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________________ काल होता है और वह परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व । पर्याय है। पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती, उस समयरूप से जाना जाता है। जीव तथा पदगल की परिवर्तन रूप | पर्याय (व्यवहार) काल का उपादानकारणभूत द्रव्य भी जो नूतन तथा जीर्ण पर्याय है, उस पर्याय की जो समय, | कालरूप ही होना चाहिए। घड़ी आदि रूप स्थिति है, वह स्थिति ही द्रव्यपर्यायरूप | शंका- स्वसमय और परसमय में जो स्वसमय व्यवहार काल है। समय तो काल की ही पर्याय है। | पद आया है, उसका क्या अभिप्राय है? यदि यह पूछो कि समय काल की पर्याय कैसे है? | समाधान- देखो, यहाँ पर समय का अर्थ आत्मा तो उत्तर यह है कि पर्याय का लक्षण उत्पन्न व नाश | नहीं काल ग्रहण करना चाहिए। होना है। समय भी उत्पन्न व नष्ट होता है इसलिए । 'श्रुताराधना' (पृष्ठ १७-२९) से साभार क्रमशः --- कुण्डलपुर में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का समाधिदिवस सम्पन्न 'समाधिमरण कायरों का कार्य नहीं है, जो मरण से नहीं डरता, उसे आत्मा का लाभ होता है, पुनः जन्म नहीं होता, उसी का नाम समाधिमरण है। आचार्यश्री ज्ञानसागर जी महाराज का जीवन साधनामय था, कायाकृश थी, किन्तु काया में रहनेवाली आत्मा का बहुत यश था।' ये विचार आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कुण्डलपुर के विद्याभवन में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ३७वें समाधिदिवस पर अभिव्यक्त किये। इसके पूर्व मंगलाचरण के उपरांत आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चित्र का अनावरण विद्वान श्री मूलचंद्र जी लुहाड़िया किशनगढ़ एवं श्री त्रिलोकचंद्र जी अजमेर ने किया। बड़ेबाबा एवं आचार्यश्री के चित्र के समक्ष ज्ञानज्योति का प्रज्ज्वलन श्री अशोक कुमार जबलपुर एवं आचार्यश्री की आरती का सौभाग्य श्री दीपक जैन दिल्ली एवं उनके परिवार ने प्राप्त किया। अनेक श्रावकों ने इस अवसर पर आचार्यश्री को शास्त्रभेंट करने का सौभाग्य प्राप्त किया। इस अवसर पर श्रुतआराधना नामक पुस्तक का विमोचन किया गया। सर्वप्रथम विद्वान् मूलचंद्र जी लुहाड़िया ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुये कहा कि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज न होते, तो आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का निर्माण नहीं होता और यदि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज न होते, तो आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का इतना अच्छा समाधिमरण न होता। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने उनसे शिक्षा लेकर संयम का जो कीर्तिमान स्थापित किया है, उससे इस सदी को उन्हीं के नाम से जाना जाने लगा है। इसके पश्चात् मुनि श्री विनम्रसागर जी महाराज ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति प्रतिपल मृत्यु की और अग्रसर हो रहा है। मृत्यु पर विजय पाना ही सच्चा समाधिमरण है। पूज्य मुनि श्री महासागर जी महाराज ने कहा कि पुण्य न हो, तो पुरुषार्थ भी कार्य नहीं करता। समाधिदिवस जीवन का सर्वोच्य शिखर है। मुनि श्री शांतिसागर जी महाराज ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में संस्कारों का बीजारोपण कर लेना चाहिए। इसके उपरांत अभिनंदन सागर जी महाराज ने कहा कि जीवनभर की साधना का प्रतिपल समाधिमरण है। संसारी प्राणी को सबसे अधिक मृत्यु का भय होता है। समाधिमरण से वह अभय को प्राप्त करता है। __ आचार्यश्री ने अंत में कहा कि जब शरीर का छूटना होता है, तभी हमें आत्मा का लाभ होता है। सुमरण तभी होता है जब प्रभु सुमरन किया जाता है। आत्मा न कभी मरती है न ही जन्म लेती है। आत्मा चय के लिये दूसरी आत्मा की आवश्यकता नहीं होती। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की स्मृतियों हमारे जीवन में चेतन मूर्ति की तरह रहेंगी। सुनील वेजीटेरियन जून 2009 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524340
Book TitleJinabhashita 2009 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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