रभुनी आज्ञा प्रमाणे अजाणताय क्रोध न करवानी शीख आपी छ। कर्ता समाजने दुर्गतिना खाडा समान नरकनी खीणमां जवाथी बचावे छे। मान
मानथी महत्वनो नाश, नीच गोत्रनो बंध थाय छे । कीडा अने कंदमूल जेवा क्षुद्र भवोनी प्राप्ती थाय छ । ज्यां आपणु कोई नाम निशान नथी रहेतुं, एक अंशना अनंतमा भागे भराई रहेवू पडतुं होय छे, आवी-आवी गतिओमां भ्रमण करता एवा आपणने अहंकार शानो होय! वळी कर्ता कहे छे के आपणी उत्पत्ति गंदी जग्याए थई नव महिना सुधी अशुचिमां रही बहार आव्या त्यां आटलो अहंकार शानो होय! अहंकारथी पतन पामेला जीवोना दृष्टांतोमां मरीचि, रावण, जरासंघ, बाहबलीजी, हरिकेशी मुनि, नंदिषेण मुनि, स्थूलिभद्रजी जेवा दृष्टांतो दर्शाव्यां छे। अंते आ कषाय पर विजय मेळवी विनय गुण द्वारा केवळज्ञान प्राप्त करनार मृगावती साध्वीनू दृष्टांत पण जणाव्युं छे। माया___ माया माटे कर्ताए आपेली उपमाओ जोवा जेवी छे । माया मोहनी जाल छ। धर्मवृक्षने बाळनारी छे । माया कपटनी ओरडी छे । माया कुडी अने दुखनी खाण छे। अपजशनी केडी अने पापनी वेलडी छे । असत्य वचननी मावडी (मा) छे । सुकृतना करेल संचय- हरण करनारी डाकु राणी छे । माया विषधर सर्पिणी छे, जेणीए केटलाय नर-नारीने डंखी लीधा छ । सरळताना ताविज विना तेनो कोई उपाय नथी।
दृष्टांतोमां- मल्लिनाथजी, आषाढाभूति, उदायी राजानो हत्यारो अभवी, अभयकुमारने फसावनारी वेश्या, शेठ सदर्शनना शीलभंग माटे मथती कपिला, चुलणी माता, मणिरथ राजा, रावण वगेरे । कर्ताए आ साथे केटलांक लौकिक दृष्टांतो पण टांक्यां छे तेमां मायाथी ध्यान भंग थता शिवजी, उर्वशीथी तप हारेला ब्रह्माजी, अहल्याथी चूकेला इन्द्र वगेरे दृष्टांतोनो उल्लेख करी झलेबीथी पण वधु गुंच वाळी आ मायाने सीधी दोर करीने समझावी दीधी छे । आ ढाळना अंते कह्यु के
धन्य ते श्रावक श्राविका रे, धन ते साधु परिवार।
कपट रहीत करि धर्म नि रे, सफल तेहनो अवतार रे॥ लोभ
कविए लोभने सर्पनो अवतार, क्रोधनो सदा साथी अने स्वजनोना स्नेहनो नाशक
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श्रुतसागर
मई-२०१९ कह्यो छे। लोभ पापवृक्षनो बगीचो छ। उदाहरणोमां- मांस लोलुपी मत्स्य, संगीत लुब्ध मृग, कमलमां केद थयेल भ्रमर, दीपकमां आसक्त पतंग जेवा दृष्टांतो दर्शाव्या छ । विशेष उदाहरणोमां- लोभथी भरत चक्री भाई साथे लड्या, समुद्रमां पडेल सागर, लोभथी पोताना ज पिताने हणनार सुरप्रिय, मम्मण शेठ, नंद राजा, पुत्रासक्त सगर चक्री, तिलक शेठ, कंडरिक मुनि, सिंहकेसरिया मुनि जेवा दृष्टांतोनो उल्लेख कर्यो छे । देश छोडी लोभवश पैसा कमावा विदेश जता लोकोने पण कविए आ कृतिमां वणी लीधा अने कह्यु के
‘लोभि समुद्र उलंघी जावि, सेवि वन गिरवार रे'
अंते आ लोभने त्यजी संतोषथी भीना रहेवानी सलाह आपी अने कंचनकामिनीने छोडी संतोष सरोवरमां झीलता वज्रस्वामीने वंदना करी छ। कर्ता परिचय
तपागच्छीय आचार्य विजयसेनसूरिनी पाट परंपराए गच्छाधिपति आचार्य विजयप्रभसूरिनी कृपानिश्रामा संघविजयना शिष्य देवविजय अने तेमना शिष्य तत्त्वविजय द्वारा आ कृतिनी रचना थई छ । कविना गुरु अने दादा गुरु बन्नेय कवि हता। विद्वान् तत्त्वविजयजीनो समय तेमनी अन्य कृतिओ स्तवनचौवीसी'मां रचना वर्ष (संयमभेदचंद्रयुग) वि.सं.१७१४, नेमिजिन रास'मां (चंद्रोदधिनयणानंद) नयण अने नंद लेतां १७२९, नयण अने आनंद एटले के आंखोने आनंद आपनार चंद्र लेवाय तो १७२१ थाय, २४ जिन स्तवन'मां रचना वर्ष वि.सं.१७४९ जणाय छे । आथी एमना कार्यकाळनो समय १८मी पूर्वार्ध होवाना विशेष प्रमाणो प्राप्त थाय छे। समान्यतः कर्ता द्वारा रचना प्रशस्ति कृतिना अंते अपाती होय छे। आ कृतिमां प्रथम सज्झायना अंते कविए पोतानी परंपरा दर्शावी छ। प्रत परिचय
आ हस्तप्रत आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबाना ज्ञानभंडारमां संग्रहित हस्तप्रत क्रमांक-४५१२७ पर उपलब्ध छ । आ प्रतिनुं लेखन वर्ष अनुमानित १८मी सदी छ। प्रतिलेखके पोतानो कोई परिचय आप्यो नथी। आ प्रत सुंदर अने स्वच्छ अक्षरमां लखायेली छ। प्रतिलेखके २आ पर द्वितीय कषाय- वर्णन करता गाथा क्रम आपवामां ८ अने ९ न आपतां सीधो १० क्रमांक आपेल छे, जे क्षतिने अमे सुधारी योग्य क्रमांक आपेल छ।
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May-2019
॥ राम भणइ हरि उठीइ ॥ क्रोध तजो रे क्रोधी जना, क्रोधि नरगि जाय रे । सदगति को नवि पाइरे, क्रोधि क्रोधी कि कइवाइ रे।
पापि पिंड भराइ रे, काया दुर्बल थाइ रे क्रो०..॥१॥ अनजान बंधीउ रे क्रोधडु, नाखि दुरगति कुपरे। धोत्रो तणि रे वशि करी, नर गया बहु भुप रे। पड्या नरगनि कुपरे, पाम्या काया करुंप रे।
ए छि क्रोध सरंपरे क्रो०...॥२॥ कायामांहि अंगीठडु, बालि कोमल काय रे। निरमल जस जाइ तेहनु, जेहनि क्रोध कषाय रे। समकित मुल छेदाइ रे, तप कीधो सवि जाय रे।
___ चारित्र मेलु ते थाइ रे क्रो०...॥३॥ फरस्युंरामे धो करी, कीधो कर्म कठोर रे। न क्षत्री कीधी रे भुमिका, पडिउ नरगनि ठोर रे। कीधां पाप अघोर रे, पाडि बुंब बकोर रे।
तिहां नही केहनु जोर रे क्रो०...॥४॥ आठमु चक्रीय जांणीइ, जिणि कीयु विप्र संहार रे। सभूम समुद्रि पडी, अवतर्यु नरग मझार रे। जिहां छि घोर अंधा(र) रे, भूमीका सस्त्रनी धार रे।
पामि दुख अपार रे क्रो०...॥५॥ दुब्रह्मदत्त ब्राह्मण तणी, काढी क्रोधि ते आंखि रे।
समता तरु फल चाखि रे क्रो०...॥६।। क्रोधि मुनीवर काढता, नमुची नबल प्रधान रे। विष्णु कउमारि चांपीउ, लीधउ दुरगति तांण रे। म करो क्रोध अजाण रे, ए छइ जिनवर वाणि रे।
पडस्यो नरगनी खांणि रे क्रो०...॥७।। १. ?, २. सगडी, ३. (क्रोधो)?,
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श्रुतसागर ___16
मई-२०१९ पालक हुउ रे पातकी, जो(जा)ग्यो द्वेष अपार रे । पांचसई मुनिवर पीलीया, घाली घांणी मझारि रे । खंधकसुरि तेणी वारि रे, जाग्यो क्रोध अपार रे।
कीधो देश साह (संहार?) रे क्रो०...॥८॥ ध्वी(द्वी)पायन नामि रे तापसो, क्रोधि मलीउ खोहार रे। अमरापुरी सम द्वारिका, बाली कीधो ते छार रे। ज्यादव कीधो संहार रे, भरीउ पाप भंडार रे।
नाणी महिर लगा(र) रे क्रो०...॥९॥ काउस्सग दोय मुनीवर रह्या, कुणालानि खाल रे। क्रोधि मेह वरसावीउ, तप थयु आल पंपाल रे। पडिया दुइ पाताल रे, लहि दुख्ख असराल रे।
न करि साल संभाल रे क्रो०...॥१०॥ तप तपि रे बहु परि, क्रोधि ते सवि छार रे। चारित्र चोखं रे तेहनु, नवि धरि क्रोध विकार रे।
आणइ उपसम वारि रेक्रो०...॥११॥ नीर्मल त(ते) होइ रे आतमा, जिम लहो केवलनाण रे। लहिसि ते सु(स)वि नाण रे,
जे छि सुखनी खाण रे क्रिो०...॥१२॥ कुरगडु मुनि ना महिमा घणो, उपसम ल(लि)उं सीवराज रे। एहवू जाणी भो भवि जना, धोध(क्रोध) तजो सुखकाज रे। पामो भवोदधि पाज रे, पामु मुगतिर्नु राज रे।
सीद्धां वंछित काज रे क्रो०...॥१३॥ तपगच्छ नायक्ख(क) रे जाणीइ, श्री विजयप्रभुसुरिंदिरे। क्रोध न तस दस देहमां, मोटो एह मुणंद रे।। प्रणमइ नरवर वृंद रे,
सेवि मुनिवर वृंद रे क्रो०...॥१४॥ संघविजय कविरायनो, देवविजय कविराय रे। तत्वविजय कहि भविजना, म करो कोय कषाय रे। मनवंछित फल थाय रे,
दुरति(दुरीत) दुरि पलाय रे क्रो०...॥१५॥ । इति श्री च्यार कषाए प्रथम क्रोध स्वाध्याय संपूर्ण ।
४.राख,
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मान०....॥१॥
मान०...॥५॥
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May-2019 ॥ढाल । जवरी साचोरी अकबर साहजी रे॥ मान म करयो कोय मानवी रे, मानि महुत ज जाय रे। बंध प(पडे) निचै गोत्रनो रे, मानी ते अधम कहिवाय रे उतपति जोउ नि जीव आपणी रे, तुं भम्यो नीगोद अगाद रे। कुतो विचाणो कंद मुलमांह रे, नीसाणी अनंतमि भाग रे मान०...॥२॥ नीच तणी गति ति लही रे, कुतथा कीटक जीव रे। नरग तणारे दुख ति सहा रे, पाडंति बहु रीवरे
मान०...॥३॥ बंदु थकी रे उतपति ताहरी रे, तु रहुं उदर मझार रे। कलमलकुडि ते नीसरउं रे, एवडो स्यु अहंकार रे
मान०...॥४॥ अहो अहो उत्तम कुल माहरु रे, मरिच भवि धरि मान रे। व्रा(ब्रा)म्हण कुल जाई अवतर्या रे, चुवीसमा श्री व्रधमांन रे मानी ते रावण राजीउ रे, त्रंण खंड जेहनू नाम रे। लंका गढ लुटावीउ रे, दस सिर छेदां राम रे
मान०...॥६॥ जरासंध जग जाणीइं रे, त्रण खंड जेहनी आंण रे। मानि ते वा(बां)धवि मारीउ रे, दरगति लीधो तांणि रे
मान०...॥७॥ बलवंत साधु बाहुबली रे, वरसी काउसग्ग कीधरे। चंडाल कुल जई अवतर्या रे, हरिकेसी मुनीय प्रसिद्ध रे नंदषेण मुनिवर मोटिको रे, आव्यु कोस्सा घरि बार रे। तप मदि तरणं ताणीउ रे, वृष्टि सोवन कोडि बार रे सिंहरुप बीहावी बिनडी रे, थूलिभद्र गभाह मझार रे। धन देखाड्युं निज मीत्रनि रे, श्रुत तणि अहंकार रे स्वान गर्भ नर तेहविं रे, जे करि अतिहि गुमान रे। माद्दवपणउ मन आणता रे, ते लहि सुख नीधांन रे
मान०...॥११॥ जाति नि कुल मद जे करि रे, जे करि रुपनुं मांन रे। माद्दवपणउं मन आण सहि रे, श्रुत तणु म करो गुमान रे मान०...॥१२॥ धन धन साधवी मृगावती रे, गुरुणीनि नामती सीस रे। केवलनाण जोउ उपनुं रे, गुरुणीनइं करतां रीसरे
मान०...॥१३॥ ।इति च्यार कषाए ध्व(द्वितीय मान कषाय स्वाध्याय संपूर्ण ।
मान०...॥८॥
मान०...॥९॥
मान०...॥१०॥
५.गंदा ?.
