Book Title: Jinabhashita 2009 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2535 तीर्थंकर श्री अजितनाथ जी श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बंधा जी (टीकमगढ़) म.प्र. ज्येष्ठ, वि.सं. 2066 जून, 2009 मूल्य 45ejibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तरस का संवेदन सानंद एकान्त में आचार्य श्री विद्यासागर जी कपोल-युगल पर। क्रिया-प्रतिक्रिया की परिस्थिति प्रतिकलन किस रूप में हैपरीक्षण चलता रहता है यदि करुणा या कठोरता नयनों में झलकेगी सह-धर्मी सम कुछ गम्भीर हो आचार-विचारों पर ही रुदनता की ओर मुड़ेगा वह, इस का प्रयोग होता है अधरों की मन्द मस्कान से इसकी अभिव्यक्ति यदि कपोल चंचल स्पन्दित होते हों मृदु मुस्कान के बिना ठसका लेगा वह! सम्भव ही नहीं है। यही कारण है, कि वात्सल्य-रस के आस्वादन में प्राय: माँ दूध पिलाते समयहलकी-सी मधुरता....फिर अपने अंचल में क्षण-भंगुरता झलकती है बालक का मुख छिपा लेती है। ओस के कणों से यानी, न ही प्यास बुझती, न आस शान्त-रस का संवेदन वह बुझता बस श्वास का दीया वह! सानन्द-एकान्त में ही हो फिर तुम ही बताओ, और तब वात्सल्य में शान्त-रस का एकाकी हो संवेदी वह...! अन्तर्भाव कैसा? रंग और तरंग से रहित माँ की गोद में बालक हो सरवर के अन्तरंग से माँ उसे दूध पिला रही हो अपने रंगहीन या रंगीन अंग का बालक दूध पीता हुआ संगम होना ही संगत है ऊपर माँ की ओर निहारता अवश्य, शान्त-रस का यही संग है अधरों पर, नयनों में यही अंग! और मूकमाटी (पृष्ठ १५७-१५९) से साभार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UPHIN/2006/16750 जून 2009 सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल 462039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी (मे. आर. के. मार्बल) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428, 2852278 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक परम संरक्षक संरक्षक आजीवन वार्षिक 5,00,000 51,000रु. 5,000रु. 1100 रु. 150 रु. एक प्रति 15 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। मासिक जिनभाषित अन्तस्तत्त्व काव्य : शान्तरस का संवेदन सानंद एकान्त में : आचार्य श्री विद्यासागर जी ● मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ ● मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ ● सम्पादकीय वर्ष 8, दृष्टिवाद' में वर्णित लौकिकशास्त्र परसमय (अजैनशास्त्र) हैं • प्रवचन कालद्रव्य प्रभावक नहीं (तृतीय अंश) • स्थान बदलती पुस्तकें • आशावादिता • कविता मैं हूँ वो नहीं • जिज्ञासा समाधान समाचार : आचार्य श्री विद्यासागर जी लेख • एकमात्र जिनेन्द्रदेव ही सच्चे देव हैं : स्व० पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री • तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक विवेचन (पंचम अंश) पं० महेशकुमार जैन, व्याख्याता • जैनधर्म में सरस्वती-उपासना • निगोदिया जीव एवं आधुनिक विज्ञान : प्रो० सागरमल जैन : डॉ० कपूरचन्द्र जैन : डॉ० सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' मुनि श्री प्रणम्यसागर जी : पं. रतनलाल बैनाड़ा अङ्क 6 आ. पृ. 2 आ. पृ. 3 आ.पू. 4 लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा । पृष्ठ 2 : डॉ० अशोककुमार जैन, ग्वालियर 24 9 16 18 22 2 2 2 283 27 29 26 30 15, 17, 21, 23 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय 'दृष्टिवाद' में वर्णित लौकिकशास्त्र परसमय (अजैन शास्त्र) हैं भगवान् की दिव्यध्वनि से निःसृत द्वादशांगश्रुत के बारहवें अंग दृष्टिवाद में मन्त्रतन्त्रशास्त्र, निमित्तशास्त्र, ज्योति:शास्त्र, चिकित्साशास्त्र (आयुर्वेद), कलाशास्त्र, शिल्पशास्त्र, वास्तुशास्त्र, कामशास्त्र, नृत्यशास्त्र, गीतशास्त्र, गणितशास्त्र आदि लौकिकशास्त्रों का वर्णन है। यथा- दृष्टिवाद में पाँच अधिकार हैं : परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। इनमें चूलिका पाँच प्रकार की है- जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता इनके लक्षण इस प्रकार हैंजलगता चूलिका १. "---जलगता--- जलगमण-जलत्थंभणकारण-मंततंत-तवच्छरणाणि वण्णेदि।" (धवला / पु० १/१,१,२/ पृ० ११४)। अनुवाद- जलगता चूलिका में जल में गमन और जलस्तम्भन के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चर्यारूप अतिशय का वर्णन है। २. "तत्थ जलगया जलत्थंभण-जलगमणहेतुभूदमंत-तंत-तवचछरणाणं अग्गित्थंभण-भक्खणासणपवणादिकारणपओए च वण्णेदि।" (जयधवला / भाग १/ पृ. १२७)। अनुवाद- जलगता चूलिका जलस्तम्भन और जल में गमन के कारणभूत मंत्र, तंत्र और तपश्चरण का तथा अग्नि का स्तंभन, अग्नि का भक्षण, अग्नि पर बैठना और अग्नि पर तैरना इत्यादि क्रियाओं के कारणभूत प्रयोगों का वर्णन करती है।। ३. "तत्र जलगतायां--- जलगमनहेतवो मन्त्रौषध-तपोविशेषा निरूप्यन्ते।" (धवला / पु०९/४,१,४५/ पृ०२०९)। अनुवाद- जलगता चूलिका में जलगमन के हेतुभूत मन्त्र, औषध और तपोविशेष का निरूपण है। ४."तत्र जलस्तम्भन-जलवर्षणादिहेतुभूतमन्त्र-तन्त्रादिप्रतिपादिका--- जलगता चूलिका।" (तत्त्वार्थवृत्ति/ १/२०/ पृ. १४९ आ० सुपार्श्वमती जी)। अनुवाद- जल को रोकने, जल को वर्षाने आदि के हेतुभूत मन्त्रतन्त्रादि का जो प्रतिपादन करती है, वह जलगता चूलिका है। स्थलगता चूलिका १. "थलगया णाम--- भूमिगमण-कारणमंततंततवच्छरणाणि, वत्थुविजं, भूमिसंबंधमण्णं पि सुहासुहकारणं वण्णेदि।" (धवला / ष.खं०/पु०१/१,१,२/ पृ० ११४)। अनुवाद- स्थलगता चूलिका---पृथ्वी के भीतर गमन करने के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरणरूप आश्चर्य आदि का, वास्तुविद्या का और भूमि सम्बन्धी अन्य शुभाशुभ कारणों का वर्णन करती है। २. "स्थलगतायां---योजनसहस्त्रादिगतिहेतवो विद्या-मंत्र-तंत्रतपोविशेषा निरूप्यन्ते।" (धवला / ष. खं./ पु.९/४,१, ४५ / पृ.२१०)। अनुवाद- स्थलगता चूलिका में हजारों योजन जाने की कारणभूत विद्या, मंत्र, तंत्र और तपविशेषों का निरूपण किया जाता है। .. ३. "थलगया कुलसेलमेरु-महीहर-गिरि-वसुंधरादिसु चटुलगमणकारण-मंत-तंत-तवच्छरणाणं वण्णणं कणड़।" (जयधवला / क. पा./ भा.१ / पृ. १२७)। अनुवाद- स्थलगता नाम की चूलिका कुलाचल, मेरु, महीधर, गिरि और पृथ्वी आदि पर चपलतापूर्वक (शीघ्र) गमन के कारणभूत मंत्र, तंत्र और तपश्चरण का वर्णन करती है। 2 जून 2009 जिनभाषित - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायागता चूलिका १. "मायागया---इंदजालं वण्णेदि।" (धवला / ष.खं./ पु. १ / १, १, २ / पृ. १४४)। अनुवाद- मायागता चूलिका माया अर्थात् इन्द्रजाल (जादू) के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चण का वर्णन करती है। २. "मायागतायां--- मायाकरणहेतुविद्या-मन्त्र-तन्त्र-तपांसि निरूप्यन्ते।" (धवला / ष.खं./ पु.९/४, १,४५/पृ.२१०)। अनुवाद- मायागता चूलिका में माया (जादू) करने की हेतुभूत विद्या, मंत्र, तंत्र और तप का निरूपण किया जाता है। रूपगता चूलिका १. "रूवगया---सीह-हय हरिणादि-रूवायारेण परिणमणहेदु-मंत्र-तंत-तवच्छरणाणि, चित्त-कट्ट-लेप्पलेण-कम्मादिलक्खणं च वण्णेदि।" (धवला / ष.खं./पु.१ / १,१,२ / पृ. ११४)। अनुवाद- रूपगता चूलिका में सिंह, घोड़ा हरिणादि के रूपाकार में परिणमन के हेतु मंत्र, तंत्र और तपश्चरण का तथा चित्रकर्म, काष्ठकर्म, लेप्यकर्म और लेनकर्म आदि के लक्षण का वर्णन करती है। २. "रूपगतायां---चेतनाचेतनद्रव्याणां रूपपरावर्तनहेतुविद्या-मंत्र-तंत्रतपांसि नरेन्द्रवाद-चित्र-चित्राभासादयश्च निरूप्यन्ते।" (धवला / ष. खं./ पु.९ / ४ , १, ४५ / पृ. २१०)। अनुवाद- रूपगता चूलिका में चेतन और अचेतन द्रव्यों के रूप बदलने की कारणभूत विद्या, मंत्र, तंत्र एवं तप का तथा नरेन्द्रवाद, चित्र और चित्राभासादि का निरूपण किया जाता है। ३. "रूपगता चूलिका सिंहकरितुरग---तपश्चरणादीन् चित्रकाष्ठलेप्योत्खननादिलक्षण-धातुवादरसवाद-खन्यावादादींश्च वर्णयति।" (गो.जी./ जी.त.प्र./भाग २ / गा.३६१-३६२)। अनुवाद- रूपगता चूलिका सिंह, हाथी घोड़ा --- आदि के रूप बदलने में कारणभूत मंत्र, तंत्र तपश्चरण आदि का तथा चित्र, काष्ठ, लेप्य, उत्खनन आदि के लक्षण एवं धातुवाद, रसवाद तथा खन्यावाद (खदान सम्बन्धी शास्त्र) का वर्णन करती है। आकाशगता चूलिका आकाशगतायां---आकाशगमनहेतुभूत-विद्या-मंत्र-तंत्र-तपोविशेषा निरूप्यन्ते।" (धवला/ष.खं./पु.९/ ४,१, ४५ / पृ. २१०)। अनुवाद- आकाशगता चूलिका में आकाशगमन की कारणभूत विद्या, मंत्र, तंत्र व तपविशेष का निरूपण किया जाता है। दृष्टिवाद के पूर्वगत नामक अधिकार में चौदह पूर्वो का वर्णन है। उनमें से १०वें विद्यानुवादपूर्व, ११वें कल्याणवादपूर्व, १२वें प्राणावाय (प्राणावाद) पूर्व एवं १३वें क्रियाविशालपूर्व में निम्नलिखित लौकिक शास्त्रों का वर्णन हैविद्यानुवाद पूर्व "विज्ञाणुवादं णाम पुव्वं--- अङ्गष्ठप्रसेनादीनां अल्पविद्यानां सप्तशतानि, रोहिण्यादीनां महाविद्यानां पञ्चशतानि अन्तरिक्ष-भौमाङ्ग-स्वर-स्वप्न-लक्षण-व्यञ्जनछिन्नान्यष्टौ महानिमित्तानि च कथयति।" (धवला/ ष.खं. / पु. १/१,१,२ / पृ.१२२)। ___अनुवाद- विद्यानुवादपूर्व अंगुष्ठप्रसेना आदि सात सौ अल्पविद्याओं का, रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याओं का, और अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण व्यंजन एवं चिह्न, इन आठ महानिमित्तों का वर्णन करता जून 2009 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणवादपूर्व "कल्लाण-णामधेयं णाम पुव्वं---रविशशिनक्षत्रतारागणानां चारोपपादगतिविपर्यय-फलानि शकुनिव्याहृतमहद्बलदेव-वासुदेव-चक्रधरादीनां गर्भावतरणादि महाकल्याणानि च कथयति।" (धवला/ष.खं./ पु.१ / १,१,२ / पृ. १२२)। अनुवाद- कल्याणवादपूर्व में--- सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र और तारागणों के चारक्षेत्र (भ्रमणक्षेत्र), उपपादस्थान गति, वक्रगति तथा उनके फलों का, पक्षियों के शब्दों का और अरहंत (तीर्थंकर) बलदेव, वासुदेव तथा चक्रवर्ती आदि के गर्भावतार आदि महाकल्याण का वर्णन है। आचार्य वीरसेन ने धवला (ष.खं./ पु.१ / पृ. १२२ एवं पु. ९/ पृ. २२२) में आठ महानिमित्तों को विद्यानुवादपूर्व के अन्तर्गत बतलाया है, किन्तु जयधवला (भाग १ / पृ. १३२) में कल्याणवादपूर्व के अन्तर्गत निरूपित किया है। प्राणावायपूर्व १. "पाणावायं णाम पुव्वं--- कायचिकित्साद्यष्टाङ्गमायुर्वेदं, भूतिकर्म जाङ्गलिप्रक्रमं प्राणापानविभागं च विस्तरेण कथयति।" (धवला / ष.खं./ पु.१/१,१,२/पृ. १२३)। अनुवाद- प्राणावायपूर्व----शरीरचिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, भतिकर्म (शरीर आदि की रक्षा के लिए किये गये भस्मलेपन, सूत्रबन्धनादि कर्म), जांगुलिप्रकम (विषविद्या) और प्राणायाम के भेद-प्रभेदों का विस्तार से वर्णन करता है। “शरीरभाण्डकरक्षार्थं भस्मसूत्रादिना यत्परिवेष्टनकरणं तद् भूतिकर्म।" (प्र. सा. पू. पृ. १८१ / धवला/ ष. खं./ पु.१ / पृ.१२३ / पा.टि.)। २. "प्राणानामावादः प्ररूपणमस्मिन्निति प्राणावादं द्वादशं पूर्वं, तच्च कायचिकित्साद्यष्टाङ्गमायुर्वेद भूतिकर्म जाङ्गलिकप्रक्रमम् इला-पिङ्गला-सुषुम्नादि-बहुप्रकारप्राणापानविभागं दशप्राणानाम् उपकारकापकारकद्रव्याणि गत्याद्यनुसारेण वर्णयति।" (गो. जी. / भा. २ / गा. ३६५-३६६ / पृ. ६११)। अनुवाद- प्राणों का आवाद (कथन) जिसमें हैं, वह प्राणावाद नामक बारहवाँ पूर्व है। वह कायचिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, जननकर्म, जांगुलिप्रक्रम, गणित, इला, पिंगला, सुषुम्ना आदि अनेक प्रकार के श्वासोच्छ्वास के विभाग का तथा दस प्राणों के उपकारक-अपकारक द्रव्य का गति आदि के अनुसार वर्णन करता है। आयुर्वेद के आठ अंग- 'शालाक्यं कायचिकित्सा, भूततन्त्रं, शल्यम् अगदतन्त्रं रसायनतन्त्रं बालरक्षा, बीजबर्द्धनमिति आयुर्वेदस्य अष्टाङ्गानि।' (जयधवला / क.पा./ भाग १ / पृष्ठ १३५)। "भूत, यक्ष, राक्षस और पिशाच आदि से जन्य बाधा के निवारण का कथन करनेवाला शास्त्र भूततन्त्र कहा जाता है। इसमें सभी प्रकार के देवों आदि को शान्त करने की विधि बतलाई गई है।" (विशेषार्थ। जयधवला / क.पा./ भाग १ / पृ.१३५)। क्रियाविशालपूर्व १. "किरियाविसालं णाम पुव्वं--- लेखादिका द्वासप्ततिकलाः स्त्रैणाश्चतुःषष्टिगुणान् शिल्पानि काव्यगणदोषक्रियां छन्दोविचिति-क्रियां च कथयति।" (धवला / ष.ख./ पु. १/१,१,२ / पृ.१२३)। अनुवाद- क्रियाविशाल नाम का पूर्व--- लेखन आदि ७२ कलाओं का, स्त्रीसम्बन्धी ६४ गुणों का, शिल्पकला का, काव्य-सम्बन्धी गुणदोषविधि का और छन्दनिर्माणकला का वर्णन करता है। २. "किरियाविसालो णट्ट-गेय-लक्खण-छंदालंकार-संढिस्थिपुरिसलक्खणादीणं वण्णणं कुणइ।" (जयधवला / क.पा./ भा.१ / पृ. १३५)। अनुवाद- क्रियाविशाल नामक पूर्व में नृत्यशास्त्र, गीतशास्त्र, लक्षणशास्त्र, छन्दशास्त्र, अलंकारशास्त्र और नपुंसक, स्त्री तथा पुरुष के लक्षण आदि का वर्णन है। (संगीतशास्त्र, शिल्पादिविज्ञान-गो.जी./जी.त.प्र./ 4 जून 2009 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३६६ / पू. ६११) । उपर्युक्त सभी शास्त्र परसमय (अजैन शास्त्र ) हैं यहाँ प्रश्न उठता है कि उपर्युक्त शास्त्र जिनेन्द्रदेव के मुख से निकले हैं, तो क्या ये जैनों के लिए मान्य हैं, क्या ये जैनसिद्धान्त (षड्द्रव्यों, सात तत्त्वों और कर्मसिद्धान्त के जिनोपदिष्ट स्वरूप) पर आधारित हैं? क्या उनमें वर्णित विषय जैनों के लिए श्रद्धा के योग्य है, क्या उनमें वर्णित मंत्र-तंत्र के प्रयोग तथा उनके प्रभाव से जलस्तंभन भूमिप्रवेश, आकाशगमन, इन्द्रजाल (जादू), मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि के प्रयोग जैनधर्मसम्मत और मनुष्य के लिए हितकर हैं? तीर्थंकर केवल तीर्थ (मोक्षमार्ग) का उपदेश देते हैं, अतः उनके द्वारा प्रणीत शास्त्र केवल वही होते हैं, जिनके अध्ययन, चिन्तन, मनन और तदुक्त आचरण से कर्मों का क्षय होता है। वे कहते भी हैं कि ज्ञानियों को केवल उसी शास्त्र के विषय का ध्यान करना चाहिए, उसी के अनुसार आचरण करना चाहिए और उसी का चिन्तन करना चाहिए, जिससे जीव ओर कर्मों के सम्बन्ध का विच्छेद होता है तद्धेयं तदनुष्ठेयं तद्विचिन्त्यं मनीषिभिः । यज्जीवकर्मसम्बन्धविश्लेषायैव जायते ॥ ४० / ११ / ज्ञानार्णव । । तीर्थंकरों को मन्त्रतन्त्र, ज्योतिष, अष्टांगनिमित्त, आयुर्वेद, संगीत, नृत्य, काम आदि विषयक लौकिक शास्त्रों के प्रणयन की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि प्रथम तो वे मोक्ष के हेतु नहीं हैं, दूसरे वे लोक में लौकिक जनों के द्वारा ही प्रणीत होते हैं और सदा प्रचलित रहते हैं, जैसा कि श्री ब्रह्मदेवसूरि ने कहा 庚 "वीतरागसर्वज्ञप्रणीतागमार्थाद्वहिर्भूतैः कुदृष्टिभिर्यत्प्रणीतं धातुवाद- खन्यवाद - हरमेखल-क्षुद्रविद्याव्यन्तरविकुर्वाणादिकमज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादकं दृष्ट्वा --- ।” (द्रव्यसंग्रहटीका / गा. ४१ / पृ. १५६ ) । यहाँ 'दृष्टिवाद' की रूपगता चूलिका में वर्णित धातुवाद, रसवाद, खन्यवाद आदि सम्बन्धी मंत्रतंत्र को मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्रणीत जिनागमबाह्य शास्त्र कहा गया है। इसलिए प्रश्न उठता है कि चूंकि उपर्युक्त मन्त्रतन्त्रादि शास्त्र भगवान् की दिव्यध्वनि से उद्भूत हुए हैं और द्वादशांगश्रुत में उन्हें स्थान भी मिला है, तो क्या उनका अध्ययन और तदुक्त आचरण जीव और कर्मों के विश्लेष का कारण है? यदि नहीं है, तो भगवान् ने उनका प्ररूपण क्यों किया और द्वादशांग श्रुत में उन्हें स्थान क्यों मिला? इस प्रश्न का समाधान आचार्य वीरसेन ने वक्तव्यता के तीन भेद बतलाकर किया है। वक्तव्यता के तीन भेद आचार्य वीरसेन ने धवला (पु. १ / १, १, १ / पृ. ८३) एवं जयधवला टीका (भाग १ / गा. १ / पृ. ८८८९) में कहा है कि " वक्तव्यता (कथन) तीन प्रकार की होती है- स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता और तदुभयवक्तव्यता जिस शास्त्र में स्वसमय (स्वमत) का ही वर्णन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है अथवा विशेषरूप से ज्ञान कराया जाता है, उसे स्वसमयवक्तव्य कहते हैं और उसके भाव को स्वसमयवक्तव्यता । परसमय (परमत ) मिथ्यात्व को कहते हैं- "परमसयो मिच्छत्तं।" (धवला / प खं. / पु. १ / पृ. ८३) । उसका जिस प्राभृत या अनुयोग में वर्णन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है या विशेषज्ञान कराया जाता है, वह परसमयवक्तव्य कहलाता है और उसका भाव परसमयवक्तव्यता । जहाँ स्वसमय और परसमय दोनों का निरूपण करके परसमय को दोषयुक्त दिखलाया जाता है और स्वसमय की स्थापना की जाती है, उसे तदुभयवक्तव्य कहते हैं और उसके भाव को तदुभयवक्तव्यता" (धवला / ष. ख. / पु. १ / १, १, १ / पृ. ८३ ) । वीरसेन स्वामी कसायाहुड (भाग १ ) की जयधवला टीका में श्रुत के ग्यारह अंगों को तो स्वसमय घोषित करते हैं- "जेणेवं तेणेक्कारसण्हमंगाणं वत्तव्वं ससमओ" (ज.ध. /क.