SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रेयस्करक्षेमंकराः। अरुणगर्दतोयान्तराले वृषभेष्टकामचाराः।। दिषु सर्वार्थसिद्धौ च॥ ३२ ॥ गर्दतोयतुषितमध्ये निर्माणरजोदिगन्तरक्षिताः। तुषिता- | सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सुखबोधव्याबाधमध्ये आत्मरक्षितसर्वरक्षिताः। अव्याबाधारिष्टान्तराले | तत्त्वार्थवृत्ति में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की गयी है। मरुद्वसवः। अरिष्टसारस्वतान्तराले अश्वविश्वाः। सर्वे एते तत्त्वार्थवृत्ति- 'सर्वार्थसिद्धौ च' इति पृथक्पदकरणं स्वतन्त्राः, हीनाधिकत्वाभावात्। | जघन्यस्थितिप्रतिषेधार्थम्। सर्वार्थसिद्धिं गतौ जीवः परिअर्थ- सूत्र में 'च' शब्द समुच्चय के लिए है, | पूर्णानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि भुंक्ते। विजयादिषु तु जघन्यउससे इनके मध्य में २-२ देवगण (समूह) और हैं।| स्थितिभत्रिंशत्सागरोपमानि। यथा- सारस्वत और आदित्य के मध्य में अग्न्याभ और अर्थ- 'सवार्थसिद्धौ च' इस प्रकार पृथक् पद जघन्य सूर्याभ हैं। आदित्य और वह्नि के मध्य में चन्द्राभ और | स्थिति का निषेध करने के लिए है अर्थात् सवार्थसिद्धि सत्याभ हैं। वह्नि और अरुण के बीच में श्रेयस्कर को प्राप्त जीव पूर्ण ३३ सागर प्रमाण आयु का भोग और क्षेमंकर हैं। अरुण और गर्दतोय के मध्य में वृषभेष्ट | करते हैं, किन्तु विजयादिक में जघन्य आयु ३२ सागर और कामचार हैं। गर्दतोय और तषित के मध्य में | प्रमाण होती है। निर्माणरजस् और दिगन्तरक्षित हैं। तुषित और अव्याबाध | भावार्थ- सर्वार्थसिद्धि में ३३ सागर प्रमाण आयु के मध्य में आत्मरक्षित और सर्वरक्षित हैं। अरिष्ट और | होती है, जघन्य नहीं होती है। इसी का ज्ञान कराने के सारस्वत के मध्य में अश्व और विश्व हैं। ये सब देव | लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया है। स्वतन्त्र हैं, क्योंकि इनमें हीनाधिकता नहीं पायी जाती नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥ ३५॥ श्लोकवार्तिक में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की राजवार्तिक- 'च' शब्द समुच्चितः तदन्तराल- | है।। वर्तिनः। २। तेषामन्तरालेषु 'च' शब्दसमुच्चिता द्वन्द्ववृत्या सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक- 'च शब्दः किमर्थ:? देवगणाः प्रत्येतव्याः। तद्यथा-अग्न्याभसूर्याभचन्द्राभसत्या- | प्रकृतसमुच्चयार्थः। किं च प्रकृतम्? 'परतः परतः पूर्वा भश्रेयस्करक्षेमकरवृषभेष्टकामचरनिर्माणरजोदिगन्तर- | पूर्वाऽनन्तरा' अपरा स्थितिरिति । तेनायमर्थो लभ्यते रत्नप्रभायां क्षितात्मरक्षितसर्वरक्षितमरुद्वस्वश्व-विश्वाख्याः। ३। एते | नारकाणां परास्थितिरेकं सागरोपमम्। सा शर्कराप्रभायां अग्न्याभादयः षोडश देवगणा लौकान्तिकभेदाः कथ्यन्ते। जघन्या। शर्कराप्रभायामुत्कृष्टा स्थितिस्त्रीणि सागरोपमणि। अर्थ- 'च' शब्द से अन्तरालवर्ती विमानों का संग्रह | सा बालुकाप्रभायां जघन्येत्यादि। हो जाता है। उन विमानों के अन्तरालवर्ती विमानों का अर्थ- शंका- सूत्र में 'च' शब्द किसलिए दिया संग्रह 'च' शब्द से होता है और द्वन्द्ववत्ति से उन विमानों | है? समाधान- प्रकृत विषय का: में रहनेवाले देवगणों को जानना चाहिये। जैसे- अग्न्याभ, 'च' शब्द दिया है। शंका- क्या प्रकृत है? समाधानसूर्याभ, चन्द्राभ, सत्याभ, श्रेयस्कर, क्षेमंकर, वृषभेष्ट, | 'परतः परतः पूर्वापूर्वाऽनन्तरा अपरा स्थितिः' यह प्रकृत कामचर, निर्माणरजस्, दिगन्तरक्षित, आत्मरक्षित, सर्वरक्षित, | है अतः 'च' शब्द से इसका समुच्चय हो जाता है। मरुत् वसु, अश्व और विश्व इन नामों के विमान हैं।। इसका यह अर्थ प्राप्त होता है कि रत्नप्रभा में नारकियों ये अग्न्याभ आदि षोडश देवगण लौकान्तिक देवों के | की उत्कृष्ट स्थिति जो एक सागरोपम है वह शर्कराप्रभा ही भेद कहे जाते हैं। में जघन्य स्थिति है। शर्कराप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति जो श्लोकवार्तिक, सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वार्थवृत्ति इन | ३ सागरोपम है, वह बालुकाप्रभा में जघन्य स्थिति है तीनों ग्रंथों में तत्त्वार्थसूत्र एवं राजवार्तिक के आधार पर | इत्यादि। . ही लौकान्तिक देवों के भेदों का वर्णन किया गया है। सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- परतः परत: पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा भावार्थ- सारस्वत, आदित्य आदि लौकान्तिक देवों | परा स्थितिरित्येतस्यार्थस्य समुच्चयाश्चशब्दः कृतः। के विमानों के मध्य में २-२ विमान और हैं। इस प्रकार अर्थ- 'पूर्व-पूर्व की जो उत्कृष्ट स्थिति है वह ८+१६-२४ विमान हो जाते हैं। इन्हीं का समुच्चय करने | आगे-आगे जघन्य हो जाती है' इस अर्थ का समुच्चय के लिए सूत्र में 'च' शब्द कहा है। करने हेतु 'च' शब्द को ग्रहण किया है। आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजया- । तत्त्वार्थवृत्ति- चकारात् पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा इत्यनुकृष्यते। जून 2009 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524340
Book TitleJinabhashita 2009 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy