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________________ पञ्चम अंश तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक विवेचन पं० महेशकुमार जैन व्याख्याता चतुर्थ अध्याय इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपा- । है । उसके ३ योजन ऊपर जाकर शुक्र है। उससे ३ लानीक प्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः ॥ ४ ॥ योजन ऊपर जाकर बृहस्पति है। उससे ४ योजन ऊपर सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोवार्तिक एवं तत्त्वार्थवृत्ति जाकर मंगल है। उससे ४ योजन ऊपर जाकर शनि है। आदि ग्रन्थों में च शब्द की व्याख्या नहीं की है। यह ज्योतिष्क देव सम्बन्धी आकाशप्रदेश है। वह कुल मिलाकर ११० योजन मोटाईयुक्त है और तिरछा घनोदधिवलय पर्यन्त फैला हुआ है, ऐसा व्याख्यान करना चाहिये । तत्त्वार्थवृत्ति - चकारः परस्परसमुच्चये वर्तते । तेनायमर्थः न केवलं सूर्याचन्द्रमसौ ज्योतिष्कौ किन्तु ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ज्योतिष्काः वर्तन्ते । अर्थ- चकार शब्द परस्पर समुच्चय के लिए है, जिससे यह अर्थ है कि केवल सूर्यचन्द्रमा ही ज्योतिष्क नहीं है किन्तु ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे भी ज्योतिषी देव कहलाते हैं । सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्द: पूर्वविकल्प समुच्चयार्थः । एकैकस्य निकायस्यैकशः । ततो न केवलं पूर्वोक्तविकल्पाः । किं तर्ह्येते इन्द्रादयश्च दशविशेषा एकैकस्य निकायस्य भवन्तीति समुदायार्थः । अर्थ- 'च' शब्द पहले के विकल्पों का समुच्चय करता है। एकशः अर्थात् एक-एक निकाय के, इससे यह अर्थ फलित होता है कि पहले कहे हुए विकल्प ही नहीं, किन्तु ये इन्द्र आदि दस विशेष भी एक-एक निकाय के होते हैं । भावार्थ- ज्योतिष्क देवों के अवस्थान कहाँ-कहाँ हैं, इस कथन का समुच्चय करने के लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया गया है। कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥ १७ ॥ तारकाश्च ॥ १२ ॥ सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सुखबोध सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक एवं श्लोकवार्तिक मे 'च' तत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वार्थवृत्ति एवं तत्त्वार्थमंजूषा आदि टीकाओं शब्द की व्याख्या नहीं है। में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की है । भावार्थ - भवनवासी, व्यन्तर आदि में इन्द्र, सामानिक आदि १०-१० भेद भी होते हैं। इसी का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में चकार प्रयुक्त है। ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णक सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दोऽनुक्तसमुच्च- पू० आचार्य विद्यासागर जी - 'च' शब्द होने से, यार्थस्ततोऽस्मात् समाद्भूद्भागादूर्ध्वं सप्तयोजनशतानि ये स्थिर भी हैं, ऐसा अर्थ लगा लेना चाहिये। नवत्युत्तराण्युत्पत्य सर्वज्योतिषामधो भाविन्यस्तारकाश्चरन्ति । सौधर्मैशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवका सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वार्थवृत्ति एवं तत्त्वार्थमंजूषा आदि ग्रन्थों में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की है। भावार्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द का अर्थ 'और' ततो दशयोजनान्युत्पत्य सूर्याश्चरन्ति । ततोऽशीतियोजना- पिष्ठशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्त्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतन्युत्पत्य चन्द्रमसो भवन्ति । ततस्त्रीणियोजनान्युत्पत्य नक्षत्राणि योर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थपर्यटन्ति । ततस्त्रीणि योजनान्युत्पत्य बुधाः । ततस्त्रीणि सिद्धौ च ॥ १९ ॥ योजनान्युत्पत्य शुक्राः । ततस्त्रीणियोजनान्युत्पत्य बृहस्पतयः । ततश्चत्वारियोजनान्युत्पत्यांगरकाः। ततश्चत्वारियोजनान्युत्पत्य शनैश्चराश्चरन्तीति । स एषः ज्योतिष्कविषयो नभः प्रदेशो दशोत्तरयोजनशतबहलस्तिर्यग्घनोदधि पर्यन्त इति व्याख्येयम् । अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द अनुक्त का समुच्चय करने के लिए है। इस समतल भूभाग से ऊपर ७९० योजन जाकर सर्व ज्योतिष्कों में अधोभावी तारे चलते हैं, उससे १० योजन ऊपर जाकर सूर्य चलते हैं। उसके ८० योजन ऊपर जाकर चन्द्रविमान हैं। उससे ३ योजन ऊपर जाकर नक्षत्र घूमते हैं। उसके ऊपर ३ योजन ऊपर जाकर बुध 18 जून 2009 जिनभाषित है । Jain Education International वह्नयरुणगर्दतोयतुषिताव्याबा सारस्वतादित्य धारिष्टाश्च ॥ २५ ॥ सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्द समुच्चितास्तेषामन्तरेषु द्वौ देवगणौ । तद्यथा - सारस्वतादित्यान्तरे अग्न्याभसूर्याभाः । आदित्यस्य च बह्नेश्यान्तरे चन्द्राभसत्याभाः । वन्यरुणान्तराले For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524340
Book TitleJinabhashita 2009 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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