पा./ भा. १ / पृ. १२० ), किन्तु बारहवें अंग दृष्टिवाद को 'तदुभय' अर्थात् स्वसमय और परसमय दोनों बतलाते हैं- "तदो दिट्टिवादस्स जून 2009 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत्तव्वं तदुभओ।" (ज. ध. / क.पा./ १ / पृ. १३६)। इसका स्पष्टीकरण करते हुए अनुवादक विद्वानों ने 'विशेषार्थ' में कहा है- "स्वसमय, परसमय और तदुभय के भेद से वक्तव्यता तीन प्रकार की है, इसका पहले कथन कर ही आये हैं। जिसमें केवल जैन मान्यताओं का वर्णन किया गया हो, उसका वक्तव्य स्वसमय (जैनमत) है। जिसमें जैनबाह्य मान्यताओं का कथन किया गया हो, उसका वक्तव्य परसमय (अजैनमत) है। और जिसमें परसमय का विचार करते हुए स्वसमय की स्थापना की गई हो, उसका वक्तव्य, तदुभय है। इस नियम के अनुसार आचार आदि ग्यारह अंग और सामायिक आदि चौदह अंग स्वसमय वक्तव्यरूप ही हैं, क्योंकि इनमें परसमय का विचार न करते हुए केवल स्वसमय की ही प्ररूपण की गयी है। तथा दृष्टिवाद अंग तदुभयरूप है, क्योंकि एक तो इसमें परसमय का विचार करते हुए स्वसमय की स्थापना की गयी है, दूसरे आयुर्वेद, गणित, कामशास्त्र आदि अन्य विषयों का भी कथन किया गया है।" (जयधवलासहित कसायपाहुड / पृ. १३६)। इसका अभिप्राय यह है कि दृष्टिवाद में जो मोक्ष में अनुपयोगी मन्त्रतन्त्रशास्त्र, निमित्तशास्त्र, ज्योतिःशास्त्र चिकित्साशास्त्र. (आयर्वेद). कामशास्त्र, नत्यशास्त्र, गीतशास्त्र, कलाशास्त्र, शिल्पशास्त्र, वास्तुशास्त्र, गणितशास्त्र आदि वर्णित हैं, वे परसमय हैं अर्थात् अजैनशास्त्र या मिथ्याशास्त्र हैं। स्वसमयवक्तव्यता को दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए श्वेताम्बर आचार्य श्री हरिभद्रसूरि लिखते हैं "तत्र यस्यां (वक्तव्यतायां)--- स्वसमयः स्वसिद्धान्तः आख्यायते यथा पञ्च आस्तिकायाः, तद्यथाधर्मास्तिकाय इत्यादि, तथा प्रज्ञाप्यते यथा गतिलक्षणो धर्मास्तिकाय इत्यादि, तथा प्ररूप्यते यथा स एवासंख्यातप्रदेशात्मकादिस्वरूपः, तथा दर्श्यते दृष्टान्तद्वारेण यथा मत्स्यानां गत्युपष्टम्भकं जलमित्यादि - -- तथैवैषोऽपि जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भक इत्यादि--- सेयं स्वसमयवक्तव्यता।" (अनुयोगद्वार/हरिभद्रटीका । अभिधानराजेन्द्रकोश / भाग ६/प्र. ८३२ / जयधवलासहित कसायपाहुड / भा.१ / पृ. ८८ / पा.टि.)। अनवाद- जिस वक्तव्यता में स्वसमय अर्थात् स्वसिद्धान्त का कथन किया जाता है, जैसे पाँच अस्तिकाय हैं इत्यादि, इस प्रकार प्रज्ञापन किया जाता है, जैसे धर्मास्तिकाय का लक्षण गतिहेतुत्व है, इस प्रकार प्ररूपण किया जाता है, जैसे वह असंख्यातप्रदेशी आदि है, तथा दृष्टान्त द्वारा इस प्रकार समझाया जाता है कि जैसे जल मछलियों के चलने में सहायक होता है, वैसे ही धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों की गति में सहायक है---ऐसी वक्तव्यता स्वसमयवक्तव्यता है। यद्यपि मंत्रतंत्र, ज्योतिष, अष्टांगनिमित्त, आयुर्वेद, वास्तुविद्या आदि शास्त्रों में उक्त प्रकार से न तो स्वसमय (जैनसिद्धान्त : षड्द्रव्य, सात तत्त्वादि) का वर्णन है, न परसमय (अजैन मत के सिद्धान्तों) का, इसलिए उक्त शास्त्रों को न तो स्वसमय कहा जा सकता है, न परसमय। तथापि सिद्धान्त) का कथन न होने की अपेक्षा उन्हें परसमय कहा गया है। उक्त शास्त्रों का किसी मतविशेष के अनुयायियों से सम्बन्ध नहीं है, वे सभी मतावलम्बियों में समान हैं। उनकी उत्पत्ति वि जनों के द्वारा हुई है और सभी लोगों के लौकिक जीवन में वे कथंचित् उपयोगी होते हैं। अतः जैनअजैन सभी सम्प्रदायों में उनका यथायोग्य उपयोग किया जाता है तथा वे गृहस्थों के लिए कथंचित् उपादेय, किन्तु मुमुक्षुओं के लिए सर्वथा हेय होते हैं, यही बतलाने के लिए दृष्टिवाद में उनका वर्णन है तथा इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए भगवान् ऋषभदेव ने गृहस्थावस्था में अपने गृहस्थ पुत्रों को उनकी शिक्षा दी थी। दुःश्रुति, बाह्यशास्त्र, लौकिकशास्त्र उक्त तथ्य को दृष्टि में रखते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी ने जयोदय महाकाव्य में गृहस्थों के लिए उनका अध्ययन कथंचित् उपयोगी बतलाकर कहा है कि ये शास्त्र ऋषियों की भाषा में दुःश्रति कहे गये हैं- "आर्षवाच्यपि दुःश्रुतीरिमा:---।" (जयोदय महाकाव्य / पूर्वार्ध । सर्ग २/श्लोक ६३)। आचार्य ज्ञानसागर जी ने आगे कहा है 6 जून 2009 जिनभाषित - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “निमित्तशास्त्र आदि भी भगवान् की वाणी से उद्भूत हुए है, तो भी वे प्रथमानुयोग आदि शास्त्रों के समान आदरणीय नहीं है। देखो, मस्तक भी शरीर का अंग हैं और पैर भी, फिर भी पैर मस्तक के समान श्रेष्ठ अंग नहीं माने जाते।" नानुयोगसमयेष्विवादरः स्यान्निमित्तकमुखेषु भो नर! वाक्तया समुदितेषु चाहतां मूर्धवत् क्व पादयोः सदङ्गता॥ (जयोदय / पूर्वार्ध । २/६४) आचार्य ज्ञानसागर जी आगे कहते हैं- "समझदार मनुष्य को याद रखना चाहिए कि भगवान् अरहंत की वाणी में भी जानने योग्य, प्राप्त करने योग्य और छोड़ने योग्य, ऐसा तीन तरह का कथन आता है। माताएँ अपने छोटे बच्चों को डराने के लिए 'वुचि आयी' आदि शब्द कहा करती हैं, तो माता के मुँह से ये शब्द निकले है, ऐसा मानकर क्या वे संग्रह करने योग्य होते है? (वे तो सुनकर भूल जाने योग्य होते हैं।)" ज्ञाप्यमाप्यमथ हाप्यमप्यदः श्रीगिरोऽपि समियाद्वशंवदः। मातुरुच्चरणमात्रतो वुचीत्यादि सङ्कलितुमेति किन्नुचित्॥ (वही / २ / ६५)। इस दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाता है कि दृष्टिवाद अंग में वर्णित उपर्युक्त परसमय (अजैन शास्त्र) जिनप्रणीत नहीं है, अपितु परप्रणीत अर्थात् लोकप्रणीत ही हैं। जिनेन्द्रदेव ने उनका कथन मात्र किया है और इसका प्रयोजन है, मुमुक्षु के लिए उन्हें त्याज्य बतलाना। अपराजितसूरि ने भी उपर्युक्त शास्त्रों को बाह्यशास्त्र कहा है "स्त्रीपुरुषलक्षणं निमित्तं,ज्योतिर्ज्ञानं, छन्दः,अर्थशास्त्रं, वैद्यं,लौकिक-वैदिकसमयाश्च बाह्यशास्त्राणि।" (भगवती-आराधना / विजयोदया टीका / गाथा ६१३ / पृ. ४२१)। कार्तिकेयानप्रेक्षा के टीकाकार शभचन्द्र ने भी उक्त लौकिक शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन-चिन्तन को निष्फल बतलाते हुए परसमय अर्थात् बाह्यशास्त्र घोषित किया है। यथा "तस्य पुंसः स्वाध्यायः शास्वाध्ययनं निष्फलं विद्धि---यः पुमान् युद्ध-कामशास्त्रं पठति पाठयति चिन्तयति च। युद्धशास्त्र--- गजाश्वपरीक्षा-नरनारीलक्षणसामुद्रिक-ज्योतिष्क-वैद्यक-मन्त्रतन्त्रौषधि-यन्त्रादिशास्त्रं कामशास्त्रं वा रसायन-कुक्कोश-स्त्री सेवादिषु श्रुतं कामक्रीडासनशास्त्रम् अध्येति परान् अध्यापयति अध्यासयति। कीदक सन्? रागद्वेषाभ्यां परिणत:--- लोकवञ्चनार्थं प्रतारणनिमित्तम्।" (का.अ./ टीका / गा.४६४)। आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार आचार्य जयसेन ने भी मन्त्रतन्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि को लौकिकशास्त्र बतलाते हए उनका अध्ययन, अध्यापन और प्रयोग करनेवाले निर्ग्रन्थों को लौकिक मुनि कहा है "वस्त्रादिपरिग्रहरहितत्वेन निर्ग्रन्थोऽपि--- वर्तते यदि--- ऐहिकैः कर्मभिः, भेदाभेदरत्नत्रयभावनाशकैः ख्यातिपूजालाभनिमित्तैोतिष-मन्त्रवादि-वैदिकादिभिरैहिकजीवनोपायकर्मभिः स लौकिको व्यावहारिक इति भणितः।" (तात्पर्यवृत्ति / प्रवचनसार / ३/६९)। ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र ने विद्यानुवादपूर्व के मन्त्रों को कुमार्ग और कुध्यान का हेतु बतलाया है और कहा है कि बहुत से मुनियों ने केवल कुतूहल के लिए अर्थात् चमत्कार दिखाने की इच्छा से उन्हें ग्रन्थों में प्रकट किया है - बहूनि कर्माणि मुनिप्रवीरैर्विद्यानुवादात्प्रकटीकृतानि। असंख्यभेदानि कुतूहलार्थं कुमार्गकुध्यानगतानि सन्ति॥ ४० / ४१ / ज्ञानार्णव। बृहद्रव्यसंग्रह-टीकाकार ब्रह्मदेवसूरि ने भी ज्योतिष, मन्त्रतन्त्र आदि के प्रयोग का उद्देश्य प्रयोजनविशेष से अज्ञानियों के चित्त में चमत्कार उत्पन्न करना बतलाया है- "अज्ञानिजन-चित्तचमत्कारोत्पादकं - जून 2009 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ज्योतिष्कमन्त्रवादादिकं दृष्ट्वा --- ।" (द्र.सं./ टीका / गाथा ४१ ) । कुछ आधुनिक जैन वास्तुशास्त्री तर्क देते हैं कि वास्तुविद्या को वीरसेन स्वामी ने धवलाटीका में द्वादशांगश्रुत के अन्तर्गत बतलाया है और आदिपुराण ( पर्व १६ / श्लोक १२२ ) में आचार्य जिनसेन ने कहा है कि भगवान् ऋषभदेव ने गृहस्थावस्था में अपने पुत्र अनन्तविजय को विश्वकर्मा के मत ( तक्षककर्म - बढ़ईकर्म) और वास्तुविद्या (वास्तुकारकर्म) की शिक्षा दी थी, अतः वास्तुविद्या स्वसमय (जैनशास्त्र) है। = यह तर्क तर्कसंगत नहीं है। पूर्व में सोदाहरण सिद्ध किया गया है कि जिस शास्त्र में षड्द्रव्य, सात तत्त्व आदि जैनसिद्धन्तों का वर्णन होता है, उसे ही स्वसमय (जैनशास्त्र) कहा गया है। वास्तुशास्त्र में इन जैनसिद्धान्तों का वर्णन नहीं है, अतः वह स्वसमय नहीं, अपितु परसमय (अजैनशास्त्र) है। यह तथ्य भी सामने लाया गया है कि द्वादशांगश्रुत के दृष्टिवाद अंग में केवल स्वसमय का कथन नहीं है, परसमय का भी कथन है और उसमें वर्णित मन्त्रतन्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद, वास्तुविद्या, नृत्य, गीत, चित्रकला, कामशास्त्र आदि परसमय हैं, जिन्हें जैनाचार्यों ने दुःश्रुति, बाह्यशास्त्र एवं लौकिक शास्त्र नामों से अभिहित किया है। अतः वास्तुविद्या को स्वसमय ( जैनशास्त्र) कहना उक्त आगमप्रमाणों के विरुद्ध है । 1 दृष्टिवाद में इन्द्रजाल (जादू), मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि सम्बन्धी बहुरूपिणी, कात्यायनी आदि विद्याओं तथा नृत्यशास्त्र, गीतशास्त्र, कामशास्त्र आदि का भी कथन है तथा भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्र भरत को नृत्यशास्त्र, वृषभसेन को गान्धर्वशास्त्र (संगीतविद्या) और बाहुबली को धनुर्वेद तथा कामशास्त्र की शिक्षा दी थी। (आदिपुराण / पर्व १६ / श्लोक ११९ - १२४) । अतः उपर्युक्त तर्क से इन शास्त्रों को भी स्वसमय (जैनशास्त्र) मानना होगा। यदि इन्हें स्वसमय नहीं माना जा सकता, तो वास्तुशास्त्र को भी स्वसमय नहीं माना जा सकता। परसमय होते हुए भी जैन गृहस्थों के लिए उनका अध्ययन आदि सर्वथा हेय नहीं है, स्मरणीय सिर्फ यह है कि वे सब बाह्यशास्त्र या लौकिक शास्त्र हैं। चूँकि वास्तुविद्या स्वसमय (जैनशास्त्र) नहीं है, अतः भगवान् ऋषभदेव द्वारा पढ़ाई गयी वास्तुविद्या में जैनतत्त्वविज्ञान एवं जैनकर्मसिद्धान्त की दृष्टि से कोई भी प्ररूपण होना असंभव है। धवला और आदिपुराण में भी वास्तुविद्या का केवल नामोल्लेख है, उसके किसी विशिष्ट स्वरूप का प्रतिपादन नहीं किया गया है, अतः स्पष्ट है कि वास्तुविद्या में केवल विविध भवनों की वैज्ञानिक एवं आकर्षक निर्माण शैलियों की दृष्टि से ही सारा वर्णन रहा होगा। आधुनिक टेक्निकल संस्थानों में पढ़ाये जानेवाले आर्किटेक्चर का जो स्वरूप है, वैसा ही स्वरूप धवला और आदिपुराण में उल्लिखित वास्तुविद्या का भी समझना चाहिए। जैसे आधुनिक आर्किटेक्चर (architecture) परसमय ( लौकिकशास्त्र) होते हुए भी, सभी गृहस्थों के लिए उपयोगी है, वैसे ही उक्त ग्रन्थों में वर्णित वास्तुविद्या परसमय होते हुए भी, जैन-अजैन सभी के लिए उपयोगी रही होगी। जैसे आधुनिक आर्किटेक्चर (वास्तुकला) में मनुष्यों को अदृश्यरूप से हानि-लाभ, सुख-दुःख पहुँचानेवाली या अपमृत्यु- अनपमृत्यु का कारण बननेवाली कोई दैवी या ईश्वरीय शक्ति अन्तर्निहित नहीं है, वैसे ही प्राचीन वस्तुविद्या में भी उसका अन्तर्निहित होना असंभव है। जून 2009 जिनभाषित बुलबुले-नादाँ जरा फूल की सूरत 1 रंगे-चमन से बनाये सैकड़ों 2 नतीजा कुछ भी हो लेकिन सबेरे ही से होशियार | सैयाद हैं। हम अपना काम करते हैं। दूरन्देश फ़िक्रे-शाम करते हैं । - यगाना चंगेजी रतनचन्द्र जैन Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अंश कालद्रव्य प्रभावक नहीं। ___ आचार्य श्री विद्यासागर जी इस प्रवचन के प्रथम एवं द्वितीय अंश आप 'जिनभाषित' के गत अकों में पढ़ चुके हैं। यहाँ ततीय अंश प्रस्तुत है। व्यवहारकाल होकर वे सोते नहीं। छह कारकों में काल को किस रूप में स्वीकारा चौबीस घंटा वहाँ पर यह काम चलता रहता है। गया है? उदाहरण के तौर पर काल का विश्लेषण करें, वहाँ पर चौबीस घंटे कैसे चलते हैं? यहाँ के चौबीस तो जैसे कुम्भकार के चाक के नीचे एक कील है, वैसे | घंटे वहाँ पर चलते हैं। ये जितने भी काल, व्यवहारकाल ही कील की भाँति काल उपस्थित है। वहाँ घूमने का हैं, वे जीव और पुद्गल के परिणमन पर आधारित हैं। काम काल का नहीं है। जैसे कहा है कुन्दकुन्द देव से लेकर अकलंकदेव तक न्यायविद जितने "सूरज चाँद छिपे निकले ऋतु फिर-फिर कर भी आचार्य हैं, सबने इसी रूप से स्वीकार किया है। आवे" काल नहीं आता, ऋतु आती है। ऋतु का नाम | व्यवहार काल की उत्पत्ति हम लोगों के द्वारा नहीं काल नहीं है, काल के ऊपर आरोप आता है। इसी | होती, किन्तु हमें केवल उसका ज्ञान होता है। घड़ी का प्रकार आपने जैसे कहा कि मध्याह्न-काल आप किसको | काँटा वहाँ से खिसका, एक घंटा हो गया। किन्तु वह कहते हैं? परिणमन इस काँटे में हुआ, न कि काल में, काल तो एक बहुत अच्छा बिन्दु पकड़ा आपने। छह अनन्त काल से विद्यमान है। काल आता है, यह कथन आवश्यकों में सामायिक का काल निर्धारित किया गया | ठीक नहीं, क्योंकि उसके पास पैर नहीं हैं। परिणमन है। काल निर्धारित नहीं किया गया है। चूँकि छह आवश्यक करता है। स्थान से स्थानान्तर नहीं जाता, इसका नाम निर्धारित किये गये हैं। अतः काल के माध्यम से ये | काल है।। ज्ञात हो जाते हैं। इनके माध्यम से वह काल जो निश्चय | इसलिए यह मान लो कि अपहरण के माध्यम काल से उत्पन्न हो रहा है, समयादिक उसका ज्ञापन से यहाँ पर 'सिद्ध' हो सकता है। यहाँ के कालाणु काम होता है। इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं कहा है। | करेंगे, अन्यथा वहाँ के मुनिराजों को कालाणुओं को साथ - बारह बजे हैं। ये बारह बजे क्या वस्तु है? काल | में लेकर आना पड़ेगा। क्योंकि वहाँ पर (विदेह क्षेत्र हमेशा पकड़ में नहीं आनेवाली चीज है। बारह बज आदि में) काल का परिवर्तन नहीं होता है। काल का गये, इसका अर्थ घंटी लग गई। यह पुद्गल की परिणति | वहाँ पर कुछ प्रभाव है ही नहीं, हमेशा हमेशा मुक्ति है और हमने बुद्धि को पकड़ रखा है। सुबह उठे, वन्दना | है। की, फिर इसके उपरांत स्वाध्याय किया, फिर इसके अपहरण के द्वारा यहाँ पर भी पञ्चम काल में उपरांत आहार-चर्या की उतना काल छोड़ा, काल छोड़ा | मुक्ति होती है और आज भी वहाँ पर विजया की का अर्थ दूसरा कोई आवश्यक उसमें नियुक्त न हो जाय, तलहटी में चतुर्थ काल चल रहा है। वहाँ पर जाकर यह काल के ऊपर सिर्फ आरोप है, इसके अलावा यदि | अभी भी मुक्ति हो सकती है। उन्होंने कहा, विजयार्ध काल को पकड़ना चाहते हो तो पकड़ो। 'तिलोयपण्णत्ति' | के कोने में ऐसी व्यवस्था है। यदि आपको चाहिए, तो आदि ग्रन्थों में जो उल्लेख मिलता है कि स्वर्गों में काल | सबसे अच्छा है। क्योंकि आप लोग ज्योतिर्लोक जाने पकड़ में नहीं आता, चूँकि वहाँ पर रात भी नहीं, दिन | की तैयारी कर रहे हैं। तो सबसे अच्छा है कि विजया भी नहीं। दिन ही है वहाँ पर, दिन है, तो वहाँ पर | को पकड़ो। वहाँ पर मुक्त हो सकते हैं, लेकिन ध्यान काल का व्यवहार कैसा होता होगा, उनको सोना (शयन) | रखना, आप लोग मुक्त नहीं हो सकते हैं। है ही नहीं। उनको (देवों को) निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, यहाँ पर न योग्य संगति मिलती है और न ही स्त्यानगृद्धि आदि महानिद्राओं का उदय है ही नहीं, उदीरणा | आपके पास तत्सम्बन्धी सामग्री मिलती है, इसलिए मुक्ति भी नहीं होती। केवल निद्रा का उदय है। उससे प्रभावित | नहीं मिल सकती। काल के ऊपर आप चिन्तन कीजिये - जून 2009 जिनभाषित , Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत अच्छा आपका प्रश्न है, हमारे आवश्यकों में काल । कहना चाहता हूँ कि काल चेतना को उन्होंने स्वीकार नहीं आता। उम्र को गिनने के लिए तो स्थिति-बंध हुआ | नहीं किया। यदि काल चेतना स्वीकार की होती तो बहुत हुआ और उस स्थिति को बतानेवाला काल है। क्योंकि | अद्भुत बात हो जाती। लेकिन वह है नहीं, इसलिए परिणमन हमारे अन्दर हो रहा है। 'ज्या वयोहानौ' हमारे | उसको उन्होंने स्वीकार तक नहीं किया। काल के विषय कारण उसको बोलना चाहिए। में चिन्तन हो रहा है, यह निश्चित बात है। चिन्तन भी आयु-कर्म के एक-एक निषेक प्रतिसमय उसकी | बिना काल के नहीं हो सकता। काल के द्वारा हो रहा क्वान्टिटी और क्वालिटी के साथ निर्जरित हो रहे हैं। है, ऐसा नहीं 'कारीषोऽग्नि' जैसे उदासीन रूप से उस क्षय को प्राप्त हो रहे हैं। उसके माध्यम से वह नापा | कार्य में सहयोग करती है। उसी प्रकार देखो, उपाध्याय जा रहा है। हाँ इतने काल के बाद वे कर्म अंश रहेंगे | परमेष्ठी का काम कारीषोऽग्निः' से हुआ नहीं कह सकते, कैसे? इसलिए काल के ऊपर आरोप आ रहा है। वह | तो काल से हुआ कैसे कह सकते हैं? 