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श्रुतसागर
मई-२०१९ । ढाल । कपूर होइ अति उजलो रे। माया निवारु मुलथी रे, माया मोहनुं जाल। धर्मतरुनि बालवा रे, माया मोहनुं जाल
॥१॥ प्राणी छंडो माया जाल, जिम पामउ मंगल माल रे प्राणी०॥ (आंकणी) माया ते कपटनी ओरडी रे, कोरडी दुखनी खाणि । अपजस केरी उडणी रे, पुण्यतणी करि हाण रे
प्राणी०...॥२॥ नरगपंथनी उरडी रे, पापतणी छइ वेलि। असत्य वचनी मावडी रे, माया दूरि मेल रे
प्राणी०...॥३॥ षट् मित्रस्युं तप तप्यो रे, कपटि कर्यो तपभेद। मली जिणेसर ते दुहुयार रै, पाम्यो स्त्रीयनो वेदनो रे प्राणी०...॥४॥
आषाडभूतिं मउ(मु)नीसरु रे, मायामां मोदक दीधु । पंच माहाव्रत परिहरी, नटुइस्युं भोग ज कीधरे
प्राणी०...॥५॥ माया चारीत्र पालीउ रे, बार वरसी जेह। राय उदाइंनि मारीउ रे, अभव्य साधु तेहरे
प्राणी०...॥६॥ माया अभयकुमारनि रे, वेश्याइ नाखूपास। चंडप्रद्योतन नृप आगलि रे, आणी मुंक्यो उल्लासरे प्राणी०...॥७॥ कपिलां कपट बहु केवली रे, सुदर्सन तेडी गेह। उगं(अंग) उपांग देखाडी आइ रे, सीलि न चलो तेहरे प्राणी०...॥८॥ माया पुत्र मारवा रे, लाखनां घर करी दीध। काम लंपट ए लोभणी रे, चूलणीइं अगनीय दीधरे प्राणी०...॥९॥ युगबाहु मारो बंधवि रे, कपटि नाखी करवाल। नरगपंथ जई अवतरु रे, मणिरथ नामि भूपाल
प्राणी०...॥१०॥ माया विश्व धुतारणी रे, धुतिराय निरंक। रावण सीता अपहरी रे, आणी मुकी लंक रे
प्राणी०...॥११॥ माया ईश्वर नाचीउ रे, चंडीइ चूकाव्यु धान। व्र(ब्रम्हानो तप अपहरि रे, उरवसी करी तान रे
प्राणी०...॥१२॥
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May-2019 इद्र अहिल्लासु रमउ रे, कपटि थयु मांजार । गोलणी गोविंदनो रे, कपटि कीयो अपार रे
प्राणी०...॥१३॥ माया दुखनी भूमिका रे, स्वर्ग शइवनी(?) वात। सुक्रत संचय जे कर्यो रे, माया तेहनी धाडि रे
प्राणी०...॥१४॥ माया विषधर सर्पणी रे, खाधां नर नि नारि । अजव तावज आणतां, टलि विष टलि विषनो विकार रे प्राणी०...॥१५॥ धन्य ते श्रावक श्राविका रे, धन ते साधु परिवार । कपटरहीत करि धर्मनि रे, सफल तेहनो अवतार रे प्राणी....॥१६॥
।इति श्री च्यार कषाए व्रतीय माया सज्झाय ।
नमो रे नमो रे श्री शेत्रिज0 ए देशी। परिहर प्राणी परिहर प्राणी, परिहरि लोभनो व्याप रे। लोभ तणि रस जे नर तारा, ते नर मरी थाइ साप रे परिहरि...॥१॥ लोभ क्रोध सदा रहिवाशि, नाशि सजने नेहा रे। प्रतातणी छादनकालि, लोभ घनाघन मोहा रे
परिहरि...॥२॥ आमीष लोपि(भि) मछ जे जालि, मृग पडीउ ते पास रे। कमलि भीड्यो मधुकर हवि, जोउ ला(लो)भ त पसांइ रे परिहरि...॥३॥ लोभि विर वरो धन ज वाधइ, लोभ छि क्रोधनु ठाम रे । दीवि पड्यो पतंग ज रोवि, पाप तरु आराम रे
परिहरि...॥४॥ लोभि नीज बंधवनि साथि, भरथचक्री ते नडीउ रे। अहो अहो लोभ तणा फल विरुयां, सागर समुद्रि पडीउरे परिहरि...॥५॥ सुरप्रीइ नीज तात ज हणीउ, लोभ तणी गति दीठी रे। राजग्रही नगरीमां जांण्यो, लोभीउ मम्मण दीठो रे
परिहरि...॥६॥ नवि नंद गया ते नरगि, मेहली सोवननी कोडि रे। मुव्वा(?)ण सेठ हुउ ते लोभी, नगइ गयु सवि छोडि रे परिहरि...॥७॥ पुत्री त्रीपत न पाम्यु सागर, बीजो चक्री कहीइरे। कुचीकणि(?) गोसहस्त्र मेली, नरग तणां दुख लहीइरे परिहरि...॥८॥
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श्रुतसागर
मई-२०१९ तिलके सेठ हुउ ते लोभी, धानना कोठार ज भरीया रे। पापिं तरी नीज पोतुं, नगर ते अवतरीया रे
परिहरि...॥९॥ कंडरीक मुनि लोभि पडीउ, व्रत छंडी हूउ भूपाल रे। सिहकेशरी मुनि लाडु लोभि, भीक्षा भम्यो अकाल रे परिहरि...॥१०॥ लोभि चोर करइ ते चोरी, सहि मर्म प्रहार रे। लोभी कुष्टीनि ने वेश्या, वली भम्यु भरतार रे
परिहरि...॥११॥ लोभि समुद्र उलंघी जावि, सेवि वन गिरवार रे। लोभि लोभ होइ अधिकेरो, नीच तणी करि आस रे परिहरि...॥१२॥ लोभ तणां फल विरुयां दीसि, छंडी भवीजन प्राणी रे। संतोष सु सदा रहु भीना, जिम लहु केवलनाण रे परिहरि...॥१३॥ नीर्लोभी मुनीसर मोटो, वयर नमु करजोडि रे। संतोष सरोवर मांहि झील्यो, कंचण कामणि छोडिरे परिहरि...॥१४॥ एहवु जाणी रुडा प्राणी, संतोषसु चित राखि रे। भवोदधीनो पार ज पामी, मुगति तणां फल चाखो रे परिहरि...॥१५॥ श्रीविजयप्रभूसीरीसर चंदो, तपगछ केरु दीवो रे। नीर्लोभी मुनीसर मोटो, ए ग(गु)रु घणु चिरंजीवो रे परिहरि...॥१६॥
॥ इति श्री च्यार कषाए चतुर्थ लोभ कषाय स्वाध्याय संपूर्ण ||श्रुः || श्रीः॥
क्या आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं ? आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में आगम, प्रकीर्णक, औपदेशिक, आध्यात्मिक, प्रवचन, कथा, स्तवन-स्तुति संग्रह आदि विविध प्रकार के साहित्य प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी, पुरानी हिन्दी, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं में लिखित विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित अतिविशाल बहुमूल्य पुस्तकों का संग्रह है, जो हमें किसी भी ज्ञानभंडार को भेंट में देना है. यदि आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं तो यथाशीघ्र संपर्क करें. पहले आने वाले आवेदन को प्राथमिकता दी जाएगी.
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May-2019 श्री दीप्तिविजयजी कृत श्री नारंगापार्श्वनाथ स्तवन
गणि सुयशचंद्रविजयजी १०८ पार्श्वनाथ प्रभुना तीर्थोनी यात्रा करनारा भाविकोए खंभाततीर्थना स्थंभन पार्श्वनाथ, सोमचिंतामणि पार्श्वनाथ, भुवन पार्श्वनाथ, कंसारी (भीडभंजन) पार्श्वनाथादि विशिष्ठ जिनमंदिरो (बिंबो) ने जुहार्या ज हशे। हमणां थोडा समय पूर्वे केटलीक प्राचीन हस्तप्रतोनो अभ्यास करता खंभातमां पूर्वे विराजमान के जे हालमां क्यां छे? तेनी खबर नथी ते नारिंगा (नारंग) पार्श्वनाथ संबंधि एक स्तवन जडी आव्यु त्यारे १०८ पार्श्वनाथ प्रभुनी यात्राए जता भाविकोने माटे आ कृति प्रकाशित करवानी भावना थई। खास तो खंभातादि तीर्थयात्राए आवता भाविको पण आ रीते कशु नवु जाणवा-समजवा के शोधवा निकळे एवी आशा साथे आ कृतिनुं अहिं संपादन कर्यु छे ।
प्रस्तुत कृति कवि दीप्तिविजयजी द्वारा रचायेली संक्षिप्त रचना छे । कविए अहिं नारंगा पार्श्वनाथ प्रभुनी स्तवना तो करी ज छे साथे साथे ते प्रभुनी स्थापना (प्रतिष्ठा) कोणे करी? कई सालमां करी? कया गुरुभगवंतना हस्ते करी? तेनी पण ऐतिहासिक विगतो आलेखी छे। जो के आ प्रतिमा क्यां बिराजमान हती? तेमनुं नाम नारंगा पार्श्वनाथ केम पड्यु? तेनी कशी नोंध काव्यमां नथी। एक एवी पण शंका जाय के शा. नेमीदासना पत्निनुं नाम नारंगदे हतुं तो शुं तेना नाम परथी भगवाननुं नाम “नारंगा पार्श्वनाथ” पड्यु हशे? आमेय ग्रामादिकना नाम परथी विविध गच्छोना, चैत्योना नाम पडेला जोई शकाय छे। जो अहिं पण एवं कशुं बन्यु होय अथवा कशुं जुदु होय तेनी जो कोई जिज्ञासु व्यक्ति तपास करे तो ज खबर पडे। खास तो आ संदर्भ चैत्यपरिपाटी, तीर्थमाळादि ऐतिहासिक साहित्यमां पण तपास करवी घटे।
आ कृतिना कर्ता तपागच्छीय मानविजयजीना शिष्य मुनि श्रीदीप्तिविजयजी छ । तेमणे स्तवन सज्झायादि लघु कृतिओ साथे रास जेवी मोटी कृतिओ पण रची छे । देशी साथे संस्कृत रचना पण करी छ । हालमां मळती तेमनी रचनाओमां नारंगा पार्श्वनाथ स्तवन सिवाय अन्य ६ रचनाओ छे। तेमां आदिजिन गीत, चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र (संस्कृत), कयवन्ना रास, मंगलकलश रास, दान सज्झाय, माया परिहार सज्झायनो समावेश थाय छे। कयवन्ना रास अने मंगलकलश रासमां तेमनी विस्तृत परंपरा जोवा मळे छे। चतुर्विंशतिजिन स्तोत्रमा पोताना नाम साथे गुरुनाम तथा गच्छाधिपतीनो
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श्रुतसागर
मई-२०१९ संकेत होवानुं जणाय छ । अन्य कृतिओमां मात्र गुरु सुधी ज नाम प्राप्त थाय छे । बे रासमां मळती विस्तृत परंपरा आ प्रमाणे छे- गच्छाधिपति आचार्य विजयराजसूरि, तेमना शिष्य विजयदानसूरि, तेमना शिष्य राजविमल, तेमना शिष्य मुनिविजय, तेमना शिष्य देवविजय, तेमना शिष्य मानविजय अने तेमना शिष्य दीप्तिविजय छे। तेमनुं अन्य नाम दीपविजय पण छे । गच्छाधिपति आचार्य विजयराजसूरिनी जग्याए मंगलकलश रासमां विजयमानसूरि नाम मळे छे। कयवन्ना रास अने माया परिहार सज्झाय अद्यावधि प्रायः अप्रकाशित कृतिओ छ।
प्रान्ते संपादनार्थे प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत नकल आपवा बदल श्रीनेमि-विज्ञानकस्तूरसूरि ज्ञानभंडारना आगेवानोनो खूब खूब आभार ।
श्री नारि(रं)गापार्श्वनाथस्तवन
॥१॥
अहँ नमः। ऐं नमः॥
॥ देशी-वींछूआनी॥ समरी सारद सामिनी, मागुं वचनविलास रे लाल। श्रीनारिंगो पासजी, प्रभु गाउं मनि उल्लासि रे लाल श्रीनारिंगो भेटीइ, जिम मनवंछित होय रे लाल । देव सवेमांहिं दीपतो, एह समो नहीं कोय रे लाल। श्रीनारिंगो...॥२॥ त्रंबावतीनयरी-धणी, नीलवरण तनु सार रे लाल। मुझ मन तुझ चाहइ घणुं, जियु चातक जलधार रे लाल। श्रीनारिंगो...।।३।। संवत सत्तर सत्तोत्तरइ(१७०७), प्रतिष्ठा कीधी सुविवेक रे लाल। श्रीविजयराजसूरीश्वरइ, ओच्छव हूआ अनेक रे लाल। श्रीनारिंगो...।।४।। सा. नेमीदास जगि जाणीइ, भाग्यवंत गुणगेहरे लाल। तस ललनां नारिंगदे, सयल सतीमांहिं लीह रे लाल। श्रीनारिंगो...॥५॥ सकल संघनइं पोषइ सदा, आगम उपरि नेह रे लाल । एह समी जगि को नहीं, प्रतिमा भरावी एह रे लाल श्रीनारिंगो... ॥६॥ तुझ महिमा अति वाधीउ, विस्तरो देस विदेस रे लाल। परदेसना घणा संघवी, प्रभु आवइ तव उपेस रे लाल श्रीनारिंगो...॥७॥
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May-2019 नर नारी भाविं करी, गाइ तुझ गुण सार रे लाल। ते तुझनइ इम वीनवइ, प्रभु ऊतारो भवपार रे लाल श्रीनारिंगो...॥८॥ चंदवदनी मृगलोचना, गोरडी गोरइ वानि रे लाल। तुझ गुण गांन करइ सदा, झालि झबूक्कइ कांनि रे लाल श्रीनारिंगो...॥९॥ अश्वसेन-कुलि-चंदलो, वामादेवीनो नंद रे लाल। जलतो नाग निजामीउ, ते हूउ धरणिंद रे लाल
श्रीनारिंगो...॥१०॥ तुं हि सज्जन तुं हि साहिबो, तुं मुझ प्राण आधार रे लाल।। भवि भवि मांगु हुं सही, तुं मुझ भवभय वारि रे लाल श्रीनारिंगो...॥११॥ नागराज पद्मावती, करइ प्रभुपदपंकज सेव रे लाल। खंभायतना संघनइ, प्रभु सुख देयो नितमेव रे लाल। श्रीनारिंगो..॥१२॥ मुझ सरिखा जन सेवका, प्रभु ताहरइ छइ अनेक रे लाल। हुं किंकर प्रभु ताहरो, तुं ठाकुर मुझ एक रे लाल श्रीनारिंगो...॥१३॥ सकल-पंडित-मुकुटामणी, मुनिवरमांहिं परधान रे लाल। श्रीमानविजय कविराजनो, प्रीति दीप्ति करइ गुण गान रे लाल। श्रीनारिंगो...॥१४॥
॥ इति श्रीनारिंगापार्श्वना(थ) स्तवनम् ॥ सं. १७१२ वर्षे ॥
श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं अथवा किसी महत्त्वपूर्ण कृति का नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, जिसे हम अपने अंक के माध्यम से अन्य विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादनकार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? इस तरह अन्य विद्वानों के श्रम व समय की बचत होगी और उसका उपयोग वे अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों के सम्पादन में कर सकेंगे.
निवेदक
सम्पादक (श्रुतसागर)
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मई-२०१९ गुजराती बोलीमा विवृत अने संवृत ए-ओ
चुनीलाल वर्धमान शाह (गतांक से आगे)
लेखनमा स्वरोने व्यंजनोथी जूदा पाडवानी जे पद्धति १५-१६ मा शतकमा हती, ते माटे उच्चारण-भेद- तत्त्व पण केटलेक अंशे जवाबदार हशे, एम आ उपरथी मानवु पडे छे । हणइया शब्द हणिया माटे लखायेलो हशे अने आजे पण कवितामां लखाय छे; परंतु ते पछीना काळमां हणइया नुं रूप हणेआ थयु जे १९ मी सदीना अंत सुधी चालु हतुं। आ बे प्रकारनां रूप उपरथी तेना उच्चारणमा जे प्रयत्नभेद होवानो संभव छे, ते आ प्रमाणेः
हण-इया हणिया
हण-इया हणेआ आ ज रीते वास्तविक बोलीमां अइ-अउ जेवां स्वयुग्मोनां उच्चारणोमां पण प्रयत्नोना विकल्पो प्रचलित थया होय ए अस्वाभाविक जणातुं नथी। गौरी शब्दनां बे रूपो छेः गोरी अने गॉर्य । आ बेउ रूप प्रयत्नोना विकल्पनां परिणामो छः
गौरी-गउरी-गोरी (गौरवर्णी सुंदरी)
गौरी-गउरी-गॉर्य (पार्वती) जूनी गुजरातीना लेखनमां व्यंजनो साथेना स्वरोना आश्लेष-विश्लेषना नियमोमां जेवी शिथिलता हती, तेवी उच्चारणमा हती तथा प्रयत्नमां पण हती। कःपुनः उपरथी साधित थएलुं कवण रूप अत्यारे कवितामां प्रचलित छे, ज्यारे गद्यमां कॉण प्रचलित छे; पण कउण अने कुण ए जूनी गुजरातीना काळमां प्रचलित हतां । कउण मां क उपर प्रयत्न मूकनारा कोण-कॉण बोलता थया, अने कउण ए उ उपर प्रयत्न मूकनारा कुण बोलता थया। ए ज रीते केटलाक शब्दोमां स्वरोना विश्लेष थवाथी (वस्तुतः बोलीमां प्रसरवाथी) प्रयत्नो बदलायानां अने संवृत ए-ओ प्रचलित थयानां उदाहरणो मळे छ।
सुराष्ट्र-सउरट्ठ-सोरठ कुमार-कुंवर-कुंयर-कुअर-कुर-कउर-कोर (देवकुर-देवकोर)
थुवर-थुअर-थउअर-थोर* *कोइ थॉर पण बोले छे; तेमने थउर जेवा प्रयत्ननो वारसो मलेलो होय छे.
