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एक मात्र जिनेन्द्र ही सच्चे देव हैं
जैन मन्दिरों में प्रतिदिन सबसे प्रथम देव शास्त्रगुरु की ही पूजा की जाती है। पं० द्यानत राय जी कृत पूजा की स्थापना का पद्य इस प्रकार है
प्रथम देव अरहंत सुश्रुत सिद्धान्तजु । गुरु निर्ग्रन्थ महन्त मुकतिपुर पन्थ जु। तीन रतन जगमाहिं सु ये भवि ध्याईये । तिनकी भक्ति प्रसाद परम पद पाईये। अर्थात् अरहन्त देव, द्वादशांग श्रुतरूप सिद्धान्त और महान निर्ग्रन्थ गुरु मुक्ति रूपी नगरी के राहगीर हैं, जगत में ये तीन रत्न हैं। भव्य जीवों को इनका ध्यान करना चाहिये और उनकी भक्ति के प्रसाद से परम पद मोक्ष प्राप्त करना चाहिये।
इन तीन रत्नों में प्रथम रत्न अरहन्त देव हैं, जो वीतरागी सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं। एक मात्र यह जिनेन्द्र देव ही सच्चे देव हैं जिसकी ऐसी श्रद्धा है वही सच्चा जैन है । और जिसकी देवविषयक श्रद्धा ठीक नहीं है, भले ही वह उन्हें पूजता हो, किन्तु वह सच्चा जैन नहीं है।
देवगति के जो देव हैं, वे तो देवगति नामक कर्म के उदय से देवगति में जन्म लेने से देव हैं उनमें और । सच्चे देव जिनेन्द्र में तो जमीन आसमान का अन्तर है । देवगति के देवों के भी चार भेद हैं- भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिषी और वैमानिक । इन में से आदि के तीन निकृष्ट देव कहलाते हैं । सम्यग्दृष्टि मर कर इनमें जन्म नहीं लेता । पद्मावती धरणेन्द्र भवनवासी जाति के देव हैं, जो प्रथम नरक के ऊपर पाताल लोक में निवास करते हैं भगवान् पार्श्वनाथ के द्वारा दिये गये णमोकारमंत्र के प्रभाव से जलते हुए नाग, नागनी मरकर धरणेन्द्र पद्मावती हुए । कहाँ भगवान् पार्श्वनाथ और कहाँ निकृष्ट जाति के देव धरणेन्द्र
पद्मावती । किंतु लक्ष्मी के लोभी लोग भगवान् पार्श्वनाथ की उपेक्षा करके पद्मावती को पूजते हैं और मन्दिरों में वेदियाँ बनाकर उन्हें स्थापित करते हैं । और हमारे कोईकोई निर्ग्रन्थ साधु और आर्यिका माता भी कुदेवपूजा का प्रचार करते पाये जाते हैं । वे सांसारिक भोगों की प्राप्ति के लिये भगवान् पार्श्वनाथ को ही पूजने का उपदेश न देकर पद्मावती को पूजने का उपदेश देते हैं और इस तरह
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16 जून 2009 जिनभाषित
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स्व० पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री
मोक्षपुर के पथिक बनकर मिथ्यात्व का प्रचार करते हैं। कुदेव कहने से लोग जैनधर्म से विमुख अन्य मतों के देवों को ही कुदेव समझते हैं। वे यह नहीं जानते कि जैनधर्म के उपासक रागी-द्वेषी देव भी कुदेव हैं। सच्चे देव तो एक मात्र वीतरागी अरहन्त देव ही हैं। और वे ही पूज्य हैं । जैनधर्म में रत्नत्रय - सम्यर्दशन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही पूज्यता के चिन्ह हैं। इन्हीं के कारण आचार्य उपाध्याय और साधु, पूज्य माने गये हैं, क्योंकि वे रत्नत्रय के धारी होते हैं। देवगति के देव देवियों में तो चारित्र का लेश भी नहीं होता, तब पूज्यता का प्रश्न ही नहीं है। देवगति के देवों में भी यदि पूज्य हैं, तो लौकान्तिक देव, सर्वार्थ सिद्धि के देव और सौधर्म इन्द्र तथा उसकी इन्द्राणी पूज्य माने जा सकते हैं, क्योंकि ये सब मनुष्यभव धारण करके नियम से मोक्ष जाते हैं।
अतः जैनधर्म संसारमार्गी धर्म नहीं है, मोक्षमार्गी धर्म है । जिन्हे संसार अच्छा लगता है, उनके लिये यह धर्म नहीं है। आचार्य समन्तभद्र ने अपने श्रावकाचार के प्रारम्भ में ही कहा है कि मैं उस सच्चे धर्म का उपदेश करता हैं, जो कर्मबन्धन का नाशक है और प्राणियों को संसार के दुःख से छुड़ाकर उत्तम सुख से सम्पन्न मोक्ष में धरता है ।
किन्तु आज के पंचमकाल में मोक्ष के सुख में आस्था ज्ञानी की ही हो सकती है, अज्ञानी की नहीं। और ज्ञानी, चारित्र धारण करने से नहीं होता, श्रद्धापूर्वक तत्त्वज्ञान से होता है तत्त्वज्ञान में आत्मा का शुद्ध स्वरूप, उसके अशुद्ध होने के कारण, उन कारणों से छूटने का उपाय ये सब आते हैं। इन सब की श्रद्धापूर्वक जो चारित्र धारण करता है, वही सच्चा धर्मात्मा है और वह धर्मात्मा जिनभक्ति के प्रसाद से संसार के सुखों को अनासक्त भाव से भोगता हुआ क्रम से मोक्ष प्राप्त करता है। क्या पद्मावती आदि शासन देवों की भक्ति करने से यह सब प्राप्त हो सकता है ?
भगवान् तीर्थंकरों ने हमें बतलाया कि कोई भी देवीदेवता किसी को कुछ भी देने की शक्ति नहीं रखता । देने लेनेवाले तो प्राणी के अपने ही अच्छे बुरे कर्म हैं बुरे कर्मों का फल बुरा और अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता
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