'विद्या कालेन तो शुद्ध वर्गणा जैसा है। | पच्यते' इसका क्या अर्थ है? सुनो महाराज! बहुत संक्षेप शुक्ल लेश्यावाला पर्दा है। उसी प्रकार की प्रवृत्ति में हम कहना चाहते हैं। आपने जो कुछ भी खा लिया, काल द्रव्य की है। किन्तु उस पर्दे के ऊपर फिल्म की| उसी समय पचता नहीं। कोई भी परिवर्तन होता नहीं। छाया पड़ रही है। इसलिए आप उसी को सब कुछ औदारिक शरीर को धारण करनेवाले की अपेक्षा से कहा मान रहे हैं। खेल समाप्त हुआ, फिर कोई नहीं बैठता।| है। उसी प्रकार ज्यों ही आपने ग्रहण कर लिया, त्यों उस कार्य का भ्रम है आप लोगों को, वह कार्य काल ही वह शक्ति का रूप धारण कर लेता है, ऐसा भी के द्वारा संचालित है, ऐसा नहीं। अन्य द्रव्य जो (मैटर) | नहीं। क्षयोपशम दशा में क्रम से वह प्रौढ़ता आती चली पुद्गल और जीव हैं, ये अशुद्ध हैं। इनकी अशुद्धियों | जाती है, एक समय में नहीं आ सकती। काल का अर्थ का प्रभाव सब लोगों पर पड़ रहा है। वे ही कारण | वहाँ पर कुछ परिणमन हो और आपकी योग्यता में, प्रत्यय बन जाते हैं और मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि-आदि | क्षयोपशम में परिणमन हो, आदि-आदि अपेक्षित है। यह का जो विभाजन हो रहा है, यह सब कर्मों की देन | उपादान की योग्यता के लिए काल पर आरोप दिया है, काल की देन नहीं। इन सबमें जो सामान्य रूप से | है। एक छोटी सी बात कहकर समाप्त कर देता हूँ। परिणमन का कारण है, वह काल है। जैसे खिचडी आधा घंटे में पकती है. सन लिया 'वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' न, आधा घंटे में खिचड़ी पकती है, तो क्या करना चाहिए? (त.सू.५/२२) यह कहा, लेकिन यह ध्यान रखना, प्रत्येक | और कुछ नहीं, दाल मिला दो, चावल मिला दो, पानी द्रव्य अपनी पर्यायों को पैदा करने की क्षमता, उपादान मिला दो, घोल रख दो, और अग्नि पर रख दो, और शक्ति, योग्यता स्वयं रखता है। उसके उद्घाटन में वह | बंद कर दो, आधा घंटे में देख लेना पक जायेगी। एक कालद्रव्य निमित्त होने से वर्तयिता इस प्रकार कहा जाता | व्यक्ति ने सुन लिया और रख दी खिचड़ी पकने, दूसरे है। वस्तुतः अपने आप में काल द्रव्य वर्तयिता नहीं हो | व्यक्ति ने इसका आशय समझ लिया। ठीक है, उसने सकता। स्टोव या सिगड़ी के ऊपर ले जाकर रख दी। और आधा ___इसका स्पष्टीकरण सभी ग्रन्थों में दिया गया है। घंटे में आ जाना 'विद्या कालेन पच्यते' इसी तरह 'खिचड़ी काल को उदासीन कारण कहा जाता है। कोई भी कार्य | कालेन पच्यते' पक गई। चाहे सांसारिक हो या मुक्तिमार्ग संबंधी हो, वे सारे- अब वह देखता है अरे! क्यों नहीं पकी? गलत के-सारे कर्मों पर ही आधारित हैं। है 'विद्या कालेन पच्यते' ऐसा नहीं। 'काल' आधा घंटा चेतनात्रय में कालचेतना नहीं। जो रखा, उसे सिगड़ी के ऊपर रखना चाहिए। तब खिचड़ी चौथी बात यह है कि अपने यहाँ तीन चेतना | पकती है। 'कालेन पच्यते', काल के द्वारा ही कार्य हो बताई गई हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने कर्म-चेतना, | रहा है। इसलिए न मूंग डालो, न चावल डालो, न पानी कर्मफल-चेतना और ज्ञान चेतना का वर्णन पञ्चास्तिकाय | डालो और रख दो 'पच्यते खिचड़ी'। नहीं पकी, इसलिए में गाथा ३८-३९ में किया है। मैं इस समय इतना ही | काल को हौआ न बनाओ। 10 जून 2009 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका- ज्योतिष शास्त्र आदि का जितना कार्य है,। शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण करने के योग्य ग्रह, नक्षत्र आदि इस मुहूर्त में होना चाहिए। इस मुहूर्त | होता है। इससे अधिक काल शेष रहने पर नहीं होता, में गमन करना चाहिए, काल को देखकर ही सारा कार्य | यह एक काल लब्धि है। किया जाता है, यदि इनको न मानें तो ज्योतिष की क्या दूसरी काल लब्धि का सम्बन्ध कर्मस्थिति से है। उपयोगिता रहेगी? उत्कृष्ट स्थितिवाले कर्मों के शेष रहने पर या जघन्य समाधान- सुनो, हमने काल का निषेध तो नहीं स्थितिवाले कर्मों के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व का किया। हमने पहले बताया था कि चाक की कील की| लाभ नहीं होता। तो फिर किस अवस्था में होता है? भाँति काल है। जब बँधने वाले कर्मों की स्थिति अन्तः कोडाकोड़ी कील को काल की उपमा दी गई है या चाक | सागरोपम पड़ती है और विशुद्ध परिणामों के वश से को या कुंभकार को या कुंभकार के हाथ को, किसको सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागरोपम काल की उपमा दी है बताओ, सुनो, समयसार तो सभी | कम अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्राप्त होती है, तब यह लोग पढ़ते हैं। लेकिन कारण कार्य की व्यवस्था में उनका | जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है। बिल्कुल ढीला काम है। यह काल की देन नहीं है, तीसरी काललब्धि भव की अपेक्षा है। यह ध्यान रखना, हमारी बुद्धि की देन है। ये तीन प्रकार की काल लब्धियाँ हैं। उनमें यह काललब्धि काल को नापने की अपेक्षा से आरोपवाली काललब्धि धवला जी का वाचन हो रहा था। प्रश्न हुआ | अलग है और कर्मस्थिति को लेकर के जो परिवर्तन कि उपशम सम्यग्दर्शन कब प्राप्त होता है? अनादि | होते हैं भाव इत्यादि के, वह अलग है और भवस्थिति मिथ्यादृष्टि को कब होता है? जिस समय अर्धपुद्गल- को लेकर के काललब्धि अलग है। ऐसी तीन काल परावर्तन-काल अवशिष्ट रहता है, तब वह उपशम | लब्धियाँ बताईं। सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। ज्यादा अवशिष्ट हो तो नहीं। | सम्यग्दर्शन कैसे होता है? तो उत्तर हेतु 'अर्धयह एक नाप-तौल काल के माध्यम से कह दिया। किन्तु | पुद्गलपरावर्तन काल शेष रहने पर होता है', यह रटा काललब्धि कितने प्रकार की होती है? आप लोगों ने | हुआ है। अर्धपुद्गलपरावर्तन काल क्या वस्तु है, यह कभी सुना, पंडित जी! आप बताओ, काललब्धि कितने निर्णय बहुत महत्त्वपूर्ण है। स्वाध्याय तो हम करते हैं। प्रकार की होती है? हमें पता नहीं, हर व्यक्ति कहता लेकिन आज तक निर्णय नहीं हुआ। वर्षों हो गये काल है। काल लब्धि, सर्वार्थसिद्धि आप पढ़िये, उसमें लिखा लब्धि के बारे में चर्चा करते। लेकिन यह चर्चा धवला हुआ है जी आदि के अलावा अन्यत्र कहीं नहीं आती है। यदि 'तत्र काललब्धिस्तावत्- कर्माविष्ट आत्मा भव्यः | आती भी है तो कोई भी रुचिपूर्वक सुनना नहीं चाहता। कालेऽर्द्धपद्गलपरिवर्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथम-सम्यक्त्व- धवला ग्रन्थ में यह बात आती है कि यह जीव ग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिके इति इयमेका काललब्धिः।' | तीन करणपूर्वक सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है और अपरा कर्मस्थितिका काललब्धिः । उत्कृष्ट- सम्यग्दर्शन के प्राप्त होते ही "अपरीत-संसारो अनन्तो स्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्व- सम्मत्तस्स उवलद्धे" "अनन्तसंसारो छेत्तूण अद्धं लाभो न भवति। क्व तर्हि भवति? अन्तः कोटाकोटी- पुग्गलपरिमेत्तं कदा" ये पंक्तियाँ धवलाजी में अनेक बार सागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्ध- आई हैं। इनका अर्थ यह है कि यह कार्य काल के परिणामवशात् सत्कर्मसु च ततः संख्येयसागरोपम द्वारा नहीं हो रहा है। सहस्त्रोनायामन्तःकोटाकोटीसागरोपमस्थितौ स्थापितेष एक प्वाइन्ट रखा है- अनन्तकाल है संसार का प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति।अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया। जिसका 'अपरीतो संसारो' 'अनन्तसंसारो' अब वह भव्य (स. सि. २/३) जीव, तीन करणों के माध्यम से अनन्त संसार को अब यहाँ काललब्धि बतलाते हैं- कर्मयुक्त कोई | सम्यग्दर्शन की महिमा से अर्द्धपुद्गल परावर्तन मात्र कर भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गल परिवर्तन नाम के काल के | देता है। जून 2009 जिनभाषित ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का । उद्घाटन नहीं हो सकता। यह सिद्धान्त भी उतना ही बात कही जा रही है। करना चाहो तो आज भी कर | सत्य है। इसलिए "हेतुद्वयाविष्कृतकार्य-लिङ्गा' ऐसा सकते हो, चाहो तो। परन्तु हम तो काल के ऊपर निर्भर | समन्तभद्र महाराज जी ने कहा है। हमारे पास उपादान हो चके हैं। अब क्या करें। भाग्य को कोसना चाहिए, | है, उपादान का परिणमन अपनी योग्यता के अनुसार भाग्य में नहीं लिखा, नहीं, यह सब गड़बड़ है। बात | होता है, परन्तु बाहरी जो कारण हैं, उनके बिना नहीं करते ही काल आता है। हो सकता, यह सिद्धान्त है। इसको बिल्कुल स्वीकार "अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतेयं, हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा। | कर लेना चाहिए। अनीश्वरो जन्तुरहं क्रियातः, संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः॥" | धवला जी में काल द्रव्य के बारे में कई बार (स्वयम्भूस्तोत्र-सुपार्श्वजिनस्तवनम् ३)| यह कथन आया है कि यह सम्यग्दर्शन की महिमा है समन्तभद्र महाराज गर्जना करते हैं- आ जाते तो | कि अनन्तकाल को उसने अर्ध पुद्गल परावर्तन मात्र पता नहीं क्या करते। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश | कर दिया। 'इसी समय होना था', 'एक समय में होना बंध ये चारों, कर्मों के भेद हैं। काल के माध्यम से | था'। ये सब चर्चायें आगम से विपरीत हैं। हमको कहने उसकी योग्यता इतनी ही रह सकती है। एक्सपायरी डेट... | में डर नहीं लगता, आपको डर लगता हो तो अलग काल की नहीं होती। एक्सपायरी डेट ऑफ काल ...क्या |बात की। कभी ऐसा लिखा हुआ मिलता है? | जीव काल के कारण भ्रमित नहीं होता, मोह के काल आदि के माध्यम से यह जाना जाता है, कारण भ्रमित होता है। यदि काल के कारण भ्रमित होते इसलिए काल पर तो यह आरोप आता है। इसके परिणाम | हैं तो सभी को होना चाहिए। काल असंख्यात है अर्थात् के माध्यम से काल ज्ञात हो जाता है। व्यवहारकाल का असंख्यात कालाणु हैं। क्या कहा, बताओ- काल द्रव्य उत्पत्तिस्रोत निश्चय काल है। वस्तुतः यह ध्यान रखना असंख्यात हैं, जीव अनन्त हैं और पुद्गल अनन्तानन्त काल कभी भी गणना में नहीं आता। यह हम लोगों हैं। अनन्त आकाश द्रव्य के लिए भी काल नियत है। की बद्धियों के माध्यम से 'इतने परिणमन के बाद इतने | तो यह सापेक्ष कथन है। घंटा होते हैं,' ऐसा हम गणना करके बता देते हैं, वस्तुतः यदि ऐसा होता तो उसके लिए ब्यौरा देते, लेकिन काल की गणना होती नहीं। बुद्धि की अपेक्षा तो गणना | कोई ब्यौरा नहीं मिलता। काल की महिमा नहीं, आत्मा हो ही नहीं सकती। जिस प्रकार कोई एक-एक अणु के रत्नत्रय की महिमा है। इसलिए जो व्यक्ति आज की गणना नहीं कर सकता, क्योंकि उसका एक-एक सम्यग्दर्शन को निश्चित कर देते हैं वे इसमें लगे हुए परिणमन पर्यायगत है। एकसमयवर्ती पर्याय की गणना | हैं कि काल मिल जायेगा तो अर्ध पदगल परावर्तन काल नहीं हो सकती। बुद्धि के द्वारा अतीत और अनागत दोनों | को हम किसी भी प्रकार से ठीक कर देंगे। क्या ठीक को मिला कर हमने उसके ऊपर आरोप लगा दिया। कर दोगे, कभी ठीक नहीं कर सकते। काल पर निर्भर तीन कालों की जब विवक्षा होती है, तब व्यवहार | नहीं होना चाहिए। काल, अर्धपुद्गलपरावर्तनकाल आदि का विश्लेषण किया "काल: कलिर्वा" इस पंक्ति में आये हुए 'वा' जा सकता है। वस्तुतः काल का विश्लेषण नहीं किया शब्द का अर्थ है कि काल पर ज्यादा थोपो नहीं। ' श्रोतुः' जा सकता। यह निश्चित बात है। का अभिप्राय और 'प्रवक्तः' का वचनाऽनय-निरपेक्ष वचनशंका- स्वचतुष्टय में जो काल शब्द का प्रयोग व्यवहार इनके ऊपर निर्भर है। अर्थ का अनर्थ हम कर हुआ है, वह किस सन्दर्भ में आया है? सकते हैं। ग्रहण करनेवाला भी कर सकता है। यह उसकी समाधान- 'कालस्तु हेयः' इस प्रकार आया है।| बद्धि पर निर्भर है। बद्धि मोह से भ्रमित है, काल के बाहर पर निर्भर होकर जो देख रहे है, उसके लिए कहा। द्वारा नहीं, काल के द्वारा कभी बुद्धि भ्रमित नहीं होती है। स्वकाल का अर्थ अपनी योग्यता है और अपने उपादान है। अब देखो, एक सम्यग्ज्ञानी है और वहीं पर बैठा से वर्तन करने की क्षमता प्रत्येक द्रव्य में है, वही द्रव्य | एक मिथ्याज्ञानी है। काल दोनों के बीच में एक है। का वर्तयिता है। किन्तु अन्य कारण. के बिना उसका | मान लो एक है और असंख्यात तो है ही। वह (कॉमन) 12 जून 2009 जिनभाषित - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक होकर भी दोनों तरफ काम कर रहा है। मध्य दीपक । लेकिन उससे भी कुछ नहीं होता। बंध टूटने के लिए बन करके, एक के लिए मिथ्याज्ञान का कारण हो रहा | कारण, अपने परिणाम और आत्मपुरुषार्थ, वे करने चाहिए। है और एक के लिए सम्यग्ज्ञान का कारण हो रहा है। पारिणामिक भाव और काल के द्वारा बंध की प्रक्रिया अब मिथ्याज्ञानवाला कह रहा है कि मैं क्या कर नहीं टूटती है। ध्यान की विवक्षा में इसकी उपयोगिता सकता हूँ। क्योंकि 'कालोस्ति' आप यह बोल सकते | ज्यादा कही गई है, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में कहीं भी हैं। अब वह सम्यग्दृष्टि कहता है, तुम्हारा भाग्य ही नहीं कही गई है, लेकिन यह विषय काल का चल ऐसा है। वह भी सम्यग्दृष्टि है इसलिए कह रहा है। रहा है। इसलिए बाद में इन सब का स्पष्टीकरण देंगे। काल आ गया, भाग्य आ गया। बस, ये दोनों एक दूसरे । ध्यान एकाग्रता से प्राप्त होता है। अन्य जितने भावों में प्रविष्ट होंगे। दुनिया के कार्यों के लिए तो बुद्धि काम | को याद रखते हैं, वे सब कर्मों पर निर्भर होकर रह कर रही है। यह निश्चित है कि उसके द्विस्थानीय प्रकृतियों जाते हैं, कर्मों की ओर दृष्टि जाने में कारण होने से का उदय नहीं होता, तो वह जिनवाणी की प्ररूपणा करने | अन्य भावों को अपना ध्येय न बनाकर स्वभाव भाव की योग्यतावाला नहीं हो सकता। द्विस्थानीय में स्थान को अपना ध्येय बनाओ। इस प्रकार समयप्राभृत आदि क्या चीज है? न कुण्डलपुर है, न नैनागिरि है, न और में कुन्दकुन्द देव ने कहा है। लेकिन उसको सम्यग्दर्शन कोई चीज है, यह स्थान क्या है? जो कर्मों की अनुभाग | की प्राप्ति में कारण नहीं कहा है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति शक्ति होती है, उसे स्थान कहते हैं। यदि द्विस्थानीय, के लिए दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय, क्षयोपशम कहा त्रिस्थानीय, चतुःस्थानीय अनुभाग बंध है, तो कोई सुन | है। उस ध्यान के लिए क्षायिक भाव को भी अपना नहीं सकता और सुना भी नहीं सकता। कुछ भी नहीं | विषय नहीं बनाया, ऐसा कहा है। क्योंकि क्षायिक भाव कर सकता। बस, उसकी चिकित्सा अलग ही होती है। को भी स्वभाव भाव नहीं कहा है। नियमसार में शंका भगवान् भी नहीं कर सकते। कोई भी नहीं कर सकता, | उठाई है कि स्वभाव भाव क्या है? केवल जानना देखना इसलिए कर्मसिद्धान्त को लेकर चलना चाहिए। प्रत्येक | ही स्वभाव भाव है, जो त्रैकालिक होता है। परिणमन यदि कर्म पर निर्भर है, तो पारिणामिकभाव शंका- क्या पारिणामिक भाव और स्वभाव भाव मोक्षमार्ग में कोई कार्य नहीं करता। यह यदि निश्चित | अलग-अलग हैं? है तो पारिणामिक भावों को ग्रन्थों में किसलिए याद किया समाधान- जो कर्म निरपेक्ष भाव होता है उसको है। कारण के रूप में याद नहीं किया, यह ध्यान रखो। पारिणामिक भाव कहते हैं। पारिणामिकभाव से मुक्ति नहीं मिलती, यह सिद्धान्त है। शंका- ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव और पारिणामिक भाव हमारा कहने का अभिप्राय यह है कि पारिणामिक | क्या अलग-अलग हैं? भाव न मुक्ति का कारण है और न बंध का कारण समाधान- हम यह कहना चाहते हैं कि वह है। औदयिक भाव कथञ्चित् बंध का कारण है और | पारिणामिक भाव किसी कर्म के उपशम, क्षय, क्षयोपशम क्षायोपशमिक आदि भाव मुक्ति के कारण हैं। यदि से नहीं होता है। इसलिए उन्होंने ज्ञाता द्रष्टा कहा। यदि हम कारण-कार्य की व्यवस्था को लेकर चल रहे हैं, केवलज्ञान को ग्रहण करते हैं. तो वह केवलज्ञानावरण तो वहाँ पर काल की बात नहीं कही है। अरे! कर्मोदय | कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है. इसलिए वह कर्मसापेक्ष ऐसा ही होना था, ऐसा भी नहीं। हो गया। अब काल की विवक्षा में पंडित जी की जो शंका- पारिणामिक भाव की क्या उपादेयता है? | शंका थी उसका निराकरण कर देता हूँ। समाधान- पारिणामिक भाव की उपादेयता यह | प्रात:काल, मध्याह्नकाल, सायंकाल आदि जो काल है कि हम स्वभाव को यदि दृष्टि में रखते हैं, तो बंध है. वह केवल छह आवश्यकों में फिट करना है और की प्रक्रिया में होनेवाला जो औदयिक भाव है, उसमें | रात्रि संबंधी जो आवश्यक हैं, उनमें फिट करना है। कमी आती है। बातें करने से कमी नहीं आती। निश्चय | काल को औपचारिक रूप में देकर नाप आदि की अपेक्षा और व्यवहार की चर्चा करने बैठे हैं। पहले एक बात | जानना चाहिए। जिस प्रकर ज्वर नापने का थर्मामीटर कही थी, कर्म सिद्धांत के सारे-के-सारे ग्रन्थ रट लिये, होता है