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________________ “निमित्तशास्त्र आदि भी भगवान् की वाणी से उद्भूत हुए है, तो भी वे प्रथमानुयोग आदि शास्त्रों के समान आदरणीय नहीं है। देखो, मस्तक भी शरीर का अंग हैं और पैर भी, फिर भी पैर मस्तक के समान श्रेष्ठ अंग नहीं माने जाते।" नानुयोगसमयेष्विवादरः स्यान्निमित्तकमुखेषु भो नर! वाक्तया समुदितेषु चाहतां मूर्धवत् क्व पादयोः सदङ्गता॥ (जयोदय / पूर्वार्ध । २/६४) आचार्य ज्ञानसागर जी आगे कहते हैं- "समझदार मनुष्य को याद रखना चाहिए कि भगवान् अरहंत की वाणी में भी जानने योग्य, प्राप्त करने योग्य और छोड़ने योग्य, ऐसा तीन तरह का कथन आता है। माताएँ अपने छोटे बच्चों को डराने के लिए 'वुचि आयी' आदि शब्द कहा करती हैं, तो माता के मुँह से ये शब्द निकले है, ऐसा मानकर क्या वे संग्रह करने योग्य होते है? (वे तो सुनकर भूल जाने योग्य होते हैं।)" ज्ञाप्यमाप्यमथ हाप्यमप्यदः श्रीगिरोऽपि समियाद्वशंवदः। मातुरुच्चरणमात्रतो वुचीत्यादि सङ्कलितुमेति किन्नुचित्॥ (वही / २ / ६५)। इस दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाता है कि दृष्टिवाद अंग में वर्णित उपर्युक्त परसमय (अजैन शास्त्र) जिनप्रणीत नहीं है, अपितु परप्रणीत अर्थात् लोकप्रणीत ही हैं। जिनेन्द्रदेव ने उनका कथन मात्र किया है और इसका प्रयोजन है, मुमुक्षु के लिए उन्हें त्याज्य बतलाना। अपराजितसूरि ने भी उपर्युक्त शास्त्रों को बाह्यशास्त्र कहा है "स्त्रीपुरुषलक्षणं निमित्तं,ज्योतिर्ज्ञानं, छन्दः,अर्थशास्त्रं, वैद्यं,लौकिक-वैदिकसमयाश्च बाह्यशास्त्राणि।" (भगवती-आराधना / विजयोदया टीका / गाथा ६१३ / पृ. ४२१)। कार्तिकेयानप्रेक्षा के टीकाकार शभचन्द्र ने भी उक्त लौकिक शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन-चिन्तन को निष्फल बतलाते हुए परसमय अर्थात् बाह्यशास्त्र घोषित किया है। यथा "तस्य पुंसः स्वाध्यायः शास्वाध्ययनं निष्फलं विद्धि---यः पुमान् युद्ध-कामशास्त्रं पठति पाठयति चिन्तयति च। युद्धशास्त्र--- गजाश्वपरीक्षा-नरनारीलक्षणसामुद्रिक-ज्योतिष्क-वैद्यक-मन्त्रतन्त्रौषधि-यन्त्रादिशास्त्रं कामशास्त्रं वा रसायन-कुक्कोश-स्त्री सेवादिषु श्रुतं कामक्रीडासनशास्त्रम् अध्येति परान् अध्यापयति अध्यासयति। कीदक सन्? रागद्वेषाभ्यां परिणत:--- लोकवञ्चनार्थं प्रतारणनिमित्तम्।" (का.अ./ टीका / गा.४६४)। आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार आचार्य जयसेन ने भी मन्त्रतन्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि को लौकिकशास्त्र बतलाते हए उनका अध्ययन, अध्यापन और प्रयोग करनेवाले निर्ग्रन्थों को लौकिक मुनि कहा है "वस्त्रादिपरिग्रहरहितत्वेन निर्ग्रन्थोऽपि--- वर्तते यदि--- ऐहिकैः कर्मभिः, भेदाभेदरत्नत्रयभावनाशकैः ख्यातिपूजालाभनिमित्तैोतिष-मन्त्रवादि-वैदिकादिभिरैहिकजीवनोपायकर्मभिः स लौकिको व्यावहारिक इति भणितः।" (तात्पर्यवृत्ति / प्रवचनसार / ३/६९)। ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र ने विद्यानुवादपूर्व के मन्त्रों को कुमार्ग और कुध्यान का हेतु बतलाया है और कहा है कि बहुत से मुनियों ने केवल कुतूहल के लिए अर्थात् चमत्कार दिखाने की इच्छा से उन्हें ग्रन्थों में प्रकट किया है - बहूनि कर्माणि मुनिप्रवीरैर्विद्यानुवादात्प्रकटीकृतानि। असंख्यभेदानि कुतूहलार्थं कुमार्गकुध्यानगतानि सन्ति॥ ४० / ४१ / ज्ञानार्णव। बृहद्रव्यसंग्रह-टीकाकार ब्रह्मदेवसूरि ने भी ज्योतिष, मन्त्रतन्त्र आदि के प्रयोग का उद्देश्य प्रयोजनविशेष से अज्ञानियों के चित्त में चमत्कार उत्पन्न करना बतलाया है- "अज्ञानिजन-चित्तचमत्कारोत्पादकं - जून 2009 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524340
Book TitleJinabhashita 2009 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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