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May-2019 गुरू-गउरु-गॉर गुड-गुलु-गउलु-गॉळ मृत्यु-मुत्तु-मउत-मौत (हिंदी)-मॉत मुख-मुह-म्हउ-म्हॉ उषर-अउषर-ऑखर + उषा-अउषा-आँखा उत्तर-अउत्तर-ऑतर बुन (व्हेन शब्दनुं ग्राम्य रूप) –बउन-बान
प्रयत्न केवळ बोलीनो ज विषय होवाथी अने प्रांतभेदे तेमां फेरफार रह्या करतो होवाथी अमुक संस्कृत के प्राकृत शब्दोमां अमुक ज स्वरो पर प्रयत्न होवो जोइए, एवो एक सामान्य नियम स्थापवो मुश्केल छ । मूळ शब्दो अने तेमनां वर्तमान रूपो तथा उच्चारणो उपरथी बोलीमां थती विकृति अने प्रयत्नोनी असरनु पगेरूं ज मात्र काढी शकाय छे।
(४) श्री. नरसिंहरावे आ विषय पोताना Gujarati Language and Literature Vo.I मां खूब विस्तारथी चा छे । अइ अने अउ मांना अउपरना प्रयत्नने तेओश्री विवृत ऍ-ऑ नो साधक तथा इ उपरना प्रयत्नने संवृत ए-ओ नो साधक जणावे छे । तेमने मते अइ अने अउ प्रतिसंप्रसारण पामी अय्-अव् थाय छे अने पछी विवृत ऍ-ऑ थाय छ। ___अय्-अव् ना आ माध्यमिक उच्चारणनो आधार तेओश्री वैर-वइर, बैठा-बइठा, गौरी-गउरी इत्यादिने माटे जूना गुजराती साहित्यमां कोइ कोइ वार वयर, बयठा तथा गवरी जेवां य-व कारवाळां रूपो उपलब्ध थाय छे ते उपर राखे छे । तेवी ज रीते हैरान अने कौल जेवा फारसी शब्दोनी मूळ जोडणी हय् रान अने कव् ल मांना य् कार व् कार ने तेओश्री गुजराती हरान-कॉलमांना विवृत उच्चार माटे आधाररूप माने छ। अय, अइ अने ऐ मां तथा अव्, अउ अने औमां उच्चारणनो भेद सूक्ष्म छे। श्रुतिनी मात्राने हिसाबे तेमांथी सूक्ष्म भेद शोधी शकाय छे, परन्तु लोकप्रचलित बोलीमा ए भेद एटली सूक्ष्मताथी जळवाइ रह्यो होय के लहियाओए ते पारखीने तेने अनुरूप +आवा विशुद्ध स्वरमां पण व्यंजनमिश्रित स्वरना जेवा उच्चारणनी लोकसमजने कारणे (अ) अ-उ जेवो उच्चार प्रचलित थयो होवो जोईए.
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मई - २०१९
जोडणी करी होय एम बनवुं मुश्केल छे । कोइ लेखमां वयर, वयरागी जेवी जोडणी मळवा संभव छे, तेज रीते १५ - १६ मी सदीमां शुद्ध वैर-वैरागी जोडणी पण मळे छे
I
लेखकोए जोडणी लखवामां एवी अनियमितता चलाव्या करी छे के ते उपरथी तत्समयनो वास्तविक उच्चार पकडीने तेने अनुरूप कोइ नियम शब्दोनां माध्यमिक स्वरूपो माटे स्वीकारी लेवो ए युक्त लागतुं नथी । इ नो य, य नो इ, ऐ नो अइ तथा अइ नो ऐ लखवामां चालेली अनियमिततानां थोडां उदाहरण बस छे।
गाईस्यूं तुम्ह पसाइ, कर्मण लागइ पाइ
(कर्मणमंत्रीनुं सीताहरण)
बीजूं मुझ कह्नि मागयो, कीजि एह पसाय
(हरिदासकृत आदि पूर्व-क० ४०, १७ मी सदी)
स्तुति करी नीचा नम्या, प्रणम्या जैनि पाय.
(गुणमेरूनुं पंचोपाख्यान, १७ मी सदी)
येणि वैर कीधूं व्यालशूं, जागि विमाशी वात
(हरिदासकृत आदि पर्व, क०१८)
शीघ्र थै तयो सभा व्यषि, आंहि पांचालीनि ल्यावुं.
भाइ तेहनी कुण प्रभवी सकि
(कृष्णदासनुं सभा पर्व, क० २७, १७ मी सदी)
गतप्राण थैयनि सभामांहि, बिठाछि सर्व कोइ (सदर)
श्री आतश बिहिराम नुसारीमां पधारेआ.
(१७१८ नुं एक पुस्तक)
चंदा दीपति जीपति सरसति, मइं वीनवी वीनती
(धनदेवगणिकृत नेमीफाग-सं. १५०२)
अह्यो उभयमांहि अधिक कवण
(कृष्णदासकृत सभा पर्व क० ३१)
(सदर क० ३०)
(क्रमशः)
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May-2019 श्रुतसेवा के क्षेत्र में आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
का योगदान
राहुल आर. त्रिवेदी (गतांक से आगे) पुस्तक संरक्षण
ज्ञानमंदिर के भूतल कक्ष में विद्वानों तथा पाठकों के लिए अध्ययन की सुंदर व्यवस्था की गई है। यहाँ कुल मिलाकर लगभग १५,००० मुद्रित प्रतों एवं २,५०,००० से अधिक प्रकाशित ग्रन्थों का संग्रह है। ग्रंथालय में भारतीय संस्कृति, सभ्यता, धर्म एवं दर्शन के अतिरिक्त विशेष रूप से जैनधर्म से संबंधित सूचनाओं को इतना अधिक समृद्ध किया जा रहा है कि कोई भी जिज्ञासु वाचक यहाँ आकर अपनी जिज्ञासा पूर्ण कर सके।
जैनधर्म के विविध गच्छों, समुदायों के साधु-साध्वी, गृहस्थ एवं अपने-अपने क्षेत्र के विद्वान विविध प्रश्न लेकर यहाँ आते हैं और पूर्ण संतुष्टि का अनुभव करते हैं। कुछ वाचकों का कहना है कि “जो पुस्तकें या हस्तप्रत हमें कहीं नहीं मिलती वह यहाँ आसानी से और तुरन्त मिल जाती हैं। ये पुस्तकें विविध प्रकाशकों व विक्रेताओं से खरीदी जाती हैं तथा विविध दाताओं व ज्ञानभंडारों की ओर से भेंटस्वरूप भी प्राप्त की जाती हैं। इन पुस्तकों का संरक्षण व उनमें निहित सूक्ष्मतम सूचनाओं का संग्रह किया जाता है। शहरशाखा, अहमदाबाद
अहमदाबाद शहर के वाचकों तथा शहर के विविध स्थानों में चातुर्मासार्थ विराजमान प.पू. साधु-साध्वीजी भगवन्तों के अध्ययन-संशोधन के कार्य में उपयोगी हो सके, इस हेतु से पालडी विस्तार में शहरशाखा की स्थापना की गई है, जहाँ से उन्हें पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती हैं। इसके अतिरिक्त कोबा में संरक्षित पुस्तकें भी उन्हें उनके स्थान पर उपलब्ध कराई जाती हैं। विशिष्ट वाचकसेवा ___ ज्ञानमंदिर में वाचकों के हित को ध्यान में रखकर कार्य किया जाता है । जिज्ञासुओं को कम से कम समय में अधिक से अधिक जानकारी दी जा सके, उसका निरंतर प्रयास किया जाता है। श्रुतोद्धार हेतु साधु-साध्वी एवं विद्वानों को अप्रकाशित कृति
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मई-२०१९ उपलब्ध कराई जाती है तथा विविध विषयों के अभ्यास, स्वाध्यायादि हेतु पुस्तकें उपलब्ध करायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त पाटण, खंभात आदि अनेक प्राचीन ज्ञानभंडारों में संरक्षित हस्तप्रतों तथा ताड़पत्रों की सूचनाएँ भी उन्हें उपलब्ध कराई जाती हैं।
इस ज्ञानमन्दिर का लाभ लेनेवाले विद्वानों में अनेक अग्रणी आचार्य भगवन्त, पू. साधु-साध्वीजी भगवन्त, देश-विदेश के विशिष्ट विद्वानों के साथ यहाँ नियमित वाचकों की संख्या १८५७ है. इन वाचकों को उनकी अपेक्षित हस्तप्रतों, मुद्रित पुस्तकों, मासिक अंकों तथा उनमें से उनकी वांछित कृतियों, लेखों, स्तुति, स्तवनों एवं सज्झायों की पीडीएफ तथा प्रिन्ट भी दिए जाते हैं। कुछ विशिष्ट विद्वान निम्नलिखित
१. जैन समाज के प्रमुख आचार्य भगवंत
पूज्य गच्छाधिपति आचार्य श्री जयघोषसूरिजी म.सा., पूज्य गच्छाधिपति आचार्य श्री पुण्यपालसूरिजी म.सा., पूज्य आचार्य श्री गुणरत्नसूरिजी म.सा., पूज्य आचार्य श्री शीलचंद्रसूरिजी म.सा., पूज्य आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरिजी म.सा., पूज्य आचार्य श्री तीर्थभद्रसूरिजी म.सा., पूज्य आचार्य श्री योगतिलकसूरिजी म.सा., पूज्य मुनि श्री वैराग्यरतिविजयजी म.सा. (श्रुतभवन), पूज्य आचार्य श्री यशोविजयसूरिजी म.सा., पूज्य गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म.सा., पूज्य मुनि श्री मेहुलप्रभसागरजी म.सा., पूज्य साध्वीश्री चंदनबालाश्रीजी आदि साधु-साध्वीजी भगवंतों को अपेक्षित पुस्तकें, जेरोक्स, प्रिन्ट एवं पीडीएफ सामग्री ई-मेल आदि से उपलब्ध कराई गई हैं। २. जैन समाज के अग्रणी विद्वान श्रावक-श्राविका ____ डॉ. कुमारपाल देसाई (अहमदाबाद), श्री गुणवंतभाई बरवालिया (मुंबई), डॉ. जितुभाई शाह (एल.डी. इन्डोलोजी, अहमदाबाद), श्री बाबुभाई सरेमलजी (साबरमती), श्रीमती भानुबेन सत्रा (मुंबई), श्रीमती रेणुकाबेन पोरवाल (मुंबई), छायाबेन शेठ बेंगलौर आदि विद्वानों को उनकी आवश्यकतानुसार पुस्तकें, जेरोक्स, प्रिन्ट एवं पीडीएफ उपलब्ध कराये गये हैं। ३. स्थानीय व विदेशी विद्वान
डॉ. विजयपाल शास्त्री (आयुर्वेद), डॉ. सागरमल जैन, स्व. डॉ. मधुसूदन ढाकी, डॉ, वसंत भट्ट, डॉ. कविन शाह, प्रो. कमलेश चोक्सी, डॉ. धवलभाई
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May-2019 पटेल (कलक्टर सुरत), प्रो. अशोककुमार सिंह-दिल्ली, सुश्री साक्षी साबो-निरमा युनिवर्सिटी अहमदाबाद, प्रो. नलिनी बलवीर-पेरिस विश्वविद्यालय, डॉ. पीटर फ्लुगल-एसओएएस युनिवर्सिटी ऑफ लंदन, लीना धनानी-यु.एस.ए., डॉ. मार्टिन गेन्स्टन-स्वीडन आदि विद्वानों को अपेक्षित पुस्तकें, जेरोक्स, पीडीएफ आदि उपलब्ध कराये गये हैं। ४. विविध संस्थान
जिनशासन आराधना ट्रस्ट आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार-अहमदाबाद, श्रुतलेखनम्-अहमदाबाद, श्रुतभवन-पुणे, एल. डी. इन्डोलोजी-अहमदाबाद, जैन विश्व भारती संस्थान-लाडनूं, वीरशासनम्, पतंजलि योगपीठ-हरिद्वार, पार्श्वनाथ शोध संस्थान-बनारस, प्राकृत भारती एकेडमी-जयपुर इत्यादि विभिन्न संस्थाओं को अपेक्षित पुस्तकें, जेरोक्स, प्रिन्ट एवं पीडीएफ साहित्य उपलब्ध कराये गये हैं। ५. जैना ई लायब्रेरी
जैना ई लायब्रेरी यु. एस. ए. को पुस्तकें तथा मैगजीन आदि साहित्य स्केनिंग के लिए भेजा जाता है, ताकि देश विदेश के विद्वानों को ऑनलाईन पुस्तकें, पत्रपत्रिकाएँ, विशिष्ट निबन्ध आदि तत्काल उपलब्ध हो सके। ६. अनेक ग्रंथालयों को समृद्ध करने हेतु भेंटस्वरूप पुस्तकों की आपूर्ति
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में भेंटस्वरूप प्राप्त पुस्तकों में जिनकी आवश्यकता से अधिक नकलें होती हैं, वे पुस्तकें अन्य संस्थाओं की समृद्धि हेतु उन्हें भेंटस्वरूप प्रदान की जाती हैं। ऐसी ८३,२१९ पुस्तकों में से आज तक निम्नलिखित विशेष संस्थाओं एवं संघों को भेंट में पुस्तकें दी गई हैं। १) वर्धमान एज्युकेशन एन्ड रिसर्च इन्स्टीट्युट-पूणे, २) श्री वेपेरी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ-चेन्नई, ३) श्री सुधर्मास्वामी जैन ज्ञानभंडार-साबरमती, ४) आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघमुंबई, ५) स्थानकवासी जैन संघ-शाहीबाग अहमदावाद, ६) श्री नेमिनाथ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ-कडपा हरिभद्रसूरि ज्ञानभंडार सूरत तथा भारतवर्ष के अन्य कई ज्ञानभंडारों को अबतक लगभग ४९,४१३ पुस्तकें भेंटस्वरूप प्रदान की गई हैं। __इसके अतिरिक्त १५० से २०० बॉक्स में रखी ३३,८०६ पुस्तकें जिनके नाम सूची में नहीं है, जो किसी भी संस्था या ज्ञानभंडार को भेंटस्वरूप देने हेतु हैं, ये पुस्तकें किसी भी ज्ञानभंडार को समृद्ध बना सकती है।
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ज्ञानमंदिर के सहयोग से प्रकाशित पुस्तकें
मई - २०१९
साहित्य जगत् में विद्वद्वर्ग को पुस्तक संशोधन-संपादन कार्य में ज्ञानमंदिर का अमूल्य सहयोग रहा है । ज्ञानमंदिर के सहयोग से अबतक विविध विद्वानों व प्रकाशकों के द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं
१) बृहत्कल्पसूत्र/ संपादक- आचार्य शीलचंद्रसूरि म.सा., मुनि त्रैलोक्यमंडनविजय म.सा., २) द्वात्रिंशिद् द्वात्रिंशिका तथा ३) द्रव्यगुणपर्यायनो रास - आचार्य यशोविजयसूरि, ४) श्रीमद् देवचंद्रजी कृत चोवीसी तथा ५ ) श्रीपाल रास / संपादकप्रेमलभाई कापडिया, ६) योगशतक / संशोधक बालकृष्ण आचार्य वैद्यराज, ७) अचलगच्छीय ऐतिहासिक रास/ संग्रहकर्ता श्रीपार्श्व, ८) क्षमाकल्याणजी कृति संग्रह/ संपादक-मेहुलप्रभसागर म.सा., ९) महावीर चरियं/प्रकाशक - दिव्यदर्शन ट्रस्ट, इस पुस्तक का प्राथमिक अक्षरांकन, पृष्ठ सेटिंग आदि कार्य में सहयोग कर चार भागों में प्रकाशित किया गया है, १०) महावीर चरियं / संपादक - न्यायरत्नविजय म.सा., प्रकाशक- ॐकारसूरि ज्ञानमंदिर । इस प्रकार श्रुतसेवा व श्रुतोद्धार में संलग्न विद्वानों एवं संस्थाओं को ज्ञानमंदिर का सहयोग हमेशा से प्राप्त होता रहा है और होता रहेगा ।
(क्रमशः)
(अनुसंधान पेज नं. ३४ का)
इस प्रतिष्ठा के लिए तथा प्रतिष्ठाचार्य के लिए तपगच्छ श्रीसंघ, श्रीखरतरगच्छ श्रीसंघ व श्रीपार्श्वचंद्रसूरि गच्छ, इन तीनों गच्छोंने मिलकर निर्णय लिया व मुंबई में पूज्य आचार्यश्री के जन्मदिन पर विनंति हेतु पधारे व गुरुदेवनें इस कार्य हेतु अपनी स्वीकृति दी. तीनों गच्छों के त्रिवेणी संगमरूप संघ की उपस्थिति में सर्वसम्मति से उल्लास व उमंग के साथ प्रसंग संपन्न हुआ.
महोत्सव के प्रथम दिन श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजन, द्वितीय दिन क्षेत्रपाल स्थापना, माणक स्थापना, तोरण स्थापना, दस दिक्पाल पूजन, नवग्रह पूजन, अष्टमंगल पूजन, लघु नंद्यावर्त पूजन, भैरव पूजन, देव-देवी पूजन किये गये. तीसरे दिन परमात्मा का भव्यातिभव्य वरघोड़ा, चतुर्थ दिन प्रतिष्ठा व पंचम दिन भव्य द्वारोद्घाटन व सत्तरभेदी पूजा का आयोजन किया गया. साथ में अनेक धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यक्रम पूर्ण धार्मिक वातावरण में सम्पन्न हुए.
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May-2019
पुस्तक समीक्षा
डॉ. हेमन्त कुमार पुस्तक नाम - गूढार्थतत्त्वालोक कृतियाँ - तत्त्वचिंतामणि, दीधीति टीका, जागदीशी टीका,
गूढार्थतत्त्वालोक टीका, यशोलता टीका एवं विनम्रा
टीका. कर्ता - मुनि श्री भक्तियशविजयजी प्रकाशक - दिव्य दर्शन ट्रस्ट, अहमदाबाद प्रकाशन वर्ष - ईस्वी सन्- २०१८, आवृत्ति- प्रथम कुल भाग - १४ कुल पृष्ठ- लगभग-४५०० मूल्य - १०,०००/- संपूर्ण सेट की कीमत भाषा - संस्कृत एवं गुजराती
भारतीय दर्शनों में नव्यन्याय का अपना एक विशिष्ट स्थान है। नव्यन्याय के आद्यपुरुष के रूप में श्री गंगेशोपाध्याय का नाम समादृत है। श्री गंगेशोपाध्याय बिहार राज्य के मधुबनी जिला के निवासी थे। उनका समय ईस्वी सन् की १३वीं शताब्दी निर्धारित है। उनके द्वारा रचित तत्त्वचिंतामणि नव्यन्याय के आद्य ग्रंथ के रूप में स्थापित है। न्याय एवं मीमांसा दर्शन के प्रतिस्पर्धा काल में नव्यन्याय का उद्गम हुआ। न्याय एवं मीमांसा दर्शन के प्रकांड विद्वान श्री प्रभाकर मिश्र के शिष्य थे। इनके द्वारा रचित ग्रंथ इतना गूढ़ था कि इसे समझने के लिए अनेक विद्वानों ने टीकाओं की रचना की है। जिसमें श्री रघुनाथ शिरोमणि भट्टाचार्य, श्री मथुरानाथ तर्कवागीश, श्री जगदीश तर्कालंकार, श्री हरिमोहन झा आदि मूर्धन्य विद्वानों ने टीकाएँ लिखी हैं। तत्त्वचिंतामणि पर रघुनाथ शिरोमणि की टीका इतनी परिष्कृत रूप में है कि उसके अनेक प्रकरण स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में विख्यात हो गए और उन प्रकरणों पर भी कई विद्वानों ने अलग-अलग टीकाओं की रचना की है। इसी शृंखला में दीधीति टीका पर जगदीश तर्कालंकार द्वारा लिखित जागदीशी टीका के व्याप्तिपंचक पर सर्वतंत्र स्वतंत्र श्री धर्मदत्त झाजी ने गूढार्थतत्त्वालोक नामक वृत्ति की रचना की है.
श्री धर्मदत्त झाजी बिहार के मधुबनी जिला के निवासी थे। इनका अपरनाम श्री बच्चा झा है। इनका समय ईस्वी सन् की १९वीं उत्तरार्ध से २०वीं पूर्वार्द्ध है। इनके द्वारा रचित टीका ग्रंथ यथानाम तथागुण वाला है। यह कृति दुनिया के कठिनतम ग्रंथों
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श्रुतसागर में स्थान रखती है। टीकाकार ने इस कृति में बहुत ही गूढ़ एवं सूक्ष्म अनुप्रेक्षा की है। अनेक उहापोह और चिन्तन-मनन द्वारा तत्त्वों को बहुत ही संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है। इस टीका का विषय इतना गूढ़ है कि सामान्य विद्वान की तो बात ही क्या बड़े-बड़े नैयायिक भी ऊपर-ऊपर ही विचरण करते नजर आते हैं। इसे समझने के लिए कई बार नैयायिकों के सेमिनार का आयोजन भी किया जाता है, फिर भी विद्वान संतुष्ट नहीं हो पाते हैं।
प्रस्तुत ग्रंथ में गूढार्थतत्त्वालोक पर संस्कृत भाषामय यशोलता टीका तथा गुजराती भाषामय विनम्रा विस्तृत विवरण की रचना पूज्य मुनि श्री भक्तियशविजयजी द्वारा की गई है. पूज्य मुनिश्रीजी ने दुनिया के इस कठिनतम ग्रंथ पर बृहद् टीका की रचना करके सामान्य जनों के लिए भी सरल बना दिया है। इस कठिनतम ग्रंथ में प्रवेश पाना विद्यार्थियों के लिए अब कठिन नहीं रहा है। गूढार्थतत्त्वालोक और यशोलता टीका के अध्ययन के पश्चात यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि श्री धर्मदत्त झाजी ने अपनी अद्वितीय बुद्धिप्रतिभा के बल पर यदि गागर में सागर को समाहित किया है, तो पूज्य मुनिश्रीजी ने अपनी विचक्षण प्रज्ञा के बल पर प्रस्तुत रचना में गागर से सागर को बाहर निकाल दिया है।
पूज्य मुनिश्रीजी ने गूढार्थतत्त्वालोक के लगभग ९०० श्लोक प्रमाण पर लगभग ९०,००० श्लोक प्रमाण वाली टीका की रचना करके नव्यन्याय के क्षेत्र में एक क्रान्ति ला दी है। जैसा कि ज्ञातव्य है पूज्य मुनिश्रीजी की आयु अभी मात्र २० वर्ष की है, दीक्षा पर्याय भी मात्र ७ वर्ष की है, फिर भी वे यशोलता जैसी विशाल टीका की रचना करके विद्वज्जगत् में देदीप्यमान नक्षत्र की भाँति स्थान ग्रहण कर चुके हैं। पूज्य मुनिश्रीजी ने अपने निवेदन में यह स्पष्ट लिखा है कि उनके गुरु पूज्य आचार्य श्री यशोविजयसूरीश्वरजी म. सा. की यह प्रबल भावना है कि उनका शिष्य उनसे भी बढ़कर विद्वान बने। और, मुनिश्रीजी ने इस कृति के माध्यम से यह सिद्ध कर दिया है। पूज्य आचार्य श्री यशोविजयसूरीश्वरजी म. सा. भी द्वात्रिंशत्-द्वात्रिंशिका, द्रव्य गुण पर्यायनो रास आदि कई ऐसे गूढ ग्रंथों पर विस्तृत टीकाओं आदि की रचना कर अपने वैदुष्य का परिचय करा चुके हैं।
संस्कृत भाषा में लिखित एवं नव्यन्याय की परिभाषायुक्त तर्क, व्याप्ति, नियम आदि से संबंधित इस ग्रंथ की गुत्थी को खोलने का प्रयास वर्षों तक अनेक विद्वानों द्वारा किया जाता रहा है, जिस ग्रंथ की एक-एक पंक्ति की व्याख्या करने में यदि असावधानीवश एकाध शब्द आगे-पीछे हो जाए तो अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती
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SHRUTSAGAR
May-2019 वैसे ग्रंथ के गूढार्थों को खोलने के लिए पूज्य मुनिश्रीजी ने मात्र दो वर्षों के अन्तराल में ही संस्कृत एवं गुजराती भाषा में विशाल टीका एवं विवरण की रचना करके न केवल विद्यार्थियों का मार्ग सरल किया है, बल्कि संपूर्ण विद्वज्जगत् को नव्यन्याय के दुरूहतम क्षेत्र में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त किया है। पूज्य मुनिश्रीजी ने अपने भगीरथ पुरुषार्थ के द्वारा नव्यन्याय के गूढ़ तर्कों की सरल-सलिलरूपी ज्ञान भागीरथी को इस धरातल पर लाने का कार्य किया है जिसमें विद्वज्जन डुबकी लगाकर अवश्य ही पावन-पवित्र बनेंगे। इस ग्रंथ की विशेषता एवं उपयोगिता के कारण संपूर्ण विद्वज्जगत् में मुक्तकंठ से प्रशंसा हो रही है। ग्रंथ के प्रारम्भ में महामहिम राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि के साथ-साथ अनेक मूर्धन्य विद्वानों के भी प्रशंसापत्रों को प्रकाशित किया गया है।
पूज्य आचार्य श्री यशोविजयसूरीश्वरजी म. सा. की छत्रछाया में रचित इस ग्रंथ का संशोधन पूज्य पंन्यास श्री रत्नबोधिविजयजी म. सा. ने किया है। इसका प्रकाशन श्री दिव्यदर्शन ट्रस्ट, अहमदाबाद द्वारा किया गया है । ग्रंथ विशालकाय होने से लगभग ४५०० पृष्ठों को कुल १४ भागों में प्रकाशित किया गया है. पुस्तक की छपाई बहुत सुंदर ढंग से की गई है। आवरण भी कृति के अनुरूप बहुत ही आकर्षक बनाया गया है। ग्रंथ में विषयानुक्रमणिका के साथ-साथ अनेक प्रकार के परिशिष्टों में अन्य कई महत्त्वपूर्ण सूचनाओं का संकलन करने से प्रकाशन बहूपयोगी हो गया है।
पूज्यश्रीजी की यह रचना एक सीमाचिह्नरूप प्रस्तुति है। संघ, विद्वद्वर्ग, तथा जिज्ञासु वर्ग इसी प्रकार के और भी उत्तम प्रकाशनों की प्रतीक्षा में है। मुनिश्री की साहित्यसर्जन यात्रा जारी रहे, ऐसी शुभेच्छा है।
__ अन्ततः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि प्रस्तुत प्रकाशन जैन साहित्य गगन में देदीप्यमान नक्षत्र की भाँति जिज्ञासुओं को प्रतिबोधित करता रहेगा। पूज्य मुनिश्रीजी के इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन। ___ अन्त में एक निवेदन है कि जिस प्रकार संस्कृत एवं गुजराती भाषा में टीकाएँ लिखी गई हैं, उसी प्रकार संस्कृत या गुजराती टीका का हिन्दी अनुवाद करवाकर प्रकाशित करवाने की कृपा करें, ताकि वैसे विद्यार्थी जिन्हें गुजराती भाषा का ज्ञान नहीं है तथा संस्कृत भाषा में भी अच्छी पैठ नहीं है, उन सबके लिए भी यह ग्रंथ बहुत सहायक एवं उपयोगी सिद्ध होगा। आशा है मेरे निवेदन पर पूज्यश्रीजी अवश्य ही ध्यान देंगे।
पूज्यश्रीजी को कोटिशः वन्दना.
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________________ श्रुतसागर मई-२०१९ समाचारसार पूज्य राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा के द्वारा नगीणा नगरी नागौर में श्री सुमतिनाथ भगवान का भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव सोल्लास सम्पन्न प. पू. राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा के पवित्र आशीर्वाद व पावन निश्रा में ऐतिहासिक नगीणा नगरी नागौर जहाँ पर सैकड़ों की संख्या में विविध गच्छीय महात्माओं का विचरण रहा, कई (100 से अधिक) कृतियों की रचनाओं की साक्षी, कई (300 से अधिक) हस्तप्रतों का जो लेखन स्थल रहा, ऐतिहासिक महापुरुषों के पदार्पण व घटनाओं की साक्षी इस पावन धरा पर पीछले 144 वर्षों से स्थित प्राचीन श्री सुमतिनाथ जिनालय एवं श्रीजिनदत्तसूरि दादावाड़ी का आमूल-चूल जीर्णोद्धार करवाकर नयनरम्य कलात्मक निर्माण के पश्चात् श्री सुमतिनाथ भगवान आदि जिनबिंबों एवं श्री जिनदत्तसूरि आदि गुरु पादुकाओं का दि. 08-05-2019, (वैशाख सुद 4) से दि. 12-05-2019 (वैशाख सुद 8) तक उल्लास पूर्वक भव्यातिभव्य पंचाह्निका प्रतिष्ठा महोत्सव मनाया गया. मंदिर के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि यति परंपरा के यति श्री रूपचंदजी गुरांसा जो जैन तत्त्वज्ञानी व मशहूर नाडी वैद्य थे, उनकी कीर्ति फैलते-फैलते राजदरबार तक पहुँची. अकस्मात राजा की रानी बिमार हुई. तब यतिजी को बुलाया गया. राजपूती परंपरानुसार राजघराने की रानीयाँ अन्य मर्दाना के आगे नहीं आती थी. तब यतिजी ने उनकी कलाई पर एक डोरी बांधकर दूसरे सिरे को अपने हाथ में लेकर उनका उपचार किया था. इससे प्रसन्न होकर उस समय के राजा ने यतिजी को आराधना-साधना व जड़ीबुट्टीयों उगाने हेतु जगह भेंट दी थी. उस जगह को यतिजी ने साधना द्वारा जागृत किया व उसमें जिनालय व दादावाडी का निर्माण करवाया. जीवन के अंत में यतिजी ने यह परिसर नागौर के खजांची परिवार को दे दिया. उन्होंने श्री मंदिरमार्गी ट्रस्ट नागौर को सुपुर्द किया. तब से यह ट्रस्ट इस धरोहर को अच्छी तरह से संभालते हुए और भी भूमि खरीद कर इसका विकास किया. जिर्णोद्धार की आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रसंत प. पू. आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा के पावन सान्निध्य में इसका जीर्णोद्धार करवाकर बड़े ही धूमधाम से प्रतिष्ठा महोत्सव मनाया. (अनुसंधान पेज नं. 30 उपर)