उसी प्रकार काल को समझना चाहिए, इसके जून 2009 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलावा और कुछ नहीं। आचार्यश्री-(श्रोताओं की ओर) आप लोगों के "निष्क्रियाणि च" इसको आप निष्क्रिय न | लिए नहीं? हाँ, कोई बात नहीं। लेकिन मुनि महाराज कहिये। यह सूत्र बहुत अच्छा है। जिस दिशा में आप | के लिए, सबके लिए नहीं। को निष्क्रिय होना चाहिए उसमें निष्क्रिय होना चाहिए | यदि मान लो, आचार्य महाराज परीक्षण करना चाहें और जिस दिशा में सक्रिय होना चाहिए उसमें सक्रिय | कि कौन महाराज क्या कर रहे हैं। मूलाचार में पढ़ होना चाहिए। वह ऐसा कह रहा है। यह बहुत विचित्र | लो, आचार्य का क्या लक्षण है, 'आचरति, परान है। घड़ा बनाने में कुंभकार निमित्त नहीं और कुंभकार आचारयति इति आचार्यः।' यदि मानलो, शिष्य सोचने के उपादान कारण से भी घड़ा नहीं बना, कुंभकार के | लगे कि 'हमारा भी सामायिक का समय हो गया और द्वारा भी घड़ा नहीं बना। कमाल हो गया, इसी का नाम बड़े महाराज का भी समय हो गया। बड़े महाराज अब कुन्दकुन्द देव का समयसार है। कुंभकार निमित्त नहीं | सामायिक छोड़कर आ भी नहीं सकते।' ऐसा तो नहीं घड़ा बनाने का और जितने भी हैं, वे हैं ही नहीं। अब हो सकता, यदि नहीं आ सकते तो परीक्षा कैसे करेंगे। सोचो कुंभकार निमित्त भी नहीं, उपादान भी नहीं। फिर | 'यदि नहीं आयेंगे तो हमारे लिए सब छूट है।' इसलिए क्या है? हमारा कहना है कि काल को कहाँ किस रूप में स्वीकार कुंभकार का योग और उपयोग ही वहाँ पर निमित्त किया है, इस पर चिन्तन करना प्रारंभ कर दो। है। हाँ, क्या है यह, सही बात बताओ। एक नहीं १०८ | शंका- क्या काल का संबंध द्रव्य की कुछ पर्यायों बार समयसार का अध्ययन हुआ। निमित्त कुछ नहीं करता | के साथ है? है। निमित्त कौन पकड़ रहा है। उसके योग और उपयोग। समाधान- ऐसा है, प्रत्येक द्रव्य में पर्याय पैदा योग, उसके हाथ में घड़े का आकार आ गया और उपयोग करने की क्षमता है। किन्तु उसका जो बाह्य निमित्त रूप में घड़े का आकार पहले आया। उपयोग में कुंभ का काल है उसका सहयोग नहीं मिलता, तो उसका परिणमन आकार आया, तभी उसने संकेत दिया हाथों को। हाँ, | उस रूप में नहीं होता है। यह निश्चित है। इसी प्रकार तो वह मिट्टी का लौंदा आगे है, तो घड़े के रूप में | धर्मास्तिकाय का अभाव हुआ तो ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने परिणत होगा, नहीं तो नहीं होगा। अब इसमें कोई काल | पर भी सिद्धपरमेष्ठी एक बाल मात्र भी आगे नहीं जा भी नहीं, न कुंभकार है, न ही उपादान, कोई कुछ नहीं। सकते। 'धर्मास्तिकायाभावात्' (त.सू. १०/८) यह सूत्र लौंदा उपादान है और कुंभकार निमित्त के रूप में स्वीकार है। धर्मास्तिकाय का अभाव होने से गमन का अभाव किया है। चूँकि कुंभकार के उपयोग का आधार कुंभकार | हो जाता है। यह अकाट्य नियम है। भीतर से उपादान है और हाथों के लिए कुंभ का आकार जो आया है | होते हुए भी निमित्त का यदि अभाव है तो परिणमन वही उसके लिए आधार है। उसकी बुद्धि ही सब काम | नहीं करेगा। वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' कर रही है। बुद्धि उसी पर निर्धारित है। कुन्दकुन्द देव (त.सू. ५/२२) इस सूत्र में पाँच विभाजन किये हैं। जो की जब यह बात सही है, ठीक बारह बजे हैं। बारह इस प्रकार हैंबजे का अर्थ क्या है? शयन नहीं करना। आहार करके वर्तना- यह निश्चल काल है, इसमें उपादान की आये हो, अब कोई दूसरा काम नहीं करोगे। विवक्षा है और परत्वापरत्व, परिणाम और क्रिया ये जितने अपने दिमाग में बहुत अच्छी व्यवस्था रहती है, | भी हैं, ये सारे-के सारे व्यवहार काल के प्रतीक हैं। विश्राम कीजिये आप। ऐसा सर्वार्थसिद्धि में उल्लेख किया है। निश्चय काल शंका- 'तत्कृतः कालविभागः' (त.सू. ४/१४) | के बिना व्यवहार काल नहीं हो सकता और व्यवहार इस सूत्र की फिर क्या उपयोगिता है, आचार्यश्री? | काल के बिना भी हम यह ज्ञात नहीं कर सकते कि समाधान- 'तत्कृतः कालविभागः' होकर भी. | छह आवश्यक कब और कहाँ पर किये जायें। आचार्यों हमारा यह कहना है कि बारह बजे सामायिक का काल | ने आज्ञा दी है, उसका उल्लंघन नहीं करना। है। तो काल आ गया न? तो सामायिक किसके लिए, | जो वर्तना लक्षणवाला है, वह परमार्थ (निश्चय) . आप बताओ? श्रोता- मुनिमहाराज के लिए। | काल है। जो द्रव्यपरिवर्तन रूप है, वह व्यवहार रूप 14 जून 2009 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल होता है और वह परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व । पर्याय है। पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती, उस समयरूप से जाना जाता है। जीव तथा पदगल की परिवर्तन रूप | पर्याय (व्यवहार) काल का उपादानकारणभूत द्रव्य भी जो नूतन तथा जीर्ण पर्याय है, उस पर्याय की जो समय, | कालरूप ही होना चाहिए। घड़ी आदि रूप स्थिति है, वह स्थिति ही द्रव्यपर्यायरूप | शंका- स्वसमय और परसमय में जो स्वसमय व्यवहार काल है। समय तो काल की ही पर्याय है। | पद आया है, उसका क्या अभिप्राय है? यदि यह पूछो कि समय काल की पर्याय कैसे है? | समाधान- देखो, यहाँ पर समय का अर्थ आत्मा तो उत्तर यह है कि पर्याय का लक्षण उत्पन्न व नाश | नहीं काल ग्रहण करना चाहिए। होना है। समय भी उत्पन्न व नष्ट होता है इसलिए । 'श्रुताराधना' (पृष्ठ १७-२९) से साभार क्रमशः --- कुण्डलपुर में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का समाधिदिवस सम्पन्न 'समाधिमरण कायरों का कार्य नहीं है, जो मरण से नहीं डरता, उसे आत्मा का लाभ होता है, पुनः जन्म नहीं होता, उसी का नाम समाधिमरण है। आचार्यश्री ज्ञानसागर जी महाराज का जीवन साधनामय था, कायाकृश थी, किन्तु काया में रहनेवाली आत्मा का बहुत यश था।' ये विचार आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कुण्डलपुर के विद्याभवन में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ३७वें समाधिदिवस पर अभिव्यक्त किये। इसके पूर्व मंगलाचरण के उपरांत आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चित्र का अनावरण विद्वान श्री मूलचंद्र जी लुहाड़िया किशनगढ़ एवं श्री त्रिलोकचंद्र जी अजमेर ने किया। बड़ेबाबा एवं आचार्यश्री के चित्र के समक्ष ज्ञानज्योति का प्रज्ज्वलन श्री अशोक कुमार जबलपुर एवं आचार्यश्री की आरती का सौभाग्य श्री दीपक जैन दिल्ली एवं उनके परिवार ने प्राप्त किया। अनेक श्रावकों ने इस अवसर पर आचार्यश्री को शास्त्रभेंट करने का सौभाग्य प्राप्त किया। इस अवसर पर श्रुतआराधना नामक पुस्तक का विमोचन किया गया। सर्वप्रथम विद्वान् मूलचंद्र जी लुहाड़िया ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुये कहा कि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज न होते, तो आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का निर्माण नहीं होता और यदि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज न होते, तो आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का इतना अच्छा समाधिमरण न होता। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने उनसे शिक्षा लेकर संयम का जो कीर्तिमान स्थापित किया है, उससे इस सदी को उन्हीं के नाम से जाना जाने लगा है। इसके पश्चात् मुनि श्री विनम्रसागर जी महाराज ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति प्रतिपल मृत्यु की और अग्रसर हो रहा है। मृत्यु पर विजय पाना ही सच्चा समाधिमरण है। पूज्य मुनि श्री महासागर जी महाराज ने कहा कि पुण्य न हो, तो पुरुषार्थ भी कार्य नहीं करता। समाधिदिवस जीवन का सर्वोच्य शिखर है। मुनि श्री शांतिसागर जी महाराज ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में संस्कारों का बीजारोपण कर लेना चाहिए। इसके उपरांत अभिनंदन सागर जी महाराज ने कहा कि जीवनभर की साधना का प्रतिपल समाधिमरण है। संसारी प्राणी को सबसे अधिक मृत्यु का भय होता है। समाधिमरण से वह अभय को प्राप्त करता है। __ आचार्यश्री ने अंत में कहा कि जब शरीर का छूटना होता है, तभी हमें आत्मा का लाभ होता है। सुमरण तभी होता है जब प्रभु सुमरन किया जाता है। आत्मा न कभी मरती है न ही जन्म लेती है। आत्मा चय के लिये दूसरी आत्मा की आवश्यकता नहीं होती। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की स्मृतियों हमारे जीवन में चेतन मूर्ति की तरह रहेंगी। सुनील वेजीटेरियन जून 2009 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक मात्र जिनेन्द्र ही सच्चे देव हैं जैन मन्दिरों में प्रतिदिन सबसे प्रथम देव शास्त्रगुरु की ही पूजा की जाती है। पं० द्यानत राय जी कृत पूजा की स्थापना का पद्य इस प्रकार है प्रथम देव अरहंत सुश्रुत सिद्धान्तजु । गुरु निर्ग्रन्थ महन्त मुकतिपुर पन्थ जु। तीन रतन जगमाहिं सु ये भवि ध्याईये । तिनकी भक्ति प्रसाद परम पद पाईये। अर्थात् अरहन्त देव, द्वादशांग श्रुतरूप सिद्धान्त और महान निर्ग्रन्थ गुरु मुक्ति रूपी नगरी के राहगीर हैं, जगत में ये तीन रत्न हैं। भव्य जीवों को इनका ध्यान करना चाहिये और उनकी भक्ति के प्रसाद से परम पद मोक्ष प्राप्त करना चाहिये। इन तीन रत्नों में प्रथम रत्न अरहन्त देव हैं, जो वीतरागी सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं। एक मात्र यह जिनेन्द्र देव ही सच्चे देव हैं जिसकी ऐसी श्रद्धा है वही सच्चा जैन है । और जिसकी देवविषयक श्रद्धा ठीक नहीं है, भले ही वह उन्हें पूजता हो, किन्तु वह सच्चा जैन नहीं है। देवगति के जो देव हैं, वे तो देवगति नामक कर्म के उदय से देवगति में जन्म लेने से देव हैं उनमें और । सच्चे देव जिनेन्द्र में तो जमीन आसमान का अन्तर है । देवगति के देवों के भी चार भेद हैं- भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिषी और वैमानिक । इन में से आदि के तीन निकृष्ट देव कहलाते हैं । सम्यग्दृष्टि मर कर इनमें जन्म नहीं लेता । पद्मावती धरणेन्द्र भवनवासी जाति के देव हैं, जो प्रथम नरक के ऊपर पाताल लोक में निवास करते हैं भगवान् पार्श्वनाथ के द्वारा दिये गये णमोकारमंत्र के प्रभाव से जलते हुए नाग, नागनी मरकर धरणेन्द्र पद्मावती हुए । कहाँ भगवान् पार्श्वनाथ और कहाँ निकृष्ट जाति के देव धरणेन्द्र पद्मावती । किंतु लक्ष्मी के लोभी लोग भगवान् पार्श्वनाथ की उपेक्षा करके पद्मावती को पूजते हैं और मन्दिरों में वेदियाँ बनाकर उन्हें स्थापित करते हैं । और हमारे कोईकोई निर्ग्रन्थ साधु और आर्यिका माता भी कुदेवपूजा का प्रचार करते पाये जाते हैं । वे सांसारिक भोगों की प्राप्ति के लिये भगवान् पार्श्वनाथ को ही पूजने का उपदेश न देकर पद्मावती को पूजने का उपदेश देते हैं और इस तरह । 16 जून 2009 जिनभाषित स्व० पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री मोक्षपुर के पथिक बनकर मिथ्यात्व का प्रचार करते हैं। कुदेव कहने से लोग जैनधर्म से विमुख अन्य मतों के देवों को ही कुदेव समझते हैं। वे यह नहीं जानते कि जैनधर्म के उपासक रागी-द्वेषी देव भी कुदेव हैं। सच्चे देव तो एक मात्र वीतरागी अरहन्त देव ही हैं। और वे ही पूज्य हैं । जैनधर्म में रत्नत्रय - सम्यर्दशन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही पूज्यता के चिन्ह हैं। इन्हीं के कारण आचार्य उपाध्याय और साधु, पूज्य माने गये हैं, क्योंकि वे रत्नत्रय के धारी होते हैं। देवगति के देव देवियों में तो चारित्र का लेश भी नहीं होता, तब पूज्यता का प्रश्न ही नहीं है। देवगति के देवों में भी यदि पूज्य हैं, तो लौकान्तिक देव, सर्वार्थ सिद्धि के देव और सौधर्म इन्द्र तथा उसकी इन्द्राणी पूज्य माने जा सकते हैं, क्योंकि ये सब मनुष्यभव धारण करके नियम से मोक्ष जाते हैं। अतः जैनधर्म संसारमार्गी धर्म नहीं है, मोक्षमार्गी धर्म है । जिन्हे संसार अच्छा लगता है, उनके लिये यह धर्म नहीं है। आचार्य समन्तभद्र ने अपने श्रावकाचार के प्रारम्भ में ही कहा है कि मैं उस सच्चे धर्म का उपदेश करता हैं, जो कर्मबन्धन का नाशक है और प्राणियों को संसार के दुःख से छुड़ाकर उत्तम सुख से सम्पन्न मोक्ष में धरता है । किन्तु आज के पंचमकाल में मोक्ष के सुख में आस्था ज्ञानी की ही हो सकती है, अज्ञानी की नहीं। और ज्ञानी, चारित्र धारण करने से नहीं होता, श्रद्धापूर्वक तत्त्वज्ञान से होता है तत्त्वज्ञान में आत्मा का शुद्ध स्वरूप, उसके अशुद्ध होने के कारण, उन कारणों से छूटने का उपाय ये सब आते हैं। इन सब की श्रद्धापूर्वक जो चारित्र धारण करता है, वही सच्चा धर्मात्मा है और वह धर्मात्मा जिनभक्ति के प्रसाद से संसार के सुखों को अनासक्त भाव से भोगता हुआ क्रम से मोक्ष प्राप्त करता है। क्या पद्मावती आदि शासन देवों की भक्ति करने से यह सब प्राप्त हो सकता है ? भगवान् तीर्थंकरों ने हमें बतलाया कि कोई भी देवीदेवता किसी को कुछ भी देने की शक्ति नहीं रखता । देने लेनेवाले तो प्राणी के अपने ही अच्छे बुरे कर्म हैं बुरे कर्मों का फल बुरा और अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। बबूल के काँटे बोने से आम नहीं फलते। और आम । पूजा का मिथ्यात्व भी दिया। श्रवणवेलगोला के मठ में का पेड़ लगाने से काँटे नहीं लगते। जगत में तो चोरी | भगवान् जिनेन्द्र .के गृहों के साथ ही देवी पद्मावती के बेईमानी को भी फलते फूलते देखते हैं, यहीं कलिकाल भी गृह बने हुए हैं। और लोकमूढ़ता देखने को मिलती का प्रभाव है। जो मनुष्यों को कुपथ पर ले जाकर उन्हें | है। संसारमार्ग का ही पथिक बनाता है। जैनधर्म में गणों के अनराग को भक्ति कहते हैं पद्मावती के उपासकों से हमारा प्रश्न है कि पद्मावती में देवी होने के कारण कौन ऐसे गुण हैं, जो पद्मावती और भगवान् पार्श्वनाथ में बड़ा कौन है? कोई| पूजने योग्य हैं? वह भगवान् पार्श्वनाथ की भक्त है, उसी भी पद्मावती का भक्त पद्मावती को भगवान् से बड़ा नहीं | का फल उसे प्राप्त हुआ है, तो आपको भी भगवान् कह सकता। जिन भगवान् पार्श्वनाथ के प्रभाव से नाग- | पार्श्वनाथ का भक्त होना चाहिये न कि देवी का। देवी नागनी धरणेन्द्र-पद्मावती हुए, उनसे बे बड़े कैसे हो सकते | देवताओं से प्रथम प्रतिमाधारी दार्शनिक श्रावक भी आत्मा हैं? तब जो फल भगवान् पार्श्वनाथ की भक्ति से प्राप्त | की विशुद्धि के कारण बड़ा है। इसी लिये पं० आशाधर हो सकता है, वह फल पद्मावती की भक्ति से कैसे प्राप्त जी ने लिखा है कि आपत्ति से व्याकुल होकर भी दार्शनिक हो सकता है? भगवान् की उपासना सम्यक्त्व की उपासना श्रावक कभी भी शासन देवों को नहीं पूजता। खेद है कि है और पद्मावती की उपासना मिथ्यात्व की उपासना है। | जैन तीर्थंकरों ने देवी-देवतओं के चक्र में फँसे मनुष्यों को सम्यक्त्व की उपासना का फल सांसारिक भोगों के साथ | देवों से बड़ा बतलाकर देवत्व के पद पर मनुष्य की प्रतिष्ठा अन्त में मुक्ति की प्राप्ति है और मिथ्यात्व की उपासना की थी, मनुष्य उसे भूलकर पुनः कदेवों के चक्र में फँसकर का फल अनन्त संसार है। अपने संसार को अनन्त बना रहे हैं। यह अनन्त संसार दक्षिण ने जहाँ हमें कुन्दकुन्द जैसे महर्षि का | जिनकी भक्ति के प्रसाद से शान्त होता है, वही सच्चे देव अध्यात्म दिया, वहाँ हिन्दूधर्म के प्रभाव से पद्मावती की । पूजनीय हैं। जैनसन्देश ३ सितम्बर १९८१ (सम्पादकीय) से साभार है। श्री बड़ेबाबा के मंदिर का डोम बनाना प्रारंभ । को लेकर अहम फैसले लिये गये। आचार्यश्री के आगमन से मंदिरनिर्माण में तेजगति आ गयी है। इसे कुण्डलपुर में संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर देखते हुये निर्माण कमेटी शीघ्रता से कार्य करने में जटी जी महाराज के आशीर्वाद से निर्मित हो रहे बड़ेबाबा | के विशाल मंदिर का डोम बनना प्रारंभ हो गया है। इसके बनने से शीघ्र ही मंदिर का भव्य स्वरूप दिखने सुनील बेजीटेरियन लगेगा। मंदिरनिर्माणसमिति के संयोजक श्री वीरेश सेठ कुण्डलपुर, जिला- दमोह (म.प्र.) के अनुसार डोम फिटिंग का सम्पूर्ण कार्यशिल्प ठेकेदार | सिंघई अरिहंत जैन 'दीवान' का सुयश खीमजी भाई के द्वारा किया जा रहा है, जो कि इस | मोरेना (म०प्र०) ख्यातिलब्ध प्रतिष्ठाचार्य पं० श्री कार्य को शीघ्र पूर्ण करने के लिये कटिबद्ध हैं। पवन कुमार शास्त्री 'दीवान' के यशस्वी सुपुत्र सिंघई डोम फिटिंग का महत्त्वपूर्ण कार्य प्रारंभ होने के अरिहंत जैन 'दीवान' ने वर्ष २००९ की हाईस्कूल परीक्षा पूर्व आचार्यश्री से भी आशीर्वाद प्राप्त किया गया।। जो कि (हिन्दी माध्यम से परिवर्तित कर) अंग्रेजी माध्यम आचार्यश्री ने स्वयं मंदिर के निर्माणस्थल पर पहुंचकर | से दी, उसमें सम्पूर्ण प्रदेश का कुल परीक्षाफल लगभग शिल्पकारों को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। इस | ३५ प्रतिशत आने के बाबजूद भी ८५ प्रतिशत अंक प्राप्त अवसर पर कुण्डलपुर अध्यक्ष संतोष सिंघई के अलावा | कर आशातीत सफलता प्राप्त की है। एतदर्थ-आत्मीय मंदिर आर्किटेक्ट मनोज सोमपुरा, अयूब खान, खिमजीभाई। परिजन / पुरजन व इष्ट मित्र, शुभ चिन्तकों ने हार्दिक के साथ मिलकर मंदिर निर्माण कमेटी की दो दिवसीय | बधाई- शुभकामनाएँ दी हैं। महत्त्वपूर्ण बैठक आयोजित की गई, जिसमें मंदिरनिर्माण . सिंघई कु० महिमा जैन - जून 2009 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अंश तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक विवेचन पं० महेशकुमार जैन व्याख्याता चतुर्थ अध्याय इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपा- । है । उसके ३ योजन ऊपर जाकर शुक्र है। उससे ३ लानीक प्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः ॥ ४ ॥ योजन ऊपर जाकर बृहस्पति है। उससे ४ योजन ऊपर सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोवार्तिक एवं तत्त्वार्थवृत्ति जाकर मंगल है। उससे ४ योजन ऊपर जाकर शनि है। आदि ग्रन्थों में च शब्द की व्याख्या नहीं की है। यह ज्योतिष्क देव सम्बन्धी आकाशप्रदेश है। वह कुल मिलाकर ११० योजन मोटाईयुक्त है और तिरछा घनोदधिवलय पर्यन्त फैला हुआ है, ऐसा व्याख्यान करना चाहिये । तत्त्वार्थवृत्ति - चकारः परस्परसमुच्चये वर्तते । तेनायमर्थः न केवलं सूर्याचन्द्रमसौ ज्योतिष्कौ किन्तु ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ज्योतिष्काः वर्तन्ते । अर्थ- चकार शब्द परस्पर समुच्चय के लिए है, जिससे यह अर्थ है कि केवल सूर्यचन्द्रमा ही ज्योतिष्क नहीं है किन्तु ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे भी ज्योतिषी देव कहलाते हैं । सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्द: पूर्वविकल्प समुच्चयार्थः । एकैकस्य निकायस्यैकशः । ततो न केवलं पूर्वोक्तविकल्पाः । किं तर्ह्येते इन्द्रादयश्च दशविशेषा एकैकस्य निकायस्य भवन्तीति समुदायार्थः । अर्थ- 'च' शब्द पहले के विकल्पों का समुच्चय करता है। एकशः अर्थात् एक-एक निकाय के, इससे यह अर्थ फलित होता है कि पहले कहे हुए विकल्प ही नहीं, किन्तु ये इन्द्र आदि दस विशेष भी एक-एक निकाय के होते हैं । भावार्थ- ज्योतिष्क देवों के अवस्थान कहाँ-कहाँ हैं, इस कथन का समुच्चय करने के लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया गया है। कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥ १७ ॥ तारकाश्च ॥ १२ ॥ सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सुखबोध सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक एवं श्लोकवार्तिक मे 'च' तत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वार्थवृत्ति एवं तत्त्वार्थमंजूषा आदि टीकाओं शब्द की व्याख्या नहीं है। में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की है । भावार्थ - भवनवासी, व्यन्तर आदि में इन्द्र, सामानिक आदि १०-१० भेद भी होते हैं। इसी का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में चकार प्रयुक्त है। ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णक सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दोऽनुक्तसमुच्च- पू० आचार्य विद्यासागर जी - 'च' शब्द होने से, यार्थस्ततोऽस्मात् समाद्भूद्भागादूर्ध्वं सप्तयोजनशतानि ये स्थिर भी हैं, ऐसा अर्थ लगा लेना चाहिये। नवत्युत्तराण्युत्पत्य सर्वज्योतिषामधो भाविन्यस्तारकाश्चरन्ति । सौधर्मैशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवका सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वार्थवृत्ति एवं तत्त्वार्थमंजूषा आदि ग्रन्थों में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की है। भावार्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द का अर्थ 'और' ततो दशयोजनान्युत्पत्य सूर्याश्चरन्ति । ततोऽशीतियोजना- पिष्ठशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्त्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतन्युत्पत्य चन्द्रमसो भवन्ति । ततस्त्रीणियोजनान्युत्पत्य नक्षत्राणि योर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थपर्यटन्ति । ततस्त्रीणि योजनान्युत्पत्य बुधाः । ततस्त्रीणि सिद्धौ च ॥ १९ ॥ योजनान्युत्पत्य शुक्राः । ततस्त्रीणियोजनान्युत्पत्य बृहस्पतयः । ततश्चत्वारियोजनान्युत्पत्यांगरकाः। ततश्चत्वारियोजनान्युत्पत्य शनैश्चराश्चरन्तीति । स एषः ज्योतिष्कविषयो नभः प्रदेशो दशोत्तरयोजनशतबहलस्तिर्यग्घनोदधि पर्यन्त इति व्याख्येयम् । अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द अनुक्त का समुच्चय करने के लिए है। इस समतल भूभाग से ऊपर ७९० योजन जाकर सर्व ज्योतिष्कों में अधोभावी तारे चलते हैं, उससे १० योजन ऊपर जाकर सूर्य चलते हैं। उसके ८० योजन ऊपर जाकर चन्द्रविमान हैं। उससे ३ योजन ऊपर जाकर नक्षत्र घूमते हैं। उसके ऊपर ३ योजन ऊपर जाकर बुध 18 जून 2009 जिनभाषित है । वह्नयरुणगर्दतोयतुषिताव्याबा सारस्वतादित्य धारिष्टाश्च ॥ २५ ॥ सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्द समुच्चितास्तेषामन्तरेषु द्वौ देवगणौ । तद्यथा - सारस्वतादित्यान्तरे अग्न्याभसूर्याभाः । आदित्यस्य च बह्नेश्यान्तरे चन्द्राभसत्याभाः । वन्यरुणान्तराले Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयस्करक्षेमंकराः। अरुणगर्दतोयान्तराले वृषभेष्टकामचाराः।। दिषु सर्वार्थसिद्धौ च॥ ३२ ॥ गर्दतोयतुषितमध्ये निर्माणरजोदिगन्तरक्षिताः। तुषिता- | सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सुखबोधव्याबाधमध्ये आत्मरक्षितसर्वरक्षिताः। अव्याबाधारिष्टान्तराले | तत्त्वार्थवृत्ति में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की गयी है। मरुद्वसवः। अरिष्टसारस्वतान्तराले अश्वविश्वाः। सर्वे एते तत्त्वार्थवृत्ति- 'सर्वार्थसिद्धौ च' इति पृथक्पदकरणं स्वतन्त्राः, हीनाधिकत्वाभावात्। | जघन्यस्थितिप्रतिषेधार्थम्। सर्वार्थसिद्धिं गतौ जीवः परिअर्थ- सूत्र में 'च' शब्द समुच्चय के लिए है, | पूर्णानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि भुंक्ते। विजयादिषु तु जघन्यउससे इनके मध्य में २-२ देवगण (समूह) और हैं।| स्थितिभत्रिंशत्सागरोपमानि। यथा- सारस्वत और आदित्य के मध्य में अग्न्याभ और अर्थ- 'सवार्थसिद्धौ च' इस प्रकार पृथक् पद जघन्य सूर्याभ हैं। आदित्य और वह्नि के मध्य में चन्द्राभ और | स्थिति का निषेध करने के लिए है अर्थात् सवार्थसिद्धि सत्याभ हैं। वह्नि और अरुण के बीच में श्रेयस्कर को प्राप्त जीव पूर्ण ३३ सागर प्रमाण आयु का भोग और क्षेमंकर हैं। अरुण और गर्दतोय के मध्य में वृषभेष्ट | करते हैं, किन्तु विजयादिक में जघन्य आयु ३२ सागर और कामचार हैं। गर्दतोय और तषित के मध्य में | प्रमाण होती है। निर्माणरजस् और दिगन्तरक्षित हैं। तुषित और अव्याबाध | भावार्थ- सर्वार्थसिद्धि में ३३ सागर प्रमाण आयु के मध्य में आत्मरक्षित और सर्वरक्षित हैं। अरिष्ट और | होती है, जघन्य नहीं होती है। इसी का ज्ञान कराने के सारस्वत के मध्य में अश्व और विश्व हैं। ये सब देव | लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया है। स्वतन्त्र हैं, क्योंकि इनमें हीनाधिकता नहीं पायी जाती नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥ ३५॥ श्लोकवार्तिक में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की राजवार्तिक- 'च' शब्द समुच्चितः तदन्तराल- | है।। वर्तिनः। २। तेषामन्तरालेषु 'च' शब्दसमुच्चिता द्वन्द्ववृत्या सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक- 'च शब्दः किमर्थ:? देवगणाः प्रत्येतव्याः। तद्यथा-अग्न्याभसूर्याभचन्द्राभसत्या- | प्रकृतसमुच्चयार्थः। किं च प्रकृतम्? 'परतः परतः पूर्वा भश्रेयस्करक्षेमकरवृषभेष्टकामचरनिर्माणरजोदिगन्तर- | पूर्वाऽनन्तरा' अपरा स्थितिरिति । तेनायमर्थो लभ्यते रत्नप्रभायां क्षितात्मरक्षितसर्वरक्षितमरुद्वस्वश्व-विश्वाख्याः। ३। एते | नारकाणां परास्थितिरेकं सागरोपमम्। सा शर्कराप्रभायां अग्न्याभादयः षोडश देवगणा लौकान्तिकभेदाः कथ्यन्ते। जघन्या। शर्कराप्रभायामुत्कृष्टा स्थितिस्त्रीणि सागरोपमणि। अर्थ- 'च' शब्द से अन्तरालवर्ती विमानों का संग्रह | सा बालुकाप्रभायां जघन्येत्यादि। हो जाता है। उन विमानों के अन्तरालवर्ती विमानों का अर्थ- शंका- सूत्र में 'च' शब्द किसलिए दिया संग्रह 'च' शब्द से होता है और द्वन्द्ववत्ति से उन विमानों | है? समाधान- प्रकृत विषय का: में रहनेवाले देवगणों को जानना चाहिये। जैसे- अग्न्याभ, 'च' शब्द दिया है। शंका- क्या प्रकृत है? समाधानसूर्याभ, चन्द्राभ, सत्याभ, श्रेयस्कर, क्षेमंकर, वृषभेष्ट, | 'परतः परतः पूर्वापूर्वाऽनन्तरा अपरा स्थितिः' यह प्रकृत कामचर, निर्माणरजस्, दिगन्तरक्षित, आत्मरक्षित, सर्वरक्षित, | है अतः 'च' शब्द से इसका समुच्चय हो जाता है। मरुत् वसु, अश्व और विश्व इन नामों के विमान हैं।। इसका यह अर्थ प्राप्त होता है कि रत्नप्रभा में नारकियों ये अग्न्याभ आदि षोडश देवगण लौकान्तिक देवों के | की उत्कृष्ट स्थिति जो एक सागरोपम है वह शर्कराप्रभा ही भेद कहे जाते हैं। में जघन्य स्थिति है। शर्कराप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति जो श्लोकवार्तिक, सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वार्थवृत्ति इन | ३ सागरोपम है, वह बालुकाप्रभा में जघन्य स्थिति है तीनों ग्रंथों में तत्त्वार्थसूत्र एवं राजवार्तिक के आधार पर | इत्यादि। . ही लौकान्तिक देवों के भेदों का वर्णन किया गया है। सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- परतः परत: पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा भावार्थ- सारस्वत, आदित्य आदि लौकान्तिक देवों | परा स्थितिरित्येतस्यार्थस्य समुच्चयाश्चशब्दः कृतः। के विमानों के मध्य में २-२ विमान और हैं। इस प्रकार अर्थ- 'पूर्व-पूर्व की जो उत्कृष्ट स्थिति है वह ८+१६-२४ विमान हो जाते हैं। इन्हीं का समुच्चय करने | आगे-आगे जघन्य हो जाती है' इस अर्थ का समुच्चय के लिए सूत्र में 'च' शब्द कहा है। करने हेतु 'च' शब्द को ग्रहण किया है। आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजया- । तत्त्वार्थवृत्ति- चकारात् पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा इत्यनुकृष्यते। जून 2009 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेनायमर्थः स्थूलतया रत्नप्रभायां प्रथमनरकभूमौ नारकाणा- | हजार वर्ष की होती है। चकार से प्रकृत अर्थ फलित मुत्कृष्टा स्थितिरेकसागरोपमं प्रोक्तं, सा शर्कराप्रभायां | होता है। द्वितीयनरकभूमौ जघन्या वेदितव्या। शर्कराप्रभायां त्रीणि व्यन्तराणां च॥ ३८॥ सागरोपमाणि उत्कृष्टा स्थिति कथिता, सा बालुकाप्रभायां सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' तृतीयनरकभूमौ जघन्यस्थितिः वेदितव्या इत्यादि, तावत् | शब्दः प्रकृतसमुच्चयार्थः। तेन व्यन्तराणामपरा स्थितिर्दशसप्तमनरके द्वाविंशतिसागरोपमाणि जघन्या स्थितिर्भवति। | वर्षसहस्राणीत्यवगम्यते।। अर्थ- चकार से आगे-आगे पूर्व-पूर्व का अनुकर्षण | अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द प्रकृत अर्थ का समुच्चय करना चाहिये, इसका यह अर्थ है। रत्नप्रभा नामक प्रथम | करने के लिए दिया गया है। इससे ऐसा अर्थ घटित नरक भूमि में नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति जो १ सागरोपम होता है कि व्यन्तरों की जघन्य स्थिति १०,००० वर्ष कही है वह शर्कराप्रभा नामक द्वितीय भमि में जघन्य | है। जानना चाहिये। शर्कराप्रभा में जो उत्कृष्ट आयु ३ सागरोपम श्लोकवार्तिक- अपरा स्थितिर्दशवर्षसहस्राणीति कही है, वह बालुकाप्रभा नामक तृतीय नरकभूमि में जघन्य | चशब्देन समुच्चीयते। आयु जानना चाहिये इत्यादि। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी अर्थ- व्यन्तरों की जघन्य स्थिति १०,००० वर्ष में २२ सागरोपम जघन्य स्थिति होती है। है, 'च' शब्द से इसका समुच्च हो जाता है। भावार्थ- नारकी जीवों की जघन्य आयु का क्रम तत्त्वार्थवृत्ति- व्यन्तराणां किन्नरादीनां दशवर्षसहबताने के लिए सूत्र में 'च' शब्द आया है। यथा- प्रथम | स्राणि जघन्यास्थितिर्भवति। चकारः अपरास्थितिरित्यनपृथ्वी की जो उत्कृष्ट आयु है उसमें १ समय और मिलाने | कर्षणार्थः। पर द्वितीय पृथ्वी की जघन्य आयु हो जाती है। द्वितीय अर्थ- किन्नर आदि व्यन्तरदेवों की जघन्य स्थिति पृथ्वी की जो उत्कृष्ट आयु है उसमें एक समय मिलाने | १०,००० वर्ष है। सूत्र में आये 'च' शब्द से जघन्य स्थिति पर तृतीय पृथ्वी की जघन्य आयु हो जाती है। इस प्रकार | का अनुकर्षण हो जाता है। आगे भी जानना चाहिये। भावार्थ- व्यन्तरों की जघन्य स्थिति १० हजार भवनेषु च॥ ३७॥ वर्ष की है यह चकार से जाना जाता है। श्लोकवार्तिक में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं है। ज्योतिष्काणां च॥ ४०॥ सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक- 'च' शब्द किमर्थ:? श्लोकवार्तिक में 'च' शब्द की विवेचना नहीं की प्रकृतसमुचच्यार्थः। तेन भवनवासिनामपरास्थितिर्दशवर्ष- | गयी है। सहस्राणीत्यभिसंबध्यते। सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक- 'च शब्दः प्रकृतअर्थ- शंका- सूत्र में 'च' शब्द किसलिए दिया | समुच्चयार्थः। तेनैवमभिसंबन्धः। ज्योतिष्काणां परा स्थितिः है? समाधान- प्रकृत विषय का समुच्चय करने के लिए। पल्योपममधिकमिति।' इससे ऐसा अर्थ घटित होता है कि भवनवासियों की | अर्थ- 'च' शब्द प्रकृत विषय के समुच्चय के जघन्य स्थिति १०,००० वर्ष है। लिए है। जिससे यह अभिसंबन्ध होता है कि ज्योतिषी सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति-'च' शब्दः प्रकृतसमच्चयार्थः। | देवों की उत्कृष्ट स्थिति साधिक १ पल्योपमप्रमाण है। तेन भवनेषु च ये वसन्ति प्रथमनिकायदेवास्तेषां दशवर्ष- सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दः प्रकृतसमुच्चयार्थ सहस्राणि जघन्या स्थितिरित्यभिसंबध्यते। इत्येवं तेन ज्योतिष्काणां च परा स्थितिः पल्योपमं अर्थ- 'च' शब्द प्रकृत के समुच्चय के लिए है। | सातिरेकमित्यभिसम्बध्यते। भवनों में रहनेवाले प्रथम निकाय के जो देव हैं, उनकी अर्थ- 'च' शब्द प्रकृत के समुच्चय के लिए है। जघन्य स्थिति १०,००० वर्ष है ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये। इससे ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट स्थिति १ पल्य से तत्त्वार्थवृत्ति- चकार: अपरा स्थितिरित्यनुकर्षणार्थः।। कुछ अधिक है, ऐसा सम्बन्ध हो जाता है। अर्थ- सूत्र में चकार जघन्य स्थिति का अनुकर्षण तत्त्वार्थवृत्ति- चकारः प्रकृतसमुच्चयार्थः। तेन करने के लिए है। ज्योतिष्काणां परा स्थितिः पल्योपमाधिकमिति ज्ञातव्यम्। भावार्थ- भवनवासी देवों की जघन्य आयु १० । अर्थ- चकार प्रकृत विषय का समुच्चय करने 20 जून 2009 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए है, इससे ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट स्थिति | १ पल्योपमप्रमाण है। इसका समुच्चय करने के लिए साधिक १ पाल्योपम होती है, यह जानना चाहिये। 'च' शब्द ग्रहण किया गया है। भावार्थ- ज्योतिषी देवों की उत्कृष्ट आयु साधिक | श्री दि० जैन संस्कृति संस्थान सांगानेर (जयपुर) राजस्थान प्रो० फूलचन्द्र जैन प्रेमी को अहिंसा अनेकान्त' का वर्ष २००० ई० से सफलतापूर्वक संपादन इण्टरनेशनल पुरस्कार कर रहे हैं। विभिन्न विश्वविद्यालयों की अकादमिक समितियों सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के | के सदस्य के रूप में आपका महनीय योगदान रहा है। जैनदर्शन विभाग में प्रोफेसर डॉ० फूलचन्द्र जैन प्रेमी को उनके डॉ० प्रशान्त जैन समग्र साहित्यिक योगदान के लिए नई दिल्ली के श्रीराम प्रवक्ता, जैन इन्टर कॉलेज, खेकड़ा सेन्टर सभागार में दिनांक २६.०४.०९ को आयोजित भव्य श्रमण ज्ञान भारती मथुरा का वार्षिकोत्सव समारोह में अहिंसा इण्टरनेशनल डिप्टीमल आदीश्वर लाल सानंद सम्पन्न साहित्य पुरस्कार प्रदान किया गया। पूज्य उपाध्याय श्री प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी श्रमण ज्ञान भारती गुप्तिसागर जी महाराज के सान्निध्य एवं भारी संख्या में उपस्थित छात्रावास का भव्य वार्षिकोत्सव ५ अप्रैल २००९ को जैन संस्कृति प्रेमियों की करतल ध्वनि के बीच यह पुरस्कार श्री चौरासी मथुरा में सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली के छात्रावास के अधिष्ठाता श्री निरंजनलाल बैनाड़ा जी ने की। माननीय कुलपति प्रो. वाचस्पति उपाध्याय ने प्रो० जैन को मुख्य अतिथि के रूप में सारस्वत मनीषी श्री पं० रतनलाल प्रदान किया। श्री प्रताप जैन ने प्रशस्ति पत्र का वाचन किया। जी बैनाड़ा, विशिष्ट अतिथि के रूप में मथुरा के उद्योगपति अध्यक्ष श्री प्रेमचन्द्र जैन, महासचिव श्री ए०के० जैन एवं श्री श्री ऋषभकुमार जी पधारे। अनिल जैन ने इकतीस हजार रुपया की पुरस्कार राशि का सेठ विजय कुमार टोंग्या चेक, अंगवस्त्र एवं प्रशस्ति पत्र भेंट किया। अहिंसात्मक चिकित्सा संबंधी नियमित सुरेन्द्र कुमार जैन श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, भदैनी वाराणसी मार्गदर्शन अब इण्टरनेट पर अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियों के विशेषज्ञ एवं श्री विद्वद्वर्य डॉ० जयकुमार जैन ऋषभदेव स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ के संयोजक श्रीमान् चंचलमल पुरस्कार से सम्मानित जी चोरडिया अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियों के प्रचार-प्रसार गाजियाबाद- दि. जैन तीर्थ श्री ऋषभांचल की | हेतु प्रयासरत हैं। उनके द्वारा लिखित पुस्तक आरोग्य आपका' स्थापना दिवस के शुभ अवसर पर अपार जनसमूह के बीच | मानव शरीर के अधिकांश रोगों का इलाज करने में सहायक श्री मोतीलाल जी वोरा सांसद एवं कोषाध्यक्ष कांग्रेस (पूर्व | सिद्ध हई है। मुख्यमंत्री म०प्र० एवं पूर्व राज्यपाल उ० प्र०) ने माँ श्री | आज के इस बढ़ते आधुनिक युग में चोरडिया जी कौशल जी के सान्निध्य में सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् डॉ० | ने इण्टरनेट के माध्यम से भी अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियों - जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर को त्रयोदश ऋषभदेव पुरस्कार | की जानकारी एवं विभिन्न रोगों के उपचार की विधि को प्रदान कर सम्मानित किया। सभी तक पहुँचाने का लक्ष्य बनाया है। अतः जो भी डॉ. जैन विलक्षण व्यक्तित्व के धनी, सरल स्वभावी | स्वास्थ्यप्रेमी प्रभावशाली अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियों के विद्वान् हैं। उन्होंने पूर्ण निष्ठा एवं लग्न से धर्म एवं समाज | बारे में नियमित जानकारी प्राप्त करना चाहें, वे चाहे तो इस की अनुकरणीय सेवा की है। काशीराज पुरस्कार, महावीर | सेवा का लाभ उठा सकते हैं। जिन महानुभावों के पास अपना पुरस्कार, फूलचन्द्र सेठी स्मृति पुरस्कार, विद्वद्रत्न पुरस्कार, ई-मेल पता हो, तो, वह अपना ई-मेल पता चोरडिया जी श्रुतसंवर्धन पुरस्कार, आचार्य ज्ञानसागर पुरस्कार आदि अनेक | के ई-मेल पर अवश्य मेल करें, ताकि उन्हें नियमित रूप पुरस्कारों से सम्मानित डॉ० जैन प्रारंभ से ही प्रतिभाशाली | से इन पद्धतियों की जानकारी प्राप्त हो सके। चोरडिया जी रहे हैं। उन्होने का० हि० वि० वि० वाराणसी से एम० ए० | का ई-मेल पता हैपरीक्षा में वि० वि० में प्रथम स्थान प्राप्त करके एक कीर्तिमान | cmchoradia.jodhpur@gmail.com; स्थापित किया तथा तीन गोल्ड मेडल एवं पुरस्कार से | swachikitsa@therapist.net; drchordia.jodhpur सम्मानित हुए। आपके ३० से अधिक ग्रन्थ, १०० से अधिक |@gmail.com. शोध आलेख प्रकाशित हैं, तथा आप शोध त्रैमासिक पत्रिका कमलेश मेहता, कार्यालय प्रभारी जून 2009 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में सरस्वती उपासना? प्रो० सागरमल जैन हम अपने पूर्व आलेख- "अर्धमागधी आगम | ही मिलते हैं। तीसरी-चौथी शती से लेकर सातवीं तक साहित्य में श्रुतदेवी सरस्वती" में स्पष्ट रूप से यह | हमें सरस्वती के उल्लेख नहीं मिले। पंचकल्पभाष्य की देख चुके हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अर्धमागधी | टीका में, उसे व्यन्तर देवी के रूप में उपस्थित किया आगमों में तथा उनकी नियुक्तियों और भाष्यों तक में | गया, जो अधिक सम्मानप्रद नहीं था, किन्तु हरिभद्र ने भी एक देवी के रूप में सरस्वती की अवधारणा अनुपस्थित | उसकी उपासना विधि में उसे वैराट्या, रोहिणी, अम्बा, है। भगवतीसूत्र में सरस्वती (स+रस+वती) पद का प्रयोग | सिद्धायिका, काली आदि शासनदेवियों के समकक्ष दर्जा मात्र जिनवाणी के विशेषण के रूप में हुआ है और | देकर उसका महत्त्व स्थापित किया है, क्योंकि काली, उस जिनवाणी को रस से युक्त मानकर यह विशेषण | अम्बा, सिद्धायिका आदि को जैनधर्म में शासनदेवता का दिया गया है। यद्यपि उसमें भगवती श्रुतदेवता (सुयदेवयाए सम्मान प्राप्त है। श्वेताम्बर परम्परा में श्रृतदेवी सरस्वती भगवइए) के कुछ प्रयोग मिले हैं, परन्तु वे भी जिनवाणी की उपासना-विधि के साहित्यिक प्रमाण लगभग ८वीं के अर्थ में ही हैं। जिनवाणी के साथ देवता और भगवती | शती से मिलने लगते हैं। शब्दों का प्रयोग मात्र आदरसूचक है, किसी 'देवी' की जहाँ तक सरस्वती की प्रतिमा के पुरातात्विक कल्पना के रूप में नहीं है। श्रुतदेवता (श्रुतदेवी) की | प्रमाणों का प्रश्न है, वे प्रथमतया तो मथुरा से उपलब्ध कल्पना प्राचीन स्तर के आगमों की अपेक्षा कछ परवर्ती | सरस्वती की प्रतिमा के आधार पर ईसा की द्वितीय शती है। सर्वप्रथम पउमचरियं (ई० २री शती) में ह्री, श्री, | से मिलने लगते हैं, किन्तु जैन परम्परा में बहुत ही सुन्दर धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी को देवी कहा गया है, | सरस्वती प्रतिमाएँ पल्लू (बिकानेर) और लाडन आदि जो इन्द्र के आदेश से तीर्थंकर माता की सेवा करती | से उपलब्ध हैं, जो ९वीं, १०वीं शती के बाद की हैं। हैं (३/५९)। इसके साथ ही अंगविज्जा (लगभग २री जहाँ तक अचेल दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, शती) में भी बुद्धि की देवता के रूप में 'सरस्वती' | उसमें श्री श्रुतदेवी सरस्वती के उल्लेख पर्याप्त परवर्ती का उल्लेख है। (अध्याय ५८/ पृ. २२३) जबकि जैन हैं। कसायपाहुड, षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती-आराधना, देवमण्डल, जिसमें सोलह विद्यादेवियाँ, चौबीस यक्ष, | तिलोयपण्णत्ती, द्वादशअनुप्रेक्षा, (बारसअणुवेक्खा) एवं चौबीस यक्षियाँ (शासनदेवता), अष्ट या नौ दिक्पाल, | कुन्दकुन्द के ग्रन्थ समयसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार, चौंसठ इन्द्र, लोकान्तिकदेव, नवग्रह, क्षेत्रपाल (भैरव) और प्रवचनसार आदि में हमें कहीं भी आद्यमंगल में श्रुतदेवता चौंसठ योगनियाँ भी सम्मिलित हैं, कहीं भी सरस्वती सरस्वती का उल्लेख नहीं मिला है। यहाँ तक कि तत्त्वार्थ का उल्लेख नहीं है। यह आश्चर्यजनक इसलिए है, अनेक | की टीकाओं जैसे सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक हिन्दू देव-देवियों को समाहित करके जैनों ने जिस में तथा षटखण्डागम की धवलाटीका और महाबंधटीका देवमण्डल का विकास किया था, उसमें श्रुतदेवी सरस्वती | में भी मंगलरूप में श्रुतदेवी सरस्वती का उल्लेख नहीं को क्यों स्थान नहीं दिया गया? जब कि मथुरा से उपलब्ध | है। महाबन्ध और उसकी टीका में मंगलरूप में जिन जैन स्तूप की पुरातात्त्विक सामग्री में विश्व की अभिलेखयुक्त | ४४ लब्धिपदों का उल्लेख है, उनमें भी कहीं सरस्वती प्राचीनतम जैन श्रुतदेवी या सरस्वती की प्रतिमा प्राप्त | या श्रुतदेवता का नाम नहीं है। ज्ञातव्य है ये ही लब्धिपद, हुई है, जिससे इतना तो सिद्ध हो ही जाता है कि ईसा | श्वेताम्बरपरम्परा में सूरिमंत्र के रूप में तथा प्रश्नव्याकरण की द्वितीय शताब्दी से जैनों में सरस्वती की आराधना | नामक अंग-आगम में भी उपलब्ध हैं, जिनमें अनेक प्रचलित रही होगी. क्योंकि इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा | प्रकार के लब्धिधरों एवं प्रज्ञाश्रमणों कोटिकगण की वज्रीशाखा के जैनाचार्य द्वारा हुई है और | उनमें भी श्रुतदेवी सरस्वती का कोई उल्लेख नहीं है। 'सरस्वती' शब्द का भी उल्लेख है। इसके बाद श्वेताम्बर विद्वद्वर्ग के लिए यह विचारणीय और शोध का विषय परम्परा में श्रुतदेवी के रूप में सरस्वती के उल्लेख हरिभद्र (८वीं शती) और उनके बाद के आचार्यों के काल से । जहाँ तक मेरी जानकारी है, दिगम्बरपरम्परा में 22 जून 2009 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वप्रथम पं० आशाधर (१३वीं शती) ने अपने ग्रन्थ । पूर्णतः प्रभावित प्रतीत होती है। इस लेख में उल्लेखित सागारधर्मामृत में श्रुतदेवता की पूजा को जिनपूजा के | सभी स्तोत्र हमने क्रमशः परिशिष्ट में दिये हैं। समतुल्य बताया है। वे लिखते हैं | जहाँ तक सरस्वती के प्रतिमा लक्षणों का प्रश्न ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या ते यजन्तेऽजसा जिनं। । है। सर्वप्रथम खरतरगच्छ के वर्धमानसूरि (१४वीं शती) तं किंचिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयो॥ २/४४॥ | द्वारा रचित 'आचार दिनकर' नामक ग्रन्थ की प्रतिष्ठिाविधि मेरी जहाँ तक जानकारी है, दिगम्बर परम्परा में में निम्न दो श्लोक मिलते हैंकुन्दकुन्द प्रणीत मानी जानेवाली दस भक्तियों में श्रुतभक्ति | ॐ ह्रीं नमो भगवती ब्रह्माणि वीणा पुस्तक। तो है, किन्तु वह श्रुतदेवी सरस्वती की भक्ति है, यह | पद्माक्षसूये हंसवाहने श्वेतवर्णे इह षष्ठि पूजने आगच्छ॥ नहीं माना जा सकता है। श्रुतदेवयो' यह पद भी सर्वप्रथम पुनःसागारधर्मामृत में ही प्राप्त हो रहा है। मेरी दृष्टि से आचार्य श्वेतवर्णा श्वेतवस्त्रधारिणी हंसवाहना मल्लिषेण विरचित 'सरस्वती मन्त्रकल्प' उस परम्परा में श्वेतसिंहासनासीना चतुर्भुजा। सरस्वती उपासना का प्रथम ग्रन्थ है। मेरी दृष्टि में यह श्वेताब्जवीणालङ्कृता वामकरा ग्रन्थ बारहवीं शती के पश्चात् का ही है। पुस्तकमुक्ताक्षमालालडकृतदक्षिणकरो॥ जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा का प्रश्न है, मेरी (आचार्य दिनकर प्रतिष्ठाविधि) जानकारी में उसमें सर्वप्रथम 'सरस्वतीकल्प' की रचना जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, उस परम्परा आचार्य बप्पभट्टीसरि (लगभग १० वीं शती) ने की है। के ग्रन्थ 'प्रतिष्ठासारोद्धार' में सरस्वती के सम्बन्ध में यह कल्प विस्तार से सरस्वती की उपासनाविधि तथा | निम्न श्लोक उपलब्ध हैतत्सम्बंधी मंत्रों को प्रस्तुत करता है। आचार्य बप्पभट्टीसूरि वाग्वादिनी भगवति सरस्वती ह्रीं नमः, इत्यनेन का काल लगभग १०वीं शती माना जाता है। श्वेताम्बर | मूलमन्त्रेण वेष्टयेत। ओं ह्रीं मयूरवाहिन्यै नमः इति परम्परा में सरस्वती का एक अन्य स्तोत्र साध्वी शिवार्या | वाग्देवता स्थापयेत॥ (प्रतिष्ठासारोद्धार) का मिलता है, इसका नाम 'पठितसिद्ध सारस्वतस्तव' | दोनों परम्पराओं में मूलभूत अन्तर यह है कि है। साध्वी शिवार्या का काल क्या है? यह निश्चित रूप | श्वेताम्बर परम्परा में सरस्वती का वाहन हंस माना गया से ज्ञात नहीं है। इसके पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में | है, जबकि दिगम्बर परम्परा में मयूर। हंस विवेक का जिनप्रभसूरि (लगभग १३ वीं-१४ वीं शती) का श्री | प्रतीक है सम्भवतः इसीलिए श्वेताम्बर आचार्यों ने उसे शारदास्तवन मिलता है, यह आकार में संक्षिप्त है, इसमें | चुना हो। फिर भी इतना निश्चित है कि सरस्वती इन मात्र ९ श्लोक हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य श्री सरस्वती प्रतिमालक्षणों पर वैदिक परम्परा का प्रभाव है। साथ ही स्तोत्र उपलब्ध होता है, इसमें मात्र १७ श्लोक हैं। इसके | उससे समरूपता भी है। मथुरा से प्राप्त जैनसरस्वती की कर्ता भी अज्ञात हैं। इनमें बप्पभट्टीसूरि का 'सरस्वती | प्रतिमा में मात्र एक हाथ में पुस्तक है, जबकि परवर्ती कल्प' ही ऐसा है, जिसमें सरस्वती उपासना की समग्र | जैनसरस्वती मूर्तियों में वीणा प्रदर्शित है। पद्धति दी गई है। यद्यपि यह पद्धति वैदिक परम्परा से प्राच्य विद्यापीठ दुपाडा रोड, शाजापुर, म०प्र० जिनेन्द्र-कला-केन्द्र ३६५ नैत्र लेंस निशुल्क प्रदान करेगा जिनेन्द्र कला केन्द्र, भीलवाड़ा ने अपनी 'म्यूजिक फॉर मेन काइण्ड' योजना में निर्धन व्यक्तियों को ३६५ नैत्र लेंस, चश्मा व आवश्यक औषधियाँ भी निशुल्क देने का निर्णय लिया है, जिसके अंतर्गत मार्च, अप्रैल २००९ में लॉयन नेत्र चिकित्सालय व गणेश उत्सव सेवा समिति को १०० नेत्र लेंस आदि प्रदान किये गये हैं। इस योजना में संस्था सचिव श्री निहाल अजमेरा, श्री वीरेन्द्र कुमार झांझरी (नीमच), डॉ० श्रीमती कुसुम व डॉ० सुमन जैन ने २५ हजार रूपया भेंट देकर सेवा का अवसर प्राप्त किया। निहाल अजमेरा, सचिव जून 2009 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगोदिया जीव एवं आधुनिक विज्ञान डॉ० अशोक कुमार जैन, ग्वालियर जैनधर्म अध्यात्म-परक धर्म है जहाँ आत्मा की। इनमें किसी किसी के तो सम्पूर्ण अवयव साधारण ही होते शुचिता को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। इस शुचिता को | हैं। मूली, अदरक, आलू अरबी आदि सब मूल (जडें) प्राप्त करने के लिए जैन धर्मगुरुओं ने मनुष्य को संसार | साधारण हैं, अनन्त जीवों का निवास होने से यह साधारण की वास्तविकता का बोध कराने का हर संभव प्रयत्न किया | वनस्पति अनन्तकायिक भी कहलाती है। जिस प्रत्येक है। प्रकृति का शायद ही कोई ऐसा तत्त्व हो, जो जैन | वनस्पति के आश्रित निगोदिया जीव होते हैं, वह सप्रतिष्ठितमनीषियों के ज्ञान से अछूता रहा हो। जगत में स्थित जड़ | प्रत्येक कहलाती है। जिसके आश्रित साधारण या निगोदिया और चेतन का अत्यन्त तर्कसंगत, व्यवहारिक और व्यवस्थित | जीव नहीं रहते, वह अप्रतिष्ठित-प्रत्येक कहलाती है। वर्णन जैनधर्म में मिलता है। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, निगोदिया जीव सूक्ष्म और स्थूल (बादर) दो प्रकार के जल, अग्नि वायु और वनस्पति आदि जीवों से लेकर | होते हैं। सूक्ष्म निगोदिया जीव वे कहलाते हैं जो किसी अत्यन्त सूक्ष्म निगोदिया जीवों तक का वर्णन जैनआचार्यों | के द्वारा बाधित नहीं होते और न ही किसी को बाधा पहुँचाते ने किया है। हैं अर्थात् किसी के आश्रित नहीं रहते। इसलिए ये सर्वत्र आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से अभी तक ज्ञात | पाये जाते हैं। इन्हें इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जा सकता। बादर सूक्ष्मतम जीव जीवाणु (बैक्टीरिया) एवं विषाणु (वायरस) | (स्थूल) निगोदिया जीव बाधित होते हैं और बाधा भी हैं। निगोदिया जीवों की तरह यह भी जल, थल और नभ | पहुँचाते हैं, पर बादर (स्थूल) होने के बावजूद भी वास्तव में प्रत्येक स्थान पर मौजूद रहते हैं। माइक्रोप्लाज्मा भी | में ये भी इतने सूक्ष्म होते हैं कि सामान्य आँखों से दिखाई अत्यन्त सूक्ष्म जीव हैं। उक्त सूक्ष्म जीवों की तुलना जैनधर्म | नहीं पड़ते। इन साधारण कहे जानेवाले निगोदयिा जीवों में वर्णित निगोदिया जीवों से करने के विषय में गहन शोध | की अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग या उससे भी और अध्ययन की आवश्यकता है। सूक्ष्म होती है। निगोदिया जीवों के साथ मुश्किल यह है जैनधर्म में निगोदिया जीव-निगोदिया जीव एकेन्द्रिय कि एक ही निगोद शरीर में जीवों के आवागमन का प्रवाह जीव हैं। इन्हें वनस्पतिकायिक के अन्तर्गत रखा गया है | निरंतर चलता रहता है। अतः यह पता लगाना आसान नहीं हालॉकि इनका पृथक अस्तित्त्व भी है। होता है कि कब पुराने जीव मर गये और कब अनन्त जो अनन्तों जीवों को एक निवास दे, उसे निगोद | नये जीवों की उत्पत्ति हो गयी। निगोदिया जीवों का आकार कहते हैं। इस निगोद शरीर में बसनेवाले अनन्त जीवों को | आयत-चतुस्र और गोल दोनों प्रकार का माना गया है। निगोदिया जीव कहते हैं, निगोदिया जीवों को जानने के | जैनधर्म के अनुसार जीवों का जन्म तीन प्रकार से लिए वनस्पतिकायिक जीवों का वर्गीकरण भी जानना होता है- सम्मूर्छन-जन्म, गर्भ-जन्म और उपपाद जन्म। आवश्यक है। यह दो प्रकार का है इधर-उधर के परमाणुओं के मिलने से तथा विभिन्न प्रकार प्रत्येक वनस्पति- जिनमें प्रत्येक जीव का अलग- के वातवरण से जीता अपने योग्य शरीर बना लेता है, तो अलग शरीर होता है। इसे सम्मूर्छन जन्म कहते हैं। निगोदिया जीवों का सम्मूर्छन ___ साधारण वनस्पति- जिनमें अनन्त जीवराशि का | | जन्म ही होता है। एक ही शरीर होता है। उस शरीर में उन अनन्त जीवों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इन चार स्थावर जीवों के का जन्म, मरण, श्वास-नि:श्वास क्रिया आदि सभी कार्य शरीर तथा देव शरीर, नारकी शरीर, आहारक शरीर और एक साथ समान रूप से होते हैं। कच्ची या अपरिपक्व केवली का शरीर, इन आठ शरीरों में निगोदिया जीव नहीं अवस्था में सभी वनस्पत्तियाँ साधारण ही रहती हैं। किसी | होते हैं। शेष सब शरीरों में बादर-निगोद जीव होते हैं। मांस पेड़ की जड़ साधारण होती है, किसी के पत्ते साधारण | आदि में उत्पन्न होनेवाले निगोदिया जीव उसी मांस की होते हैं, किसी के फूल साधारण होते हैं, किसी के पर्व | जाति के होते हैं अर्थात् उस मांस का जैसा वर्ण, रस, गन्ध (गांठ) का दूध अथवा किसी के फल साधारण होते हैं।। है, उसी तरह के उसमें बादर-निगोद जीव पैदा होते हैं। 24 जून 2009 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पतिकाय में जो बादर-निगोद-जीव पैदा होते हैं, वे उस । हैं। वायरस का आकार अन्गस्ट्राम इकाई से मापा जाता वनस्पति के रूप-रस-गन्ध जैसे ही पैदा होते हैं। । है। एक अन्गस्ट्राम १/१००० माइक्रोन के बराबर होता है। जैनधर्म के अनुसार यदि जीव अपनी शारीरिक | किसी भी परपोषी कोशिका में लाखों वायरस लम्बे समय संरचना पूर्ण करने में सक्षम होता है, तो उसे पर्याप्तक | तक बिना प्रत्यक्ष रूप से अपनी उपस्थिति बनाए रह सकते कहते हैं और जब वह अपनी शारीरिक संरचना पूर्ण करने | है। की क्षमता से रहित होता है और शारीरिक संरचना पूर्ण माइक्रोप्लाज्मा- माइक्रोप्लाज्मा का शरीर अति सूक्ष्म होने से पूर्व ही मर जाता है, तब उसे लब्ध्यपर्याप्तक कहते | होता है। इनकी कोशिका की लम्बाई जीवाणु कोशिका के हैं। निगोदिया जीव दोनों प्रकार के होते हैं पर्याप्तक और | दसवें भाग के बराबर तथा व्यास ०.५ माइक्रोन से भी कम लब्ध्यपर्याप्तक। | होता है। ये जीव अभी तक हुई जीवविज्ञान की खोज में आधुनिक विज्ञान में सक्ष्म जीव सबसे छोटे आकार के हैं, जो अनकल वातावरण में स्वतंत्र आधुनिक जीवविज्ञान में सूक्ष्म जीवों का अत्यन्त | रूप से जीवित रह सकते हैं। महत्त्व है। प्रकृति के विभिन्न प्रकार के वातावरण में पाये | निगोदिया जीव और जीवाणु, (बैक्टीरिया), जानेवाले, विविध रोग फैलानेवाले, लाभप्रद या हानिकारक | विषाणु (वायरस) एवं जैनधर्म और आधुनिक वैज्ञानिक सूक्ष्म जीवों की शारीरिक संरचना एवं क्रियाविधि का | खोजों में माइक्रोप्लाज्मा में समानताएँविस्तृत अध्ययन होने से ही मानव ने अनेक क्षेत्रों में प्रगति | १. बैक्टीरिया और वायरस आदि सूक्ष्म जीवों की तरह की है। यह सूक्ष्म जीव मुख्यत: तीन प्रकार के होते हैं- निगोदिया जीव भी वातावरण में सर्वत्र पाये जाते जीवाणु, (बैक्टीरिया), विषाणु (वायरस) एवं माइक्रोप्लाज्मा। जीवाणु (बैक्टीरिया)- जीवाण या बैक्टीरिया आधुनिक सूक्ष्म जीवों की तरह निगोदिया जीव भी एककोशीय सूक्ष्म जीव होते हैं। सामान्यतः ये गोलाकार, अनन्त होते हैं एवं एक ही पोषक कोशिका या दण्डाकार या स्पायरल होते है। बैक्टीरिया सामान्यतः सम्पूर्ण शरीर में रहते हैं। वायरस प्रायः निष्क्रिय कॉलोनी बना कर (गुत्थे के गुत्थे) रहते हैं, जिसमें ये एक ही रहते हैं, परन्तु किसी बैक्टीरिया के शरीर में दूसरे से जुड़े रहते हैं। जीवाणुओं का आकार ०.१ माइक्रोन पहुँच कर वह सक्रिय हो जाते हैं और उसी शरीर से १० माइक्रोन तक होता है। एक माइक्रोन एक मिलीमीटर मे निवास करते हैं। के हजारवें हिस्से के बराबर होता है। अधिकांश जीवाणु | ३. जिस तरह सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति के आश्रित परपोषी होते हैं अर्थात् अपना भोजन अन्य कार्बनिक पदार्थ अनन्त साधारण या निगोदिया जीव पाये जाते हैं, या जीवित जीवों से प्राप्त करते हैं। स्वयंपोषी जीवाणु अपना उसी तरह हजारों आधुनिक वनस्पतियाँ हैं, जिनकी भोजन जल कार्बनडाय-ऑक्साइड आदि से स्वयं बना लेते जड़ तना, कंद या फल फूलों में बैक्टीरिया या हैं। जीवाणुओं में श्वसन क्रिया होती है और प्रजनन-वर्धी वायरस का निवास होता है। कई अति सूक्ष्म प्रजनन, अलैंगिक या लैंगिक प्रजनन के रूप में होता है। वनस्पतियाँ जैसे कि एल्गी (काई) आदि के आश्रित विषाणु ( वायरस)-विषाणु या वायरस का आकार अनन्त बैक्टीरिया पाये जाते हैं, जो जैनधर्म में वर्णित बैक्टीरिया से भी छोटा होता है। इनके स्वयं के कोई साधारण वनस्पति के समान जान पड़ती हैं। वैसे कोशिका नहीं होती है बल्कि ये किसी अन्य कोशिका में भी आधुनिक वैज्ञानिकों ने जीवाणु या बैक्टीरिया घुसकर प्रजनन करते हैं। प्रायः वायरस स्वतंत्र दशा में को पौधों के वर्ग में ही रखा है। अक्रिय रहते हैं, क्योंकि इनके पास अपना उपापचय तंत्र | ४. बैक्टीरिया की अनेक प्रजातियों के समान निगोदिया नहीं होता है। जब वे अपना न्यूक्लिक अम्ल परपोषी जीव भी गोलाकार होते हैं। वायरस तो निगोदिया कोशिका में अन्तक्षेपण करते हैं, तो यह क्रियाशील होकर जीवों के समान, आयताकार और गोलाकार दोनों परपोषी कोशिका की उपापचयी क्रिया पर नियंत्रण कर प्रकार के होते हैं। लेते हैं। वायरस सुई या डण्डे के आकार के, आयताकार, जैनधर्म के अनुसार बोने के अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त सभी गोलाकार, बहुभुजीय या चतुष्कोणीय रवों के समान होते | वनस्पतियाँ अप्रतिष्ठित होती हैं। बाद में निगोदिया - जून 2009 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ७. जीवों के निवास बना लेने से सप्रतिष्ठित हो जाती हैं। आधुनिक वनस्पति विज्ञान में फली, दाल, मटर, आदि के पौधों के बीजों को बोने के उपरान्त जैसे ही पौधा बड़ा होने लगता है, इसकी जड़ों के छोटी-छोटी गाँठे बन जाती हैं एवं इन गाँठों में बैक्टीरिया अपना निवास बना लेते हैं । । आधुनिक बैक्टीरिया और वायरस की तरह निगोदिया जीव भी इतनी तीव्र गति से जन्म लेते हैं एवं वृद्धि करते हैं कि यह देख पाना असंभव हो जाता है कि कौन सा जीव नया है ओर कौन सा पुराना जिस प्रकार एक शरीर में निगोदिया जीव एक साथ ही जन्म-मरण, श्वासोच्छ्वास एवं अन्य क्रियाएँ करते हैं, उसी तरह अधिकांश बैक्टीरिया एवं वायरस की गतिविधियाँ भी समान रूप से चलती हैं। अधिकांश बैक्टीरिया वर्धी या अलैंगिक प्रजनन १ 1 मैं हूँ वो नहीं जो तुम्हें दिख रहा हूँ। परे ही रहा हूँ ॥ मैं वो नजर से न जाने कहाँ से यहाँ आ गया हूँ जो चेतन हूँ तन में समा क्यों गया हूँ मैं बन्धन से मुक्ति को अब पा रहा हूँ मैं हूँ वो नहीं २ सभी की तरह थी मेरी जो भी हसरत नहीं मुझको उनकी रही जब जरूरत मैं तब से ही अपने में सुख पा रहा हूँ. मैं हूँ वो नहीं ..... 26 जून 2009 जिनभाषित ८. करते है। यही गुण निगोदिया जीव में भी पाया जाता है। सभी निगोदिया सम्मूर्छन जन्म वाले हैं। आधुनिक सूक्ष्म जीवों और निगोदिया जीवों में अन्य बड़े जीवों की तरह तंत्रिका तंत्र ( नर्वस सिस्टम) नहीं होता, यह गुण उनके समान रूप से एकेन्द्रिय होने का संकेत देता है। मैं हूँ वो नहीं... निगोदिया जीवों में जो लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं उनके जन्म मरण का काल अत्यंत अल्प है, परन्तु बैक्टीरिया या वायरस आदि के बारे में विज्ञान में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता। क्या वास्तव में बैक्टीरिया या वायरस आदि जीव भी निगोदिया जीव हैं? इस विषय पर गहन विचार और शोध की आवश्यकता है। इतना अवश्य है कि जैनआचार्यों द्वारा वर्णित सूक्ष्मतम जीव, निगोदिया हैं एवं आधुनिक जैव-वैज्ञानिकों द्वारा खोजे गये सूक्ष्मतम जीव बैक्टीरिया, वायरस एवं माइक्रोप्लाज्मा हैं। ३ कठिन राह पर भी मैं आसान क्यों हैं समझ कर भी सब कुछ मैं अनजान जो हूँ जो पाया न अब तक वो अब पा रहा मैं हूँ वो नहीं मुनि श्री प्रणम्य सागर जी **** ये एहसास कैसा मुझे हो रहा है जो मुझको ही केवल समझ आ रहा है मैं अपने को अपने में ही पा रहा हूँ मैं हूँ वो नहीं मेरे बाद भी लोग आएँगे ऐसे जो पूछेंगे जग में जिए तुम थे कैसे .... मैं इस बार मर कर भी मर ना रहा हूँ मैं हूँ वो नहीं....... Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान बदलती पुस्तकें डॉ० कपूरचंद जैन हाल ही में अपने एक परिचित के यहाँ जाना हुआ।| रही है। धार्मिक पुस्तकें बार-बार अपना स्थान बदल रहीं पिछले ४० वर्ष से, उनके घर आता-जाता रहा हूँ। पुरानी | हैं और बाहर होती जा रहीं हैं। हमारे शहर के 'वर्धमान परम्परा के पण्डित, घर के हर आले, मध्यम मेज, सब जैनसंघ' के कुछ नौजवानों ने एक प्रयोग किया। उन्होंने जगह पुस्तकें ही पुस्तकें रहती थीं। पुस्तकें भी विभिन्न | शहर के सभी ०९ मंदिरों में टिन के बड़े-बड़े बक्से रख प्रकार की जिनवाणी, नाममाला, तत्वार्थसूत्र, क्षत्र-चूडामणि, | दिये और उन पर लिख दिया कि 'अपने घर की अनुपयोगी रत्नकरण्डश्रावकाचार. पंचतंत्र. हितोपदेश. लघकौमदी आदि। | धार्मिक पुस्तकें, भगवान् के फोटो आदि इसमें डाल देवें घर के मुख्य कक्ष में लकड़ी की एक अलमारी, अलमारी जिससे उनका अविनय न हो। थोड़े ही दिनों में सभी बक्से के नीचे के दो खण्डों में पूजा के बर्तनों के सेट, हवनकुण्ड, | भर गये, अधिकांश पुस्तकें ही इनमें थीं। इससे ज्ञात होता धोती दुपट्टा आदि। पं० जी विवाह शादी, गृह प्रवेश के है कि लोग अपने घर में धार्मिक साहित्य रखना ही नहीं अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के विधान आदि करवाते थे, सो | चाहते, अधिक हुआ, तो जिनवाणी की एक पुस्तक घर ये चीजें जरूरी थीं। अलमारी के ऊपर के खण्डों में वही | में रख लेते हैं। पुस्तकें ही पुस्तकें, बेतरतीव ढंग से रखी हुईं, सर्वार्थसिद्धि | आज इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेन्ट का जमाना से लेकर पूजा के गुटके तक। है। टी०वी०, कम्प्यूटर, इन्टरनेट के प्रति आकर्षित युवाअब की बार गया, तो नजारा बिल्कुल बदला हुआ वर्ग को, इसके सिवा कहीं भविष्य दिखाई नहीं देता। आज था। बैठक कक्ष में कहीं कोई धार्मिक पुस्तक दिखाई नहीं राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी आदि दे रही थी। लकड़ी की अलमारी भी नहीं थी। आलों में | | मानविकी और समाज विज्ञान विषयों में विद्यार्थियों की या तो प्लास्टिक के फूलोंवाले गुलदस्ते थे या इंजीनियरिंग, | संख्या घटी है, फिर धार्मिक शिक्षा का, तो कहना ही क्या। मैनेजमेंट आदि की पुस्तकें । मध्य टेबिल पर भी बेतरतीव | पाठशालाएँ दम तोड़ चुकी हैं, शिविर भी अनेकबार ढंग से रखीं वही इंजीनियरिंग आदि की पुस्तकें। राजनीति के शिकार हो जाते हैं। एक कमी यह भी है कि घर में बैठकर आधा घण्टे सुख-दुख, बच्चों-बड़ों, | नई पीढ़ी के अनुरूप धार्मिक-साहित्य का लेखन/प्रकाशन शादी-विवाह, पढ़ने-लिखने, सेमिनार सम्मेलन, परिषद्- नहीं हो पाया है। संघों आदि की बातें हुईं। समय बीतता जा रहा था, बुभुक्षा आज हमारे घर धार्मिक साहित्य से शून्य बनते जा भी दस्तक दे रही थी. सो जल्दी से फ्रेश होकर नहा- | रहे हैं। जैनआचार्यों ने, तो यहाँ तक कहा है कि, जिस धोकर घड़ी देखी, तो साढ़े बारह बज गये थे। मंदिर तो | घर में जिनवाणी नहीं, वह घर श्मशान के समान है। वैदिक साढ़े ग्यारह बजे ही बन्द हो जाता है। सोचा पाठ और | साहित्य के 'भूत शुद्धि तन्त्र' ग्रन्थ में इसी प्रकार के भाव सामायिक कर लें शाम को सभी मंदिर चलेंगे। देखा तो | को व्यक्त करता श्लोक हैघर में कहीं जिनवाणी नहीं मिली। पूछा तो पं० जी की | पुस्तकं च महेशानि, यद् गृहे विद्यते सदा। बड़ी बहू बोली शायद पापा जी के कमरे में रखी होगी, काश्यादीनि च तीर्थानि, सर्वाणि तस्य मंदिरे॥ यहाँ की सभी पुस्तकें पापा जी के कमरे में रख दी गईं प्रश्न यह है कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाये? पाठक भी पूछ सकते हैं कि हम क्या करें? उत्तर यही पण्डित जी के कमरे में देखा, तो वहाँ भी जिनवाणी दिया जा सकता है कि हमारे पूज्य मुनिराज, आर्यिका नहीं थी। पं० जी के कमरे में भी पोता आकर सोने लगा | माताएँ, विद्वान्, साधक, समाजसेवी लोगों को प्रेरणा देवें था, उसने ज्यादातर पुस्तकें तो रद्दी में बेच दी थीं, पं० | कि अपने घर में कम से कम जिनवाणी की एक पुस्तक जी के प्रतिवाद करने पर जो बची थीं, उन्हें बाथरूम के | उच्च स्थान पर अवश्य विराजमान करें। साथ ही नैतिक ऊपर टांड (दुछत्ती) पर रख दिया गया था। आचरण की प्रेरणा देनेवाला लोकोपयोगी साहित्य और आज कमोवेश यही स्थिति प्रायः सर्वत्र दिखाई दे | अपनी संस्कृति को दिग्दर्शित करनेवाली पस्तकें घर में थीं। जून 2009 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूर रखें। यदि एक बच्चे में भी पढ़ने की ललक जाग । जिनवाणी को पढ़ेंगे ही। दिल्ली में लाल मंदिर, मुम्बई में गई, तो आपका श्रम सार्थक होगा। स्मरण रखें, जिस घर | भूलेश्वर, कोलकत्ता में बड़ा मंदिर जी, इंदौर में पंचबालयति में जिनवाणी विराजमान होती है, वहाँ की अनेक आपदायें | मंदिर जैसे अनेक बड़े और मध्यम शहरों में लगभग सभी स्वयं टल जाती हैं। विद्वानों के संगठन भी आज की नौजवान | तीर्थक्षेत्रों पर पुस्तक विक्रय केन्द्र हैं। छोटे शहरों में जहाँ पीढ़ी के अनुरूप साहित्य के प्रकाशन में अग्रसर हों, तो नहीं हैं वहाँ मंदिर जी में जिनवाणी समुचित मूल्य पर मिलने एक बड़ी उपलब्धि होगी। की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए। इस फीचर को पढ़कर पाठक बन्धु भी किसी के घर गये हों और वहाँ | यदि एक भी नौजवान के भाव जिनवाणी को पढ़ने और जिनवाणी न देखी हो, तो अगली बार उसके घर जायें, | उसे घर में विराजमान करने के हए, तो हम अपना श्रम तो एक जिनवाणी की पुस्तक उपहार स्वरूप अवश्य ले | सार्थक समझेंगे। जायें, आपको श्रुतभक्ति का पुण्य मिलेगा, वे भी इस उपहार अध्यक्ष, संस्कृत विभाग को पाकर प्रसन्न हो जायेंगे और कभी न कभी तो, उस श्री कुन्दकुन्द जैन पी० जी० कॉलेज, खतौली- २५१५२०१ (उ०प्र०) जैन ऐतिहासिक दस्तावेजों का प्रकाशन होगा खतौली ऐतिहासिक महत्त्व के जैन दस्तावेजों के प्रकाशन की महती और बहुप्रतीक्षित योजना 'सर्वोदय फाउण्डेशन, खतौली एवं श्रीमती दक्खाबाई जैन शैक्षणिक एवं पारमार्थिक लोक कल्याण ट्रस्ट, झांसी' द्वारा शीघ्र पूर्ण की जायेगी। शोध और अध्ययन के दौरान यह देखने में आया है कि अनेक दस्तावेजों का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु वे प्रामाणिक रूप में उपलब्ध नहीं हो पाते। ऐसे दस्तावेज व्यक्तिविशेष के साथ नष्ट हो जाते हैं। यह भी होता है कि कोई दस्तावेज एक व्यक्ति की दृष्टि में महत्त्वपूर्ण होता है, वही दस्तावेज दूसरी पीढ़ी / व्यक्ति / विद्वान् आदि की दृष्टि में महत्त्वपूर्ण नहीं होता, फलतः या तो वह नष्ट कर दिया जाता है या किसी काल-कोठरी में पड़ा हुआ किसी अन्वेषक की राह देखता है। स्वतंत्रता संग्राम में जैनों के योगदान विषयक अनेक पत्रों की हमें आज भी तलाश है। ऐसी स्थिति में यदि आज उपलब्ध दस्तावेजों का पुनः प्रकाशन कराया जा सके, तो यह ऐतिहासिक धरोहर सुरक्षित रह सकेगी, और आवश्यकता पड़ने पर प्रमाण के रूप में काम करेगी। इसी भाव को ध्यान में रखकर यह योजना बनाई गई थी, तथा तीन-चार वर्षों से सामग्री का संकलन किया जा रहा था। सर्वोदय फाउण्डेशन के अध्यक्ष डॉ० कपूरचंद जैन एवं श्रीमती दक्खाबाई जैन शैक्षणिक एवं पारमार्थिक लोक कल्याण ट्रस्ट, झांसी के अध्यक्ष श्री सुमत कुमार जैन, सी० ए० ने सभी पाठकों/पूज्य मुनिराजों/ आर्यिका माताओं/ ब्रह्मचारियों/अन्य साधक-साधिकाओं/शोधकर्ताओं/विद्वानों/समाजसेवियों/ प्रबुद्ध श्रावकों/इतिहासविदों/ जैन संस्कृति प्रेमियों/ विद्वत् संस्थाओं/ सामाजिक संगठनों/शोध संस्थानों से विनम्र अनुरोध और करबद्ध प्रार्थना की है कि समय-समय पर जारी जैनधर्म संस्कृति अहिंसा विषयक राजाज्ञाओं/ विभिन्न न्यायालायों द्वारा दिये गये निर्णयों/समाज की पंचायतों द्वारा निपटाये गये लिखित प्रामाणिक मामलों/जैन सांस्कृतिक विरासत से सम्बन्धित दस्तावेजों / महत्त्वपूर्ण पत्रों / महत्त्वपूर्ण लेखों/ पुस्तकों की भूमिकाओं या आपकी दृष्टि से सुरक्षित रखे जाने योग्य प्रामाणिक दस्तावेजों, फोटोग्राफ्स आदि की जानकारी देकर तथा उन्हें भेजकर अनुगृहीत करें। जिन महानुभाव के सौजन्य से दस्तावेज प्राप्त होंगे उनका साभार नामोल्लेख किया जायेगा। इसमें किसी प्रकार का व्यय भी हम वहन करेंगे। विनम्र निवेदक डॉ० श्रीमती ज्योति जैन, मंत्री सर्वोदय फाउण्डेशन द्वारा सर्वोदय, जैन मण्डी, खतौली-२५१२०१ (उ.प्र.) फोन- ०१३९६-२७३३३९, ९४१२६७८२५६ ई-मेल : dijainkc@yahoo.com 28 जून 2009 जिनभाषित - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशावादिता - डॉ० सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' मैंने बचपन में सुना था कि आशा पर आसमान । आशा जीवन का संदेश देती है, नयी संरचना के लिए टिका होता है। यह बात बहुत हद तक सही प्रतीत | वातावरण सृजित करती है और संतोष को परम धन होती है। हमारे सुख का कारण आज तो है ही, लेकिन | माना गया है क्योंकि संतोषी प्राणी कदाचित् हानि भी बेहतर कल की आशा भी इसमें सहायक होती है। जिसके | हो जाय, तो दुःखी नहीं होता, बल्कि जिससे उसे हानि मन में आशा की डोर टूट जाती है वह निराश, हताश | | ना हो, ऐसा चिन्तन एवं कार्य करता है। हो विकास के पथ से विरत हो जाता है। ऐसा स्थिति आशा सामान्य भाव है, जिसमें आकर्षण है, जबकि में वह कभी विकास के पथ पर आ ही नहीं सकता | तृष्णा में विकर्षण है क्योंकि तृष्णा और तृष्णा को बढ़ाती अतः भारतीय मनीषियों का चिन्तन है कि सब कुछ। है। वह न स्वयं खाने देती है और जिन्हें जरूरत है छूट जाये, तो कुछ नहीं बिगड़ेगा किन्तु आशा नहीं टूटना | | उन्हें सहयोग भी नहीं करने देती। वास्तव में सुनियोजित चाहिए। तरीकों से पदार्थों का संचय ही उचित नहीं कहा, बल्कि आज के संसार में दु:ख अधिक दिखाई देते हैं, उन संचित पदार्थों का सुनियोजित तरीके से व्यय करना इसके लिए कहीं न कहीं हमारी सोच भी दोषी हो सकती | भी आना चाहिए। आय और व्यय दोनों ही स्थितियों है। जब सुख की समस्त सामग्रियाँ हमारे आसपास विद्यमान | में शुभ का योग होना चाहिए, हमारे पास जो आय हो हैं, तो प्रश्न उठता है कि यह दु:ख क्यों? तो यही उत्तर | वह भी शुभ तरीकों से हो, न्यायोपात्त हो और जो व्यय . मिलता है कि हमारी समस्याओं का प्रमुख कारण वस्तु हो वह भी शुभ कार्यों में हो, तो सोने में सोहागा जैसी या पदार्थों का अभाव नहीं बल्कि उनके संचय करने स्थिति बनती है। आनन्द का अक्षय स्रोत हमारे अंदर की प्रवृत्ति और तृष्णाभाव है। जहाँ तृष्णा है, वहाँ अतृप्ति छिपी प्रबल, किन्तु सहज आशावादिता में है। सुप्रभात स्वाभाविक है, ऐसा मानना चाहिए। | होते ही चिड़ियाँ चहचहाती हुईं, प्रभाती गातीं हुईं अपने हमारे सामने तीन स्थितियाँ होती हैं एक आशा | लिए भोजन की तलाश में निकल पड़ती हैं। उन्हें पता की जिसमें हम मन से चाहते हैं और मुख से माँगते | भी नहीं होता कि भोजन कहाँ है, किन्तु वे यह जानती हैं, दूसरी वह जिसमें हम मन से तो चाहते हैं, किन्तु | हैं कि आगे बढ़ो, तो भोजन अवश्य मिलेगा। आशा का मुख से नहीं माँगते। यह स्थिति संतोष की होती है। यह आंतरिक प्रवाह उन्हें ही आनन्दित नहीं करता अपितु नीतिकार कहते भी हैं कि उनके आनंद को सुनकर और देखकर दूसरे भी आनन्दित गोधन गजधन वाजिधन और रतन धन खानि।। होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि आशावादिता ही आनंद जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समानि॥ | की कुंजी है। क्यों न इससे हम निराशा के ताले को तीसरी स्थिति वह होती है, जिसमें व्यक्ति न मन | खोलें और लक्ष्य प्राप्तिरूपी महल में प्रवेश करें। क्या से माँगता है और न मुख से चाहता है, यह स्थिति | आप ऐसी आशावादिता के लिए तैयार हैं? तृप्त व्यक्ति की होती है, जिन्हें हम महापुरुषों की कोटि एल-६५, न्यू इंदिरा नगर, में रखते हैं। प्रथम आशावादी एवं द्वितीय संतोषी प्राणी बुरहानपुर, म०प्र० हम और आप होते हैं। हमें ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि । यह मुमकिन है कि लिक्खी हो कलम ने फ़तह आखिर में। जो हैं अहबाबे-हिम्मत, गम नहीं करते शिकस्तों में। -शाद अजीमाबादी हाँ, हाँ मगर ये दोस्त, तु तदबीर किये जा। यह भी तेरी तकदीर के दफ्तर में लिखा है। -दत्तात्रिय कैफ़ी जून 2009 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं० रतनलाल बैनाड़ा १. प्रश्न- विकलत्रय जीव म्लेच्छ खण्डों में तथा । अयर्याप्तकों की उत्पत्ति होती है। अर्थात् कोई बैरी देव भोगभूमियों में पाये जाते हैं अथवा नहीं? | किसी पंचेन्द्रिय तिर्यंच को भोगभूमि में ले जाकर पटक समाधान- सभी भोगभूमियों में विकलत्रय जीव नहीं | दे, तो उसके शरीर में विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती पाये जाते हैं, जैसा श्री धवला पु०४, पृष्ठ-३ पर इस प्रकार | हुई देखी जाती है। कहा है जिज्ञासा- विक्रियाऋद्धिधारी मुनि महाराज पृथक् मानुषोत्तरपर्यन्ता जन्तवो विकलेन्द्रियाः। विक्रिया कर सकते हैं या नहीं? अन्त्यद्वीपार्द्धतः सन्ति परस्तात्ते यथा परे॥ ६३३॥ समाधान- टोडरमल स्मारक जयपुर द्वारा प्रकाशित इस ओर विकलेन्द्रिय जीव मानुषोत्तर पर्वत तक ही | सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, प्रथम खण्ड, पृष्ठ ३९८ पर गाथा नं० रहते हैं। उस ओर स्वयम्भरमण द्वीप के अर्ध भाग से लेकर | २६० की टीका में कहा गया है- 'भोगभूमि विर्षे उपजे अन्त तक पाये जाते हैं। अर्थात् बीच के असंख्यात द्वीप | तिर्यंच व मनुष्य अर कर्मभूमि विर्षे चक्रवर्ती पृथक विक्रिया समुद्रों में विकलत्रय जीव नहीं पाये जाते। | को भी करें है। इन बिना सर्व कर्म भूमियानि के अपृथक २. सिद्धान्तसारदीपक, (भट्टारक सकलकीर्ति | विक्रिया ही है।' इस कथन के अनुसार चक्रवर्ती के अलावा विरचित) के अधिकार-१० श्लोक नं० ४०४ में इस प्रकार | पृथक् विक्रिया अन्य कोई कर्मभूमि का मनुष्य नहीं कर कहा है सकता अर्थात् विक्रिया ऋद्धिधारी मुनि भी पृथक् विक्रिया शेषासंख्यसमुद्रेषु मत्स्याद्या जातु सन्ति न। नहीं कर सकते हैं। परन्तु यह कथन आगमसम्मत नहीं भोगक्ष्मामध्यभागे स्थितेषु द्वयक्षादयो न वा॥ अर्थ- शेष असंख्यात समुद्रों में मत्स्य आदि जीव | विक्रियाऋद्धिधारी मनिराज एक साथ अनेक आकार कभी भी नहीं पाये जाते। भोगभूमि क्षेत्रों में द्वीन्द्रिय आदि बनाने की सामर्थ्य रखते हैं। राजवार्तिक ३/३६ की टीका जीव पैदा नहीं होते हैं। में, कामरूपित्व ऋद्धि का स्वरूप इस प्रकार कहा है३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा १४२ में इसप्रकार कहा | 'युगपदनेकाकाररूपविकरणशक्तिः कामरूपित्वहै मिति' वि-ति-चउक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्म-भूमीसु। अर्थ- एक साथ अनेक आकाररूप विक्रिया करने चरिमे दीवे अद्धे चरमसमुद्दे वि सव्वेसु॥ १४२॥ | की शक्ति का नाम कामरूपित्व ऋद्धि है। अर्थ- दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय और चौ इन्द्रिय जीव | तिलोयपण्णत्ति ४/१०३२ में इस प्रकार कहा हैनियम से कर्मभमि में ही होते हैं। तथा अन्त के आधे द्वीप | जं हवदि अद्विसत्तं अंतदधा में और अन्त के सारे समुद्र में होते हैं। जुगवें बहुरूवाणि जं विरयदि कामरूवरिद्धी सा॥१०३२॥ उपर्युक्त सभी प्रमाणों के अनुसार विकलेन्द्रिय जीव अर्थ- जिस ऋद्धि से अदृश्यता प्राप्त होती है, वह ढाई द्वीप की समस्त कर्मभूमियों में तथा अन्तिम स्वयं | अन्तर्धान नामक ऋद्धि है और जिससे युगपद बहुत से रूपों भूरमण द्वीप के अर्ध भाग से लेकर स्वयंभूरममण समुद्र | को रचता (बनाता) है, वह कामरूप ऋद्धि है। पर्यन्त तक पाये जाते हैं। म्लेच्छ खण्ड कर्मभूमि के अन्तर्गत उपर्युक्त आगम प्रमाणों से स्पष्ट है कि विक्रियाऋद्धिही आते हैं। अतः समस्त आर्यखण्डों में, म्लेच्छ खण्डों | धारी मुनि महाराज पृथक् विक्रिया करने की और एक साथ में, विजया पर्वत की नगरियों में तथा विदेहक्षेत्र आदि | अनेक रूप बनाने की सामर्थ्य रखते हैं। में विकलत्रय जीव पाये जाते हैं। प्रश्नकर्ता- सौ० ज्योति लुहाड़े, कोपरगाँव। मानुषोत्तर पर्वत के पर भाग से लेकर स्वयंभूरमण जिज्ञासा- उद्वेलना किसे कहते है? उद्वेलना द्वीप के अर्ध भाग तक जघन्य भोगभूमि है, उससे यद्यपि | किन-किन कर्म प्रकृतियों की तथा किन जीवों के द्वारा विकलत्रय जीव नहीं पाये जाते हैं, परन्तु श्री धवला पु० | की जाती है? ७, पृष्ठ ३९७ के अनुसार पूर्व वैरी के प्रयोग से भोगभूमि समाधान- उद्वेलना-संक्रमण की परिभाषा इसप्रकार प्रतिभाग रूप द्वीपसमुद्रों में पड़े हुए तिर्यंच शरीरों में त्रस | है- 'जिस प्रकार रस्सी को बल देकर बँटा था, पुन: बँट 30 जून 2009 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को खोल दिया, उसीप्रकार जिन प्रकृतियों का पूर्व में बंध । अधिकतम १२ वर्ष है। इसमें आराधक, आत्मा के अलावा किया था, उनको फल अर्थात् उदय में आने से पूर्व ही समस्त पर वस्तुओं से रागद्वेष आदि छोड़ता है और अपने अपकर्षण करके अन्य प्रकृतिरूप परिणमाकर नाश कर | शरीर की सेवा स्वयं भी करता है और दूसरों से भी कराता देना उद्वेलना संक्रमण है। जो जीव जिस समय उन | है। जिस दिन बारह वर्ष का काल पूरा होता है, उस दिन प्रकृतियों को नहीं बाँध रहा होता है और ना ही उनको | के उपरान्त मरण पर्यन्त तक चारों प्रकार के आहार का बाँधने की उस समय उसमें योग्यता होती है, उन ही | त्याग करता है। इसके दो भेद हैंप्रकृतियों की उद्वेलना होती है। उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ १.सविचार भक्तप्रत्याख्यान- इसमें आराधक अपने संघ को छोड़कर दूसरे संघ में जाकर सल्लेखना ग्रहण करता आहारकद्विक, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यक्मिथ्यात्व | है। यह सल्लेखना बहुत काल वाद मरण होने तथा शीघ्र प्रकृति, देवद्विक (देवगति, देवगत्यानुपूर्वी), नरकद्विक, | मरण न होने की हालत में विचारपूर्वक उत्साह-सहित मनुष्यद्रिक, वैकियिकद्विक (वैकियिक-शरीर वैकियिक | धारण की जाती है। आंगोपांग), उच्च गोत्र। २. अविचार भक्तप्रत्याख्यान- जिस आराधक की इन प्रकृतियों की उद्वेलना सामान्यतः मिथ्यादृष्टि | आयु अधिक नहीं है और शीघ्र मरण होने वाला है, तथा जीव ही करते है। विशेष इस प्रकार है- १. आहारक द्रिक | दूसरे संघ में जाने का समय नहीं है और शक्ति भी नहीं की उद्वेलना कोई भी संयमी मुनि, असंयम को प्राप्त होकर | है, वह मुनि यह सल्लेखना ग्रहण करता है। इसके तीन अन्तमुहूर्त में प्रारंभ कर देता है। और जब तक वह असंयत भेद कहे गये हैंहै, और जब तक सत्कर्म से रहित है तब तक उद्वेलना (अ) निरुद्ध- दूसरे संघ में जाने की पैरों में सामर्थ्य करता रहता है। न रहे, शरीर थक जाये, अथवा घातक रोग, व्याधि या २.सम्यमिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति की उद्वेलना | उपसर्ग आदि आ जाये और अपने संघ में ही रुक जाए, कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त होते ही उस हालत में मुनि इस समाधिमरण को ग्रहण करता है। प्रारम्भ कर देता है। यदि उसकी सल्लेखना विख्यात हो जाती है तो प्रकाश ३. देवद्विक, नरकद्विक तथा वैकियिकद्विक इन | कहलाती है और यदि विख्यात नहीं होती है तो अप्रकाश प्रकृतियों की उद्वेलना एकेन्द्रिय व विकलत्रय जीव करते कहलाती है। हैं, क्योंकि उनके इन प्रकृतियों का न तो उदय है और (आ) निरुद्धतर- सर्प, अग्नि, व्याध्र आदि पशु, न बन्ध होता है। | व्यंतर तथा दुष्ट पुरुषों आदि के द्वारा मरण समय उपस्थित ४. मनुष्यद्विक तथा उच्चगोत्र की उद्वेलना हो जाने पर आयु का अन्त जानकर निकटवार्ती आचार्य अग्निकायिक व वायुकायिक जीव करते हैं। क्योंकि उनके आदि के समीप अपनी निन्दा, गर्हा आदि करता हुआ शरीर इन प्रकृतियों का न तो उदय है और न बंध ही संभव त्याग करता है, तो उसे निरुद्धतर अविचार भक्तप्रत्याख्यान समाधिमरण कहते हैं। विशेष जानकारी के लिए गोम्मटसार कर्मकाण्ड का (इ) परमनिरुद्ध- सर्प, सिंह आदि के भीषण उपद्रव आने पर वाणी रुक जाये, बोल न निकल सके, उद्वेलना प्रकरण पढ़ने योग्य है। जिज्ञास-सल्लेखना के भेद अच्छी प्रकार समझाइयें? ऐसे समय में मन में ही अरहन्तादि पंचरमेष्ठियों के प्रति अपनी आलोचना करता हुआ साधु शरीर का त्याग करता समाधान- उपर्युक्त जिज्ञासा का समाधान भगवती है, उसे परमनिरुद्ध अविचार भक्त प्रत्याख्यान सल्लेखना आराधना आदि ग्रन्थों के अनुसार यहाँ दिया जा रहा है। कहते हैं। सल्लेखना मरण तीन प्रकार का बताया गया है (उ) इंगिनी- जिस संल्लेखना में क्षपक अपने शरीर १. भक्तप्रत्याख्यान २. इंगिनी ३. प्रायोपगमन की परिचर्या स्वयं तो करता है, पर दूसरों से नहीं कराता १. भक्तप्रत्याख्यान- जिस सल्लेखना में अन्न-पान को कम करते हुए धीरे-धीरे छोड़ा जाता है, उसे भक्त है, उसे इंगिनीमरण कहते हैं। इसमें क्षपक स्वयं ही उठता है, स्वयं ही बैठता है, स्वयं ही लेटता है और अन्य समस्त प्रत्याख्यान कहते हैं। इसका न्यूनतम काल अन्तर्मुहूर्त और | | कियाएँ स्वयं ही करता है। - जून 2009 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहिए। (ऊ) प्रायोपगमन- जिस सल्लेखना में क्षपक वर्तमान में अन्य मत के मंदिरों में मोबाइल लेकर अपनी सेवा परिचर्या न तो स्वयं करता है. न अन्य से प्रवेश नहीं करने दिया जाता है। जैसे देहली के पास नोएडा कराता है, उसे प्रायोपगमन कहते हैं। इस सल्लेखना में | में जो अक्षरधाम नामक विशाल मंदिर बना है, उसमें प्रवेश क्षपक शरीर को लकड़ी की तरह छोड़कर आत्मा की ओर | करते ही मोबाइल दरवाजे पर ही जमा कराना होता है। ही लक्ष्य रखता है और निरन्तर आत्मध्यान में रत रहता | पूछने पर वे कहते हैं कि यदि मोबाइल साथ रखेंगे तो है। यह सल्लेखना अंतिम अवस्था में पहुंचने पर ही प्रबल | एकाग्रता नहीं रह सकेगी। जब अन्य मत के लोग इस प्रकार संहननधारियों के द्वारा ग्रहण की जाती है। सोचते हैं, तो अन्तराय आदि कर्मों के बंध की प्रक्रिया प्रश्नकर्ता- आनन्द कुमार जैन, आगरा। जानने वाले हम जैनों को तो इस प्रकरण पर विशेष ध्यान जिज्ञासा-आजकल मोबाइल जेब में रखना अति | देना चाहिए। आवश्यक हो गया है, यदि दर्शन करते समय या स्वाध्याय | जिज्ञासा- विभिन्न तीर्थस्थानों पर क्षेत्र की वंदना गोष्ठी में कभी घंटी बज जाए तो क्या पापबंध का कारण है? समाधान- अपनी जेब में मोबाइल रखना वास्तव नाम के पत्थर लगे हए दिखाई देते हैं। जैसे सोनागिर जी में उतना आवश्यक नहीं है, जितना हमने मान लिया है। में पर्वतवंदना के मार्ग में जब वंदना करनेवाले के पैर इन हम इतने वेसब्र हो गए हैं कि मंदिर में दर्शन करते समय, | पर पड़ते हैं, तो पाप लगता है या नहीं? जाप देते समय, प्रवचन सुनते समय, तथा स्वाध्याय करते | समाधान- दान देने का सही मार्ग तो यह है कि समय भी अपना मोबाइल बंद नहीं रखना चाहते। देखा | दान दिया जाये और अपने नाम की भावना न रखी जाए। जाता हे कि जाप देने वाले कुछ लोग जाप देते हुए बीच | परन्तु आजकल दान देनेवाला पहले यही पूछता है कि हमारे में ही, जाप देना छोड़कर पूजा करने वाले पूजा बीच में | नाम का पाटा लगेगा या नहीं? यदि उसका उत्तर नहीं में ही छोडकर मोबाइल सनने लग जाते हैं, जो महान् कर्मबन्ध | होता है, तो दान देनेवाला, दान नहीं देता है। बहुत से स्थानों का कारण है। आप स्वयं सोचें, जब आपके मोबाइल की | पर पाटिये न लगने के कारण झगड़े भी होते हुए देखे जाते घण्टी बजने लगी है, तब क्या उसको सुनकर मंदिर में | है। उचित तो यही है कि पाटे लगाने की परम्परा बंद हो दर्शन या पूजन करनेवाले अन्य जीवों का मन उधर से | जाए। मैंने सोनागिर जी की वंदना बहुत बार की है और हटकर आपकी घंटी की ओर आकर्षित नहीं होता है? क्या उसमें पर्वत की वंदना मार्ग पर लगे हुए पाटियों को भी स्वाध्याय करते समय जब मोबाइल की घंटी अचानक बज | देखा है। इन पाटियों पर वीर निर्वाण संवत् या अन्य उठती है, तो सभी स्वाध्याय करनेवाले जीवों का स्वाध्याय | मंगलसूचक शब्द भी लिखे रहते है। सच पूछा जाये तो करने में व्यवधान नहीं होता है? क्या प्रवचन सुनते समय | ये सभी अक्षर द्रव्यश्रुत के अन्तर्गत आते हैं। यदि इन पर यदि घंटी बज जाए, तो निकट बैठे हुए पच्चीस-पचास | अपने पैर पड़ते हैं तो द्रव्यश्रुत की महान् अविनय होती लोगों का ध्यान प्रवचन से हटकर आपकी ओर नहीं हो | है। मैंने विभिन्न मुनिराजों के मुख से सुना है कि अखबारों जाता है? इन सबका उत्तर आप स्वयं यही दे पायेंगे कि । के ऊपर बैठना या उन पर खड़े होना महान् द्रव्यश्रुत की वास्तव में ऐसा होता तो है। जब मोबाइल बज उठता है, | अविनय का कारण है। विभिन्न मंदिरों के दरवाजों पर प्रवेश तब अपने साथ अन्य सभी को पूजा-स्वाध्याय आदि में | करते ही ऐसे पाटिये जमीन पर लगे हुए दिखाई पड़ते है। । ही है। इस तरह यदि हम अन्य के धार्मिक | ये सब द्रव्यश्रुत की अविनय के प्रसंग हैं। कार्यों में व्यवधान करते हैं, तो दूसरे के कार्यों में विघ्न इस महान् अविनय से बचने के लिए जहाँ-जहाँ डालने से महान् अन्तराय कर्म का बन्ध होता है, साथ ही | पैर रखने के स्थानों पर अक्षरसहित पाटिये लगे हों, उनको ज्ञानावरण आदि कर्मों का महान् बन्ध होता है। देव-शास्त्र- | या तो दीवार पर लगा देना उचित है अथवा हटा देना उचित गरु की महान अविनय होती है, जिससे महान् अशुभ कर्मों | है। ऐसे वंदनामार्गों पर इन लिखे हए पाटियों के स्थान पर का बन्ध होता है। प्लेन पत्थर लगा दिए जायें, तो सुन्दरता भी बनी रहेगी अतः उचित तो यही है कि हम धार्मिक कार्यों में | और अविनय से भी बचा जा सकेगा। जब जायँ तब मोबाइल न ले जाएँ। यदि ले भी जाएँ तो १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी उसे बंद रखें ताकि महान अशुभ कर्मों का बंध न हो।। आगरा-२८२ ००२, उ० प्र० 32 जून 2009 जिनभाषित - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ निशाना जब भी मैंने किसी और को निशाना बनाया और अपने जीतने का जश्न मनाया मैंने पाया, मैं ही हारा, अनजाने ही मेरा तीर मुझसे टकराया शिकार मैं ही बना और कई रोज तक कराहती रही मेरी घायल चेतना। बासेपन का अहसास हमें विरक्त न कर सके। कुछ भी नहीं प्यासा मृग मरीचिका में उलझा और तड़प उठा हमने कहाबेचारा मृग। स्वाद की मारी मीन काँटे-में-उलझी और मर गयी हमने कहाअभागी मीन॥ एक पतंगा दीपक की जोत पर रीझा और झुलस गया हमने कहापागल परवाना।। वाह रे हम। अपनी प्यास अपनी उलझन और अपने दीवानेपन पर हमें अपने से कभी कुछ भी नहीं कहना। अहसास हमने यहाँ एक-एक चीज और अपने बीच वासनाओं के नित-नवीन/रंगीन परदे डाल रखे हैं कि रोज कुछ नया लगे जिन्दगी भ्रम में गुजर सके और 'पगडंडी सूरज तक' से साभार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UPHIN/2006/16750 मुनि श्रीयोगसागर जी की कविताएँ हे आत्मन् ये तन नूतन नहीं है इस में परिवर्तन क्यों इतना यतन-जतन और कीर्तन तू मान रहा है रतन सा पर यह तो भग्न घर सा। है इसका अंत में पतन शकल दिल की नकल करती है अरे भाइयों यही एक अंतद्वन्द्व की पहचान है आत्मा की टोकरी में मीठे-मीठे अंगूर सड़ते जा रहे हैं शराब बनती जा रही है। उस शराब के पान में यह पतित आत्माएँ दिन रात निमग्न हैं हे भाई! व्यंग का रंग-ढंग और अंग भुजंग सा है जिसके दंश से क्रोध का जहर चढ़ता है और बैर की मूर्छा भव-भवांतर में चली जाती है। चंद दिन की जिंदगी में प्यार का बिगुल बजाओ तमाम अरमान मिटा के गले से गले लगाओ प्रस्तुति - प्रो० रतनचन्द्